स्वप्न सुनहला देखा मैंने,
सुन्दर चेहरा देखा मैंने ।
मन में संचित चित्रण को,
बन सत्य पिघलते देखा मैंने ।।१।।
आनन्दित जागृत आँखों में,
सुन्दर तेरा रूप सलोना ।
मन की गहरी पर्तों में,
निर्द्वन्द उभरते देखा मैंने ।।२।।
शब्द कभी भी नहीं मिलेंगे,
उपमाओं में नहीं समाना ।
आज कल्पना को फिर से,
हो विकल विचरते देखा मैंने ।।३।।
अति सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (02-11-2014) को "प्रेम और समर्पण - मोदी के बदले नवाज" (चर्चा मंच-1785) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर कविता |
ReplyDeleteभले अमावस रात क्यों न हो भोर सुबह वह ही लाती है सूर्योदय वह दिखलाती है ।
ReplyDeleteBahut hi sunder va bhawpurn prastuti !!
ReplyDeleteवाह! स्वप्न भी और शब्द भी - लाजवाब।
ReplyDeleteआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवार के - चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteमन में संचित सुन्दर चित्रण.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर चिंतन
ReplyDeleteतुझे मना लूँ प्यार से !
सुन्दर शब्द भाव ... सुन्दर चित्रण ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
ReplyDeleteमन में संचित चित्रण को ---क्या बात है जी....
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