कौन दिशा उड़ जाये पंछी,
जाकर उसे बताये कौन,
तारे सब छिप बैठ गये हैं,
पंथहीन नभ, जाये कौन,
अंत नहीं, कुछ मंत्र नहीं है,
साधन सीमित, तन्त्र नहीं है,
जब हों सबकी, क्लांत उड़ानें,
आश्रय-हाथ बढ़ाये कौन।।१।।
तथ्यों का आकार बढ़ रहा,
अर्थ बिखरता जीवन का,
तत्व ज्ञान के द्वार संकुचित,
विश्लेषण कैसे क्रम का,
तर्कों के आधार सुप्त हैं,
प्रेरक दृष्टा, मार्ग लुप्त हैं,
निष्कर्षों की धारा वांछित,
द्वन्द्व मिटे अन्तरमन का।।२।।
कहो सूर्य से, और न डालें,
ऊष्मा तप्त व्यवस्था में,
काल निशा की शीत बिछी हो,
इस उद्विग्न अवस्था में,
प्रश्न और निर्णय स्थिर हों,
आश्वासन के अक्षर चिर हों,
संवेदित एकान्त भा रहा,
जीवन की परवशता में।।३।।
अनुशासन क्यों घेरे जीवन,
पूर्ण मुक्त मन की लहरी,
सीमायें जब ज्ञात नहीं हैं,
आवश्यक तब क्यों प्रहरी,
वर्तमान का चित्रांकन हो,
संबंधों का मूल्यांकन हो,
जाग सके संयुक्त चेतना,
क्षुब्धमना बैठी बहरी।।४।।
ज्ञान पुरातन, गूढ़, संग्रहित,
आपाधापी, व्यर्थ हो गया,
आक्रांता का छद्म आवरण,
देखो पूर्ण समर्थ हो गया,
मूल तत्व सब धूल मिले हैं,
विषबेलों के फूल खिले हैं,
एक सतत जो जीवनक्रम था,
अस्त-व्यस्त, हत-अर्थ हो गया।।५।।
दया नहीं, है दिशा अपेक्षित,
चलने में सक्षम पग हैं,
सदियों की उपलब्धि वृहद
है हमने भी नापे जग हैं,
अवसादों से नित जूझेंगे,
उलझे मन, जीवन गूथेंगे,
और न पंथों का भ्रम, तारे,
आश्वासन से जगमग हैं।।६।।
जाकर उसे बताये कौन,
तारे सब छिप बैठ गये हैं,
पंथहीन नभ, जाये कौन,
अंत नहीं, कुछ मंत्र नहीं है,
साधन सीमित, तन्त्र नहीं है,
जब हों सबकी, क्लांत उड़ानें,
आश्रय-हाथ बढ़ाये कौन।।१।।
तथ्यों का आकार बढ़ रहा,
अर्थ बिखरता जीवन का,
तत्व ज्ञान के द्वार संकुचित,
विश्लेषण कैसे क्रम का,
तर्कों के आधार सुप्त हैं,
प्रेरक दृष्टा, मार्ग लुप्त हैं,
निष्कर्षों की धारा वांछित,
द्वन्द्व मिटे अन्तरमन का।।२।।
कहो सूर्य से, और न डालें,
ऊष्मा तप्त व्यवस्था में,
काल निशा की शीत बिछी हो,
इस उद्विग्न अवस्था में,
प्रश्न और निर्णय स्थिर हों,
आश्वासन के अक्षर चिर हों,
संवेदित एकान्त भा रहा,
जीवन की परवशता में।।३।।
अनुशासन क्यों घेरे जीवन,
पूर्ण मुक्त मन की लहरी,
सीमायें जब ज्ञात नहीं हैं,
आवश्यक तब क्यों प्रहरी,
वर्तमान का चित्रांकन हो,
संबंधों का मूल्यांकन हो,
जाग सके संयुक्त चेतना,
क्षुब्धमना बैठी बहरी।।४।।
ज्ञान पुरातन, गूढ़, संग्रहित,
आपाधापी, व्यर्थ हो गया,
आक्रांता का छद्म आवरण,
देखो पूर्ण समर्थ हो गया,
मूल तत्व सब धूल मिले हैं,
विषबेलों के फूल खिले हैं,
एक सतत जो जीवनक्रम था,
अस्त-व्यस्त, हत-अर्थ हो गया।।५।।
दया नहीं, है दिशा अपेक्षित,
चलने में सक्षम पग हैं,
सदियों की उपलब्धि वृहद
है हमने भी नापे जग हैं,
अवसादों से नित जूझेंगे,
उलझे मन, जीवन गूथेंगे,
और न पंथों का भ्रम, तारे,
आश्वासन से जगमग हैं।।६।।
गहन भाव!
ReplyDeleteगहन भाव!
ReplyDeleteAti sundar bhav.prashna air asha ka mishran..Prasad aur nirala ki jhalak..
ReplyDeleteAti sundar bhav.prashna air asha ka mishran..Prasad aur nirala ki jhalak..
ReplyDeleteनित नूतन शोध में संलग्न कविश्रेष्ठ की इस कविता से यह व्यक्त हो रहा है कि अभी तक इन हाथों से जितना सृजन हुआ , वह बानगी मात्र है और अभी बहुत कुछ कर गुजरना शेष है , जिसके लिएअसीम सन्नध्दता है । कविता के भाव अति गम्भीरऔर विचार लौकिक दिखते हुए भी विशुध्द आध्यात्मिक हैं । सादर प्रणाम सर ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-06-2015) को "घर में पहचान, महानों में महान" {चर्चा अंक-2008} पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, बचिए आई फ्लू से - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeletesundar bhaavaabhivyakti !
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग Dynamic पर आपका स्वागत है
manojbijnori12.blogspot.com
अगर पसंद आये तो कृपया फॉलो कर हमारा मार्गदर्शन करे
सुन्दर कविता
ReplyDeleteसुन्दर शब्द संयोजन
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteगज़ब गज़ब.......अद्वितीय शब्द प्रयोग...वाह वाह..।
ReplyDeleteकविता में उत्कृष्टतापूर्वक ढलते जा रहे हैं आपके दैनिक मनोभाव।
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