अनुपस्थित अब तक जीवन से, थी अश्रुत्पादित यथार्थता,
दोषों का अम्बार दिखेगा, ऐसा मैने सोचा ना था ।
इस शतरंजी राजनीति में,
जाने क्यों पैदल ही मरते,
मानव, धन से सस्ते पड़ते ।
सब सच था, कुछ धोखा ना था ।
मानव इतना गिर सकता है, ऐसा मैने सोचा ना था ।।१।।
अब शासन में शक्ति उपासक,
अट्टाहस कर झूम रहे हैं ,
हो मदत्त गज घूम रहे हैं ।
पर दुख से मैं रोता ना था ।
क्रोधानल में ज्वलित हुआ जो, अश्रु-सिन्धु वह छोटा ना था ।।२।।
बर्बरता का जन्तु कभी,
मानव-संस्कृति में पला नहीं है,
सदियों से यह रीति रही है ।
यह भविष्य पर देखा ना था ।
अब आतंक-भुजाआें का बल, बढ़ता था, कम होता ना था ।।३।।
मानव का व्यक्तित्व-भवन,
कब से चरित्र पर टिका हुआ,
जो संस्कृति का आधार रहा ।
क्या खण्ड खण्ड हो जाना था ।
वह महारसातल को उन्मुख, क्या उस पथ पर ही जाना था ।।४।।
शानदार
ReplyDeleteकल 18/दिसंबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
विचारणीय यथार्थ, चिन्तन में झुलाने लगा.
ReplyDeleteHow can anyone stoop so low to justify anything. Sad and horrifying truth.
ReplyDeleteधर्म ध्वजा फहराने वाले
ReplyDeleteझुककर सजदा करने वाले
जमजम का जल पीने वाले
मजहब पर जीने मरने वाले
खेलेंगे जब खून की होली बच्चों का अम्बार लगेगा
मदरिस कत्ल तबाह बनेगा ऐसा मैंने देखा ना था
ऐसा मैंने सोचा ना था
सच कहा आपने, अन्दर तक झकझोरती घटना।
Deleteबहुत दुखदायी...
ReplyDelete100% यथार्थ ....
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