अब समय की राह में,
अस्तित्व अपना जानता हूँ ।
यदि कहीं, कुछ भा रहा है,
एक बचपन माँगता हूँ ।
कहाँ से लाऊँ सहजता,
हर तरफ तो आवरण है ।
आत्म का आचार जग में,
बुद्धि का ही अनुकरण है ।
क्यों नहीं प्रस्फुट हृदय है,
कृत्रिम कविता बाँचता हूँ ।
एक बचपन माँगता हूँ ।।
खो गया हूँ, मैं अकेला,
स्वयं के निर्मित भवन में ।
अनुभवों की वृहद नद में,
आचरण के जटिल वन में,
क्यों सफलता के घड़ों से,
जीवनी मैं नापता हूँ ।
एक बचपन माँगता हूँ ।। २।।
अस्तित्व अपना जानता हूँ ।
यदि कहीं, कुछ भा रहा है,
एक बचपन माँगता हूँ ।
कहाँ से लाऊँ सहजता,
हर तरफ तो आवरण है ।
आत्म का आचार जग में,
बुद्धि का ही अनुकरण है ।
क्यों नहीं प्रस्फुट हृदय है,
कृत्रिम कविता बाँचता हूँ ।
एक बचपन माँगता हूँ ।।
खो गया हूँ, मैं अकेला,
स्वयं के निर्मित भवन में ।
अनुभवों की वृहद नद में,
आचरण के जटिल वन में,
क्यों सफलता के घड़ों से,
जीवनी मैं नापता हूँ ।
एक बचपन माँगता हूँ ।। २।।
लाजवाब रचना...
ReplyDeleteवाह… मर्मस्पर्शी
ReplyDeleteजीवन में बचपन को बचपन, युवा, प्रौढ़, वृद्धावस्था सब नजरों से देखने पर लगता है कि बचपन ही श्रेष्ठ है। सुन्दर प्रवाह।
ReplyDeleteसच में उलझनों से दूर होना चाहता हूँ
ReplyDeleteमासूम सा बचपन फिर मांगता हूँ ....
बचपन जैसी सहजता फिर कहाँ मिलेगी
ReplyDeleteसही मांग की है आपने
वाह… मर्मस्पर्शी बेहद उम्दा सोच के साथ लिखी गई कविता
ReplyDeleteक्यों सफलता के घड़ों से,
ReplyDeleteजीवनी मैं नापता हूँ ।
एक बचपन माँगता हूँ
यदि हम ना करें तो दुनिया नापती है हमें सफलता के घडों से। सुंदर अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति।