मुश्किल है ढोना कृतघ्नता,
चुभते अब समझौते भी हैं ।
अर्पण जो तुझको करने हैं,
जाने कितने ऋण बाकी हैं ।।
रमकर तेरे उपकरणों में,
चिन्तन तेरा अनुपस्थित था ।
खोकर मैं अपनी दुनिया में,
स्वार्थ-अन्ध हो भूल गया था ।।
चित्रण तेरा कहाँ बनाता ?
मुझमें तो सामर्थ्य नहीं है,
भिक्षुक भी क्या दे सकता है ?
बूँदों का अस्तित्व कहाँ तक,
तृप्त सिन्धु को कर सकता है ।।
कौन क्षितिज को छू सकता है ?
जीवन तेरी बिन्दु-देन है,
अनुरागी तू, शाश्वत दाता ।
अनत कृपा बहती आती है,
बिन तेरे मैं कहाँ व्यक्त था ।।
खड़ा हुआ निरुपाय, विधाता ।
बिन तेरे मैं कहाँ व्यक्त था ।।
ReplyDeleteखड़ा हुआ निरुपाय, विधाता ।
waah !!
अति सुन्दर, निशब्द हूँ पढ़कर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (09-11-2014) को "स्थापना दिवस उत्तराखण्ड का इतिहास" (चर्चा मंच-1792) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बूँदों का अस्तित्व कहाँ तक,
ReplyDeleteतृप्त सिन्धु को कर सकता है ।।
कौन क्षितिज को छू सकता है
बहुत ही अच्छी दिल को छूने वाली पंक्तिया
आशा है जनवरी में बनारस आगमन पर आपके
दर्शनों का लाभ मिलेगा
बिना तेरे क्या मैं था , जिह्वा , मन , मस्तिष्क भी भला !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत बढिया..सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteकृतज्ञता का भाव बना रहे। ईश्वर की कृपा भी बनी रहेगी।
ReplyDeleteअच्छे भाव।
बूंदों से सागर तृप्त हो या न हो पर कहते हैं बून्द बून्द से ही सागर भरता है ।
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