रत विश्व सतत, मन चिन्तन पथ,
जुड़कर खोना या पंथ पृथक,
क्या निहित और क्या रहित, प्रश्न,
आश्रय, आशय, आग्रह शत शत ।।१।।
प्रातः प्रवेश, स्वागत विशेष,
करबद्ध खड़े, जो कार्य शेष,
प्रस्तुत प्रयासरत यथायोग्य,
अब निशा निकट, मन पुनः क्लेश ।।२।।
क्या पास धरें, क्या त्याग करें,
किस संचय से सब भय हर लें,
तन मन भारी, जग लदा व्यर्थ,
गन्तव्य रिक्त, अनुकूल ढलें ।।३।।
क्षण प्राप्त एक, निर्णय अनेक,
गतिमान समय, अनवरत वेग,
जिस दृष्टि दिशा, लगती विशिष्ट,
आगत अदृश्य, फल रहित टेक ।।४।।
आधार मुक्त, मतिद्वार लुप्त,
संकेतों के संसार सुप्त,
प्रश्नों के उत्तर बने प्रश्न,
निष्कर्ष रचयिता स्वयं भुक्त ।।५।।
क्या आयोजन, क्या संयोजन,
किसका नर्तन, किसका मोदन,
कथनी करनी में मुग्ध विश्व,
यदि नहीं प्राप्त, क्यों आरोदन ।।६।।
न आदि ज्ञात, न अन्त ज्ञात,
न अन्तरमन का द्वन्द्व ज्ञात,
यदि ज्ञात अभी, बस वर्तमान,
एक साँस उतरती रन्ध्र ज्ञात ।।७।।
जुड़कर खोना या पंथ पृथक,
क्या निहित और क्या रहित, प्रश्न,
आश्रय, आशय, आग्रह शत शत ।।१।।
प्रातः प्रवेश, स्वागत विशेष,
करबद्ध खड़े, जो कार्य शेष,
प्रस्तुत प्रयासरत यथायोग्य,
अब निशा निकट, मन पुनः क्लेश ।।२।।
क्या पास धरें, क्या त्याग करें,
किस संचय से सब भय हर लें,
तन मन भारी, जग लदा व्यर्थ,
गन्तव्य रिक्त, अनुकूल ढलें ।।३।।
क्षण प्राप्त एक, निर्णय अनेक,
गतिमान समय, अनवरत वेग,
जिस दृष्टि दिशा, लगती विशिष्ट,
आगत अदृश्य, फल रहित टेक ।।४।।
आधार मुक्त, मतिद्वार लुप्त,
संकेतों के संसार सुप्त,
प्रश्नों के उत्तर बने प्रश्न,
निष्कर्ष रचयिता स्वयं भुक्त ।।५।।
क्या आयोजन, क्या संयोजन,
किसका नर्तन, किसका मोदन,
कथनी करनी में मुग्ध विश्व,
यदि नहीं प्राप्त, क्यों आरोदन ।।६।।
न आदि ज्ञात, न अन्त ज्ञात,
न अन्तरमन का द्वन्द्व ज्ञात,
यदि ज्ञात अभी, बस वर्तमान,
एक साँस उतरती रन्ध्र ज्ञात ।।७।।
अद्वितीय विचार और अनूठी रचना ।सर्वांगसम ,सादर नमन ।
ReplyDeleteक्या पास धरें, क्या त्याग करें,
ReplyDeleteकिस संचय से सब भय हर लें,
तन मन भारी, जग लदा व्यर्थ,
गन्तव्य रिक्त, अनुकूल ढलें
क्या खूब कहा है भाई जीवन की सत्यता नजर आ गयी
दार्शनिक भाव से ओतप्रोत!
ReplyDeleteदार्शनिक भाव से ओतप्रोत!
ReplyDeleteउत्कृष्ट काव्य रचना
ReplyDeleteबड़े अंतराल के बाद पढ़ा .... अच्छा लगा सतत शब्द प्रवाह
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (01-06-2015) को "तंबाखू, दिवस नहीं द्दृढ संकल्प की जरुरत है" {चर्चा अंक- 1993} पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
सत्य वचन
ReplyDeletesundar rachna .........padhkar achcha laga.
ReplyDeleteसर जी! ये ट्रान्सफर के बाद एकाएक कवितायें?
ReplyDeleteवर्तमान में रहें निरन्तर यह ही हमें अभीप्सित है । प्रेरक - प्रस्तुति ।
ReplyDeleteवर्तमान ही सत्य है।
ReplyDeleteगूढ़ विचारों से भरी जीवन दर्शन के सत्य को दर्शाती अद्भुत प्रस्तुती
ReplyDeleteवाह, भावप्रवण कविता...
ReplyDelete...
रस सिक्त छंद, गति मंद मंद
वर दे भर दे मन में सुगंध
मति की गति को दिग्दर्शित कर
कविता से झाँके कवि-अंतर
उन्मुक्त प्रवाह।
ReplyDeletepraveen bhayi , ek shaandar kavita .... mujhe to mahadevi ji aur nirala ji ki jhalak nazar aayi .
ReplyDeleteaapko bahut saari badhayi
वाह ! बहुत सुन्दर ,हृदयस्पर्शी भावपूर्ण प्रस्तुति.शानदार
ReplyDeleteयही ऊहापोह ही तो सारे व्यवधानों का मूल है .लेकिन समाधान खोज लेने की प्रज्ञा का प्रतीक भी .आपकी संस्कृतनिष्ठ भाषा रचनाओं को विशिष्ट बनाती है . चिन्तन तो उत्कृष्ट है ही .
ReplyDelete
ReplyDeleteन आदि ज्ञात, न अन्त ज्ञात,
न अन्तरमन का द्वन्द्व ज्ञात,
यदि ज्ञात अभी, बस वर्तमान,
एक साँस उतरती रन्ध्र ज्ञात ।।७।।
सुन्दर सटीक यथार्थ दर्शन वर्तमान
न आदि ज्ञात, न अन्त ज्ञात,
ReplyDeleteन अन्तरमन का द्वन्द्व ज्ञात,
यदि ज्ञात अभी, बस वर्तमान,
एक साँस उतरती रन्ध्र ज्ञात ।।७।।
...एक शाश्वत सत्य...एक साँस का आना जाना ही जीवन है, जिसमें उसका जाना पता होता है लेकिन उसका वापिस आना एक अनिश्चितता. बहुत प्रभावी और गहन अभिव्यक्ति..
आधार मुक्त, मतिद्वार लुप्त,
ReplyDeleteसंकेतों के संसार सुप्त,
प्रश्नों के उत्तर बने प्रश्न,
निष्कर्ष रचयिता स्वयं भुक्त ।।५।।
जयशंकर प्रसाद और सूर्यकान्त निराला की भाषा सा आलोड़न भाव सरिता लिए है है यह यह छंद बद्ध
रचना रचना। बधाई परस्पर सीखते रहेंगे। क्या ज़नाब बनारस को गुलज़ार किये हैं ?