फिर आँखों को यूँ फिरा लिया, क्यों आँख-मिचौनी करती हो ।
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो ।।
भाव पुरातन, शब्द नये हैं, कैसे मन की बात उजागर,
कठिन बहुत भावों की भाषा, शब्द अशक्त रहे जीवन भर ।
आँखों की भाषा मौन बहे, कितने आमन्त्रण कहती हो ।
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो ।।१।।
लज्जा बनकर दीवार खड़ी, तुम सहज और उद्वेलित हम,
कुछ बोलो यदि, जग जानेगा, कैसे वाणी का आलम्बन ।
झपकी, सकुचाती आँखों से, पर प्रणय-प्रश्न बन बहती हो ।
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो ।।२।।
हो सकता आँखें पूछें मैं, कब तक रह सकती एकाकी,
कब तक एकाकी ढोऊँगी, घनघोर व्यथायें जीवन की ।
आँखों से जी भर बात करो, एकान्त कहाँ तुम रहती हो ।
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो ।।३।।
मन प्रेम बसा या मंथन हो, या फिर भटकाता चिंतन हो,
अब आँख मिचौनी छोड़ो भी, क्यों खींच रही हो जीवन को ।
जो छिपा हृदय में बतला दो, क्यों मन उत्कण्ठा सहती हो ।
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो ।।४।।
निःशब्द भाव की कविता हो तू सूर्य रश्मि हो, सविता हो
जीवन में ऊष्मा भरती हो, कलकल छलछल सी सरिता हो
मेरे जीवन के शोणित पर शीतल समीर सी बहती हो
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो ।।५।।
* सिद्धार्थ जी द्वारा समर्पित
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो ।।
भाव पुरातन, शब्द नये हैं, कैसे मन की बात उजागर,
कठिन बहुत भावों की भाषा, शब्द अशक्त रहे जीवन भर ।
आँखों की भाषा मौन बहे, कितने आमन्त्रण कहती हो ।
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो ।।१।।
लज्जा बनकर दीवार खड़ी, तुम सहज और उद्वेलित हम,
कुछ बोलो यदि, जग जानेगा, कैसे वाणी का आलम्बन ।
झपकी, सकुचाती आँखों से, पर प्रणय-प्रश्न बन बहती हो ।
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो ।।२।।
हो सकता आँखें पूछें मैं, कब तक रह सकती एकाकी,
कब तक एकाकी ढोऊँगी, घनघोर व्यथायें जीवन की ।
आँखों से जी भर बात करो, एकान्त कहाँ तुम रहती हो ।
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो ।।३।।
मन प्रेम बसा या मंथन हो, या फिर भटकाता चिंतन हो,
अब आँख मिचौनी छोड़ो भी, क्यों खींच रही हो जीवन को ।
जो छिपा हृदय में बतला दो, क्यों मन उत्कण्ठा सहती हो ।
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो ।।४।।
निःशब्द भाव की कविता हो तू सूर्य रश्मि हो, सविता हो
जीवन में ऊष्मा भरती हो, कलकल छलछल सी सरिता हो
मेरे जीवन के शोणित पर शीतल समीर सी बहती हो
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो ।।५।।
* सिद्धार्थ जी द्वारा समर्पित
वाह-वाह, कमाल है। आपकी प्रेरणा से मेरी ओर से भी एक बन्द-
ReplyDeleteनिःशब्द भाव की कविता हो तू सूर्य रश्मि हो, सविता हो
जीवन में ऊष्मा भरती हो, कलकल छलछल सी सरिता हो
मेरे जीवन के शोणित पर शीतल समीर सी बहती हो
क्यों गहरी अपनी आँखों में, कुछ बात छिपाये रहती हो
जी आपके छन्द आभूषण से शोभित हैं, कविता में जोड़ दिये हैं।
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ReplyDeleteसुंदर—प्रयण-गीत.
श्रंगार-रस से ओत-प्रोत.
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (21-12-2014) को "बिलखता बचपन...उलझते सपने" (चर्चा-1834) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही सुन्दर और त्रिपाठी जी ने तो और भी सुन्दर बना दिया कविता को।
ReplyDeleteBeautiful...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना !
ReplyDelete: पेशावर का काण्ड
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteEyes can hold so much in them, a pool of mystery. Beautiful verse sir.
ReplyDeleteअच्छी रचना...अंतिम पंक्तियाँ तो बहुत ही अच्छी लगीं.
ReplyDeleteअन्तिम पंक्तियॉ ओजपूर्ण हैं।
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