आशा की अँगड़ाई, फैली दिगदिगन्त है ।
बीत गये दुख-पतझड़, जीवन में बसन्त है ।।
पथ पर पग दो चार बढ़े, था मन उमंग में उत्साहित ।
भावनायें उन्मुक्त और मैं लक्ष्य-प्राप्ति को आशान्वित ।
रुक जाने का समय नहीं, घट भर लेने थे अनुभव के,
कर्म बसी भरपूर ऊर्जा, सुखद मनोहर पथ लक्षित ।।१।।
बीच राह, सब ओर स्याह, पुरजोर हवायें बहती थीं ।
काल करे भीषण ताण्डव, चुप रहे जीवनी सहती थी ।
आयी निष्ठुर प्रारब्ध-निशा, कुछ और कहानी कह डाली,
विघ्न-बवंडर उठते नभ में, आशायें नित ढहती थीं ।।२।।
दुख आते, मन अकुलाते, कुछ और स्वप्न ढल जाते हैं ।
अनचाही पर उस पीड़ा को, हम सहते हैं, बल पाते हैं ।
कुछ और अभी पल आयेंगे, कष्टों का बेड़ा लायेंगे,
फिर भी आशा है, जीवन है, हम भूधर से डट जाते हैं ।।३।।
बीत गये दुख-पतझड़, जीवन में बसन्त है ।।
पथ पर पग दो चार बढ़े, था मन उमंग में उत्साहित ।
भावनायें उन्मुक्त और मैं लक्ष्य-प्राप्ति को आशान्वित ।
रुक जाने का समय नहीं, घट भर लेने थे अनुभव के,
कर्म बसी भरपूर ऊर्जा, सुखद मनोहर पथ लक्षित ।।१।।
बीच राह, सब ओर स्याह, पुरजोर हवायें बहती थीं ।
काल करे भीषण ताण्डव, चुप रहे जीवनी सहती थी ।
आयी निष्ठुर प्रारब्ध-निशा, कुछ और कहानी कह डाली,
विघ्न-बवंडर उठते नभ में, आशायें नित ढहती थीं ।।२।।
दुख आते, मन अकुलाते, कुछ और स्वप्न ढल जाते हैं ।
अनचाही पर उस पीड़ा को, हम सहते हैं, बल पाते हैं ।
कुछ और अभी पल आयेंगे, कष्टों का बेड़ा लायेंगे,
फिर भी आशा है, जीवन है, हम भूधर से डट जाते हैं ।।३।।
"पर्यावरण प्रदूषण से अवनि(पृथ्वी )बचाए"
ReplyDeleteप्रकृति पियारी सबको देती ठाँव- छाँव है |
खुदा अपना जहां के ईश्वर महा -महान है ||
कौतूहल कोना-कोना गोशा-गोशा मति मारे |
सुरक्षा को कवच सम्हारे प्यारे गण सारे ||
निज-निज में डींग हांकने वाले सारे द्वारे |
दिखे ओजोन परत बचाने वाले सभी किनारे ||
शोषक पराबैगनी विकीरण किरण सुकवच ओजोन तारे |
हिफाजत मानव की करता कैंसर त्वचा आँख की बीमारी ||
पर्यावरण संकट गहराया आर्थिक विकाश हम सब जानें |
उपभोग -अभिमुख पौद्योगिकी में प्रगति जनता भी माने ||
रासायनिक प्रयोग से ओजोन परत को हानि होता जा रहा |
भौगोलिक सूचना तन्त्र कम्पूटरीकृत करते होता जा रहा ||
जलवायु परिवर्तन जल-प्रदूषण निजाम विविधता बता रहा |
खाद्य की निश्चिंतता आजीविका का खतरा बने ना दिख रहा ||
पर्यावरण प्रदूषण बढ़ा जगत जानता मुहीम बचाने की ठानें |
करना है कल्याण विश्व का जनला 'मंगल 'कोलाहल हौ काहें||sukhmangal@gmail.com
शब्दार्थ: कोना -कोना =चप्पा -चप्पा |गोशा -गोशा =जहाँ आवाज न पहुच पाती हो वहाँ भी पहुचती है |अवनि =पृथ्वी ,जमीन ,धरती | शोषक=क्षीण करने वाला ,सोखने वाला |
ReplyDeleteबीच राह, सब ओर स्याह, पुरजोर हवायें बहती थीं ।
काल करे भीषण ताण्डव, चुप रहे जीवनी सहती थी
.......खामोश जबा रही मन की व्यथा सब कहतीथी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (25-05-2015) को "जरूरी कितना जरूरी और कितनी मजबूरी" {चर्चा - 1986} पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
कुछ और अभी पल आयेंगे, कष्टों का बेड़ा लायेंगे,
ReplyDeleteफिर भी आशा है, जीवन है, हम भूधर से डट जाते हैं ।।३।।
आशा से आकाश थमा है .......सुन्दर !
उत्तर दो हे सारथि !
कुछ और अभी पल आयेंगे, कष्टों का बेड़ा लायेंगे,
ReplyDeleteफिर भी आशा है, जीवन है, हम भूधर से डट जाते हैं ।
आशा है तो जीवन है
लम्बे समय बाद कुछ आशावान दिखाई दिये।
ReplyDeleteउत्साहित करतीं पंक्तियां।
ReplyDeleteदुख भरे दिन बीते रे भैया
ReplyDeleteअब सुख आओ रे---
शुभ-संकेत.
अच्छे दिन आने वाले हैं.
बीच राह, सब ओर स्याह, पुरजोर हवायें बहती थीं ।
ReplyDeleteकाल करे भीषण ताण्डव, चुप रहे जीवनी सहती थी .....आशाएं धूमिल न हो.;बस इसका ख्याल रहे
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...
मन को छु जाने वाली पंक्तिया.
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा....
ReplyDeleteसुन्दर सकारात्मक सन्देश देती रचना
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