और कहने को बहुत कुछ, जो था मैने पा लिया,
किन्तु पहचानों की गहरी छाँह में छिपता गया ।।१।।
कभी उड़ता था हवा में, धरा पर जब आ गया,
पंख थकने के सभी आरोप मैं सहता गया ।।२।।
और कर्तव्यों के ढाँचे में, सहज जीवन फँसा कर,
कष्ट का अभिशाप बनकर अश्रु जब बहता गया ।।३।।
मुझे आरोपी बनाकर, स्वयं ही निर्णय दिये थे,
नहीं कुछ उत्तर दिये, बस सजायें सहता गया ।।४।।
है यह माना, जीवनी, कुछ ज्वलित है, कुछ पददलित है,
किन्तु कूड़े ढेर जिसको जो मिला, कहता गया ।।५।।
सत्य कहता हूँ, हृदय से क्षीण हूँ, यह समय भीषण,
इसलिये ही स्वयं-निर्मित यज्ञ में जलता गया ।।६।।
जानता हूँ, इस जगत में, प्रश्न तो अस्तित्व का है,
कापुरुष तो बह गये, निज पंथ मैं बढ़ता गया ।।७।।
जो है, एक फेज़ है। बाकी, अस्तित्व तो शाश्वत है।
ReplyDeleteकल 04/दिसंबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
--क्या बात है ..सुन्दर ग़ज़ल.....बधाई ...
ReplyDeleteहै भला अस्तित्व मिटता कब भला किसका जहां में,
हाँ
जग उसे ही जानता जो राह निज चलता गया |
बहुत सुंदर ।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteजानता हूँ, इस जगत में, प्रश्न तो अस्तित्व का है,
ReplyDeleteकापुरुष तो बह गये, निज पंथ मैं बढ़ता गया।।
- अब जबकि अस्तित्व एक प्रश्न बन चूका हो, तो निर्जनता की आँधियों में नए पथों का निर्मित होना अवश्यम्भावी है. बहुत ही सुन्दर।
जानता हूँ, इस जगत में, प्रश्न तो अस्तित्व का है,
ReplyDeleteकापुरुष तो बह गये, निज पंथ मैं बढ़ता गया ।।
..कायरों का कभी कोई अस्तित्व हो नहीं सकता ....बहुत बढ़िया प्रस्तुति
शानदार
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ReplyDeleteकुछ समय से आप नकारात्मक भाव में अधिक लिख रहे हैं, जो जीवन में शिथिलता को बढा सकती है। ऊर्जावान पूर्ववत लिखिए, ऐसा मेरा अनुरोध है।
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