एक अपरिचित सन्नाटा सा पीछे पीछे भाग रहा,
दिन को दिन में जी लेता, पर रात अकेले होता हूँ ।
कृत्रिम मुस्कानों से, मन की पीड़ायें तो ढक लेता,
कहाँ छुपाऊँ नंगापन, जब अँधियारे में खोता हूँ ।
खारे अँसुअन का भारीपन आँखों में ले जाग रहा,
एकटक तकता दिशाहीन, मैं जगते जगते सोता हूँ ।
स्वप्नों का तैयार महल जब अपनों के द्वारा खण्डित,
छोड़ नहीं सकता मैं उनको, टूटे सपने ढोता हूँ ।
किससे मन की पीड़ा कह दूँ, दावानल जो धधक रहा,
दिन भर लुटकर शेष रहा जो जीवन वही संजोता हूँ ।
सब कहते हैं, दुख से मन के भाव प्रौढ़ होने लगते,
पता नहीं फिर क्यों बच्चों सा सुबक सुबक कर रोता हूँ ।
मनुष्य अपनी समस्याओं से बहुत बडा है । ऐसी कोई समस्या नहीं है , जिसका समाधान न हो ।
ReplyDeleteदिल के दर्द की सुन्दर भावनाएं व्यक्त की हैं। प्रवीण जी पारिवारिक, राजकीय और सामाजिक जीवन में सब ठीक तो है ना?
ReplyDeleteभावमय करते शब्द व प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (23-11-2014) को "काठी का दर्द" (चर्चा मंच 1806) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
दर्द छुपाना दर्द संजोना,दर्द दर्द जीने लगना
ReplyDeleteजीवन जीने की रीत पुरानी ,दर्द दवा सा पी लेना ......
सुबक सुबक रोने से तन और मन दोनो हलके हो जाते हैं।
ReplyDeleteबस जो शेष बचा है उसे ही जीवन भर समेटना है । भाव वक़्त के साथ प्रौढ़ हो जाएँ यदि बच्चों की तरह रो सकते हैं तो निश्चय ही कष्टों को भूल आगे बढ़ने की क्षमता है । मर्मस्पर्शी रचना ।
ReplyDeleteवाह ! भावपूर्ण रचना !!
ReplyDeleteबहुत ही सशक्त अभिव्यक्ति, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.