खोजता दो नेत्र, जिनमें स्वयं को पहचान लूँ मैं,
आप आये, पंथ को विश्राम मिल गया है ।
प्रेम की दो बूँद चाही, किन्तु सागर में उतरता,
आपके सामीप्य का अनुदान मिल गया है ।
हृदय में प्रतिमा बनी थी, और मन से पूजता था,
कहूँ कैसे देवता अन्जान मिल गया है ।
बहुत सुन्दर
ReplyDeletewaah bahut sundar
Deleteवाह :)
ReplyDeleteआपकी साधना फलीभूत हुई , इसी तरह हर किसी की साधना फलीभूत हो, ईश्वर से यही प्रार्थना है ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (16-11-2014) को "रुकिए प्लीज ! खबर आपकी ..." {चर्चा - 1799) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
क्या खूब?
ReplyDeleteवाह क्या सुंदर बात कही है।
ReplyDeleteसुंदर पंक्तियाँ
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
ReplyDeleteदो बूँद की चाह वाले को सागर मिल जाए तो कहना ही क्या !
ReplyDeleteह्रदय से निकली मन की बात।
ReplyDeleteanupam..
ReplyDeleteआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति मंगलवार के - चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteवाह-वाह, बधाई हो।
ReplyDeleteईश्वर ऐसी तृप्ति सबको दे।
कहना संभव ही नहीं है. शब्दों में कैसे समाएगा, वह सब्दातीत।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव । जैसे मन तृप्ति से भर गया हो ।
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