मेरे मन-भावों की मिट्टी,
राह पड़ी, जाती थी कुचली ।
तेज हवायें, उड़ती, फिरती,
रहे उपेक्षित, दिन भर तपती ।
ऊँचे भवनों बीच एकाकी,
शान्त, प्रतीक्षित रात बिताती ।।१।।
जीवन बढ़ता और एक दिन,
दिया सहारा, प्रत्याशा बिन ।
हृद की छाया, जीवन सम्बल,
देकर ममता का आश्रय-जल ।
ढाली मिट्टी, मूर्ति बनायी,
जीवन में शिल्पी बन आयी ।।२।।
राह पड़ी, जाती थी कुचली ।
तेज हवायें, उड़ती, फिरती,
रहे उपेक्षित, दिन भर तपती ।
ऊँचे भवनों बीच एकाकी,
शान्त, प्रतीक्षित रात बिताती ।।१।।
जीवन बढ़ता और एक दिन,
दिया सहारा, प्रत्याशा बिन ।
हृद की छाया, जीवन सम्बल,
देकर ममता का आश्रय-जल ।
ढाली मिट्टी, मूर्ति बनायी,
जीवन में शिल्पी बन आयी ।।२।।
Bhut shundar
ReplyDeleteBeautiful
ReplyDeleteBeautiful
ReplyDeleteaati sunder .
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (09-02-2015) को "प्रसव वेदना-सम्भलो पुरुषों अब" {चर्चा - 1884} पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
गहन अर्थ लिये सुंदर प्रस्तुति। आजकल इस ब्लॉग पर लेख पढ़ने कम मिलते हैं..क्या गद्यविधा से मोहभंग हो गया आपका?
ReplyDeleteजी नहीं, अभिव्यक्ति तनिक कवितामयी हो गयी थी। गद्य के प्रति मोह प्रबल है।
Deleteबहुत ही सुंदर भाव ......
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आप सभी लोगो का हार्दिक स्वागत है.
शिल्पी बनना ही जीवन की पूर्णता जैसा है।
ReplyDeleteसुंदर।
ReplyDeleteसादर प्रणाम सर जी !आपकी बेजोड़ लेखनी स्तुत्य है । इन पंक्तियों की प्रशंसा में मैं कहना चाहूॅंगा --- " नित्य भाव - जल होता वाष्पित / ऊॅंचे उठ विचार - घन सान्द्रित / समय तपित कर अमिय बूॅंद - से / नित जीवन - जल झरे अबाधित ।"
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