5.4.15

रात्रि विरहणा, दिन भरमाये

जगता हूँ, मन खो जाता है,
तुम्हे ढूढ़ने को जाता है ।
सोऊँ, नींद नहीं आ पाती,
तेरे स्वप्नों में खो जाती ।
ध्यान कहीं भी लग न पाये,
रात्रि विरहणा, दिन भरमाये ।।१।।

जीवन स्थिर, आते हैं क्षण,
बह जाते, कुछ नहीं नियन्त्रण ।
जीवन निष्क्रिय, सुप्त चेतना,
उठती बारम्बार वेदना ।
कहीं कोई आश्रय पा जाये,
रात्रि विरहणा, दिन भरमाये ।।२।।

क्यों पीड़ा, यह ज्ञात मुझे है,
तेरा जाना याद मुझे है ।
किन्तु नहीं जब तक तुम आती,
दिखती नहीं ज्ञान की बाती ।
तेरी यादों में छिप जाये,
रात्रि विरहणा, दिन भरमाये ।।३।।

था स्वतन्त्र, फिर क्यों मेरा मन,
तुम पर अन्तहीन अवलम्बन ।
कैसे प्रबल प्रगाढ़ हुआ था,
तुमसे अंगीकार हुआ था ।
उत्तर तुम बिन कौन बताये,
रात्रि विरहणा, दिन भरमाये ।।४।।

12 comments:

  1. विरह गीत!

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  2. विरह गीत!

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  3. हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल सोमवार (06-04-2015) को "फिर से नये चिराग़ जलाने की बात कर" { चर्चा - 1939 } पर भी होगी!
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. वाह ..बहुत खूब

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  5. मने आप परमानेंट कवि हो गये हैं??? वैसे कविता बढिया है.

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  6. रात्रिविरहणा,दिन भरमाए
    भावपूर्ण विरह-गीत

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  7. दिन और दिल भी भरमाये।

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  8. इसी तरह की कवितायेँ पढ़कर मन गदगद होता है ,बहुत अच्छा

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  9. भावपूर्ण गीत ...........

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  10. यह जो कुछ खोये रहने का भाव है, यही तो प्रेम है. सृजन की भूमि।

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