26.11.14

मन अपना ही था

आस जगी थी, लगा लगन में,
उड़ता पंछी नील-गगन में,
ताल समय की, थापों पर जो, 
झूम रहा मन अपना ही था ।।१।।

उत्सुकता के फूल खिले थे,
दृश्य राह के अलबेले थे,
आशाओं से संचारित और 
आनन्दित मन अपना ही था ।।२।।

अनुभूतित थी भारहीनता,
वेग व्यवस्थित था जीवन का, 
शान्ति-झील की सुखद नाव पर 
आत्मरमा मन अपना ही था ।।३।।

मेरा तेरा भेद नहीं था,
विमल रूप था अन्तरतम का,
प्यार लुटाता, सकल जगत को, 
मुग्ध-मुदित मन अपना ही था ।।४।।

सदा सभी के साथ चला यह,
हाथों में ले हाथ चला यह,
भीड़ भरे बाजारों में पर, 
बिछड़ गया, मन अपना ही था ।।५।।

9 comments:

  1. भीड़ भरे बाजारों में पर,
    बिछड़ गया, मन अपना ही था !!
    बेहद सुन्दर रचना !! बधाई

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  2. अपना मन बहुधा बंधा तो कभी बिछड़ा भी -भावपूर्ण रचना

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  3. प्रस्तुत कविता में साधारण लोगों के जीवन-यथार्थ को बड़े ही कलात्मक ढंग से उजागर करने का प्रयास किया गया है।

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  4. चंचल मन की गाथा कभी साथ तो कभी बिछुड़ जाता है।

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  5. सुन्दर प्रस्तुति...

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  6. अद्भुत भाव , स्तुत्य रचना ।सादर नमन एवं बधाई सर जी । अपना जो है , बिछड़ न सकता / बिछड़ा जो , शायद सपना था ।

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