सोचता हूँ सहज होकर,
भावना से रहित होकर,
अपेक्षित संसार से क्या ?
हेतु किस मैं जी रहा हूँ ?
भले ही समझाऊँ कितना,
पर हृदय में प्रश्न उठता,
किन सुखों की आस में फिर,
वेदना-विष पी रहा हूँ ?
भावना से रहित होकर,
अपेक्षित संसार से क्या ?
हेतु किस मैं जी रहा हूँ ?
भले ही समझाऊँ कितना,
पर हृदय में प्रश्न उठता,
किन सुखों की आस में फिर,
वेदना-विष पी रहा हूँ ?
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (27-04-2015) को 'तिलिस्म छुअन का..' (चर्चा अंक-1958) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
प्रश्न सदा अनुत्तरित...!
ReplyDeleteउम्मीद पर दुनिया कायम है।......सुन्दर अभिव्यक्ति.......
ReplyDeleteवेदना का यह विष संवेदना के कारण ही होगा
ReplyDeleteचिरन्तन चिन्तन
ReplyDeleteचिरन्तन चिन्तन
ReplyDeleteकिन सुखों की आस में फिर,
ReplyDeleteवेदना-विष पी रहा हूँ ?
गंभीर प्रशन ....मगर जिन्दगी सिर्फ़ एक रास्ता है मंजिल नहीं
यह शाश्वत निरुत्तिरित प्रश्न ..........किसी को नहीं मिला उत्तर ..
ReplyDeleteकाव्य सौरभ (कविता संग्रह ) --द्वारा -कालीपद "प्रसाद "
गंभीर , सुन्दर अभिव्यक्ति.....
ReplyDeleteयह तो है......पता नहीं किन सुखों की आस में?
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ! आपका नया आर्टिकल बहुत अच्छा लगा www.gyanipandit.com की और से शुभकामनाये !
ReplyDeleteसम्वेद्ना है तो चिंतन भी!
ReplyDeleteयही डोर है जो बांधे है हम सबको .
ReplyDeleteसुंदर मंथन! खुद की वजूद के कारण को तलाश करती कविता.
ReplyDeleteयही सत्य है
ReplyDeleteवेदना को अत्यधिक व्यक्त करने से निराशा का अधिक संचार होता है।
ReplyDeleteबहोत सुन्दर और वास्तविकता से भरी रचना
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