समय के सोपान पर जब, एक निश्चित जगह आकर,
बुद्धि विकसित, तथ्य दर्शित स्वयं ही होने लगे ।
निज करों में जीवनी की बागडोरें, मैं सम्हाले,
बढ़ चला, जब लोग मुझ पर नियन्त्रण खोने लगे ।।१।।
एक पुस्तक सी खुली थी, कभी जो दुनिया छिपी थी,
जहाँ व्यक्तित्वों भरे अध्याय बाँटे जोहते थे ।
खोल आँखें, सामने तो, दीखती राहें अनेकों,
दृश्य मुझको रोकते थे, खींचते थे, सोहते थे ।।२।।
मनस में आनन्द की मदमस्त कोयल कूजती थी,
सकल जीवन के सुहाने स्वप्न दिन में दीखते थे ।
खड़ा मैं स्वच्छन्दता के भाव में कुछ और गर्वित,
हर तरफ अधिकार के विस्तार ही दिखने लगे थे ।।३।।
अनुभवों के कोष को मैं व्यग्र हो भरने लगा था ।
और अपने निर्णयों को स्वयं ही करने लगा था ।।
(वर्षों पहले लिखी थी, वह भाव पता नहीं, कहाँ चला गया?)
बुद्धि विकसित, तथ्य दर्शित स्वयं ही होने लगे ।
निज करों में जीवनी की बागडोरें, मैं सम्हाले,
बढ़ चला, जब लोग मुझ पर नियन्त्रण खोने लगे ।।१।।
एक पुस्तक सी खुली थी, कभी जो दुनिया छिपी थी,
जहाँ व्यक्तित्वों भरे अध्याय बाँटे जोहते थे ।
खोल आँखें, सामने तो, दीखती राहें अनेकों,
दृश्य मुझको रोकते थे, खींचते थे, सोहते थे ।।२।।
मनस में आनन्द की मदमस्त कोयल कूजती थी,
सकल जीवन के सुहाने स्वप्न दिन में दीखते थे ।
खड़ा मैं स्वच्छन्दता के भाव में कुछ और गर्वित,
हर तरफ अधिकार के विस्तार ही दिखने लगे थे ।।३।।
अनुभवों के कोष को मैं व्यग्र हो भरने लगा था ।
और अपने निर्णयों को स्वयं ही करने लगा था ।।
(वर्षों पहले लिखी थी, वह भाव पता नहीं, कहाँ चला गया?)