कोई कष्ट देता, सहजता से सहते,
पीड़ा तो होती, पर आँसू न बहते ।
कर्कश स्वरों में भी, सुनते थे सरगम,
मन की उमंगों में चलते रहे हम ।
कभी, किन्तु जीवन को प्रतिकूल पाया,
स्वयं पर प्रथम प्रश्न मैंने लगाया,
द्वन्द्वों के कइयों पाले बना कर,
तर्कों, विवादों में जीवन सजा कर,
लड़ता रहा और थकता रहा मैं,
स्वयं से अधिक दूर बढ़ता रहा मैं ।
बना शत्रु अपना, करूँ क्या निवारण,
स्वयं को रुलाता रहा मैं अकारण ।
पीड़ा तो होती, पर आँसू न बहते ।
कर्कश स्वरों में भी, सुनते थे सरगम,
मन की उमंगों में चलते रहे हम ।
कभी, किन्तु जीवन को प्रतिकूल पाया,
स्वयं पर प्रथम प्रश्न मैंने लगाया,
द्वन्द्वों के कइयों पाले बना कर,
तर्कों, विवादों में जीवन सजा कर,
लड़ता रहा और थकता रहा मैं,
स्वयं से अधिक दूर बढ़ता रहा मैं ।
बना शत्रु अपना, करूँ क्या निवारण,
स्वयं को रुलाता रहा मैं अकारण ।