प्रेम-प्लावित हो गया मन,
पा गया अभिराम चिन्तन ।
खोज में कब से तुम्हारी,
भटकता अविराम जीवन ।।
साधना का प्रात और वह ज्ञान की तपती दुपहरी,
निर्णयों की साँझ प्रेरित, संयमों के अडिग प्रहरी ।
आज रजनी मधुर स्वर में कर रही मधुमाय गुञ्जन ।
प्रेम-प्लावित हो गया मन ।। १।।
आज लक्षित निज जनों में, स्वार्थ परिभाषा बने,
कर्म का अवमूल्यन, जब व्यक्तिगत आशा बने ।
शुष्कता से दग्ध नयनों को मिला है प्रेम-अञ्जन ।
प्रेम-प्लावित हो गया मन ।। २।।
जब सुखों की पूर्णता पर काल की बेड़ी पड़ी है,
स्रोत सीमित, विवशता भी आज मुँह बाये खड़ी है ।
प्रेम का अम्बार लेकिन, बढ़ रहा निर्बाध हर क्षण ।
प्रेम-प्लावित हो गया मन ।। ३।।
आज लक्षित निज जनों में, स्वार्थ परिभाषा बने,
ReplyDeleteकर्म का अवमूल्यन, जब व्यक्तिगत आशा बने ।
शुष्कता से दग्ध नयनों को मिला है प्रेम-अञ्जन ।
प्रेम-प्लावित हो गया मन ।।
सुन्दर रचना
बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
ReplyDeleteप्रेम !
तुझे मना लूँ प्यार से !
अनुराग की उत्तम अनुभूति
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति।
ReplyDeleteप्रेम प्लावित मन सुखों की अपूर्णता पर किस भाँति विवश हो सकता है ?
ReplyDeleteमन की आकांक्षा के आगे तो कुबेर का खजाना भी सीमित पड़ जाता है।
कवि ने अद्भुत विरोधाभासी मनोदशा का चित्रण किया है।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (14-11-2014) को "भटकता अविराम जीवन" {चर्चा - 17976} पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
बालदिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
प्रेम सागर हिलोरें लेने लगा।
ReplyDeleteबस प्रेम जहाँ हो वहां सुख ही सुख है । सुन्दर गीत
ReplyDeletesundar !!
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