29.11.14

आँखों के अभिवादन

लाख चाहकर, बात हृदय की, कहने से हम रह जाते है 
तेरी आँखों के अभिवादन, बात हजारों कह जाते हैं ।।

बहुत चित्रकारों ने सोचा, सुन्दर तेरे चित्र बनाये ,
तेरी आँखों की चंचलता, रंगों से लाकर छिटकायें ।
किन्तु कहाँ, कब रंग मिले थे,
कहीं सभी भंडार छिपे थे,
आवश्यक वे रंग तुम्हारी आँखों में पाये जाते हैं ।
तेरी आँखों के अभिवादन, बात हजारों कह जाते हैं ।।

बहा चलूँ निश्चिन्त, अशंकित, नयनों की सौन्दर्य-धार में,
आकर्षण के द्यूत क्षेत्र में, निज जीवन को सहज हार मैं ।
आशायें टिकती हैं आकर,
आँखें तेरी खुली रहें पर,
सारे जो आधार, तुम्हारे बन्द नयन में छिप जाते हैं ।
तेरी आँखों के अभिवादन, बात हजारों कह जाते हैं ।।

26.11.14

मन अपना ही था

आस जगी थी, लगा लगन में,
उड़ता पंछी नील-गगन में,
ताल समय की, थापों पर जो, 
झूम रहा मन अपना ही था ।।१।।

उत्सुकता के फूल खिले थे,
दृश्य राह के अलबेले थे,
आशाओं से संचारित और 
आनन्दित मन अपना ही था ।।२।।

अनुभूतित थी भारहीनता,
वेग व्यवस्थित था जीवन का, 
शान्ति-झील की सुखद नाव पर 
आत्मरमा मन अपना ही था ।।३।।

मेरा तेरा भेद नहीं था,
विमल रूप था अन्तरतम का,
प्यार लुटाता, सकल जगत को, 
मुग्ध-मुदित मन अपना ही था ।।४।।

सदा सभी के साथ चला यह,
हाथों में ले हाथ चला यह,
भीड़ भरे बाजारों में पर, 
बिछड़ गया, मन अपना ही था ।।५।।

22.11.14

एक अपरिचित सन्नाटा

एक अपरिचित सन्नाटा सा पीछे पीछे भाग रहा,
दिन को दिन में जी लेता, पर रात अकेले होता हूँ ।

कृत्रिम मुस्कानों से, मन की पीड़ायें तो ढक लेता,
कहाँ छुपाऊँ नंगापन, जब अँधियारे में खोता हूँ ।

खारे अँसुअन का भारीपन आँखों में ले जाग रहा, 
एकटक तकता दिशाहीन, मैं जगते जगते सोता हूँ ।

स्वप्नों का तैयार महल जब अपनों के द्वारा खण्डित,
छोड़ नहीं सकता मैं उनको, टूटे सपने ढोता हूँ ।

किससे मन की पीड़ा कह दूँ, दावानल जो धधक रहा,
दिन भर लुटकर शेष रहा जो जीवन वही संजोता हूँ ।

सब कहते हैं, दुख से मन के भाव प्रौढ़ होने लगते,
पता नहीं फिर क्यों बच्चों सा सुबक सुबक कर रोता हूँ ।

19.11.14

तुझे अब उठना होगा

विरह प्रतीक्षा पीड़ा ही है,
आँखे भी अनवरत बही हैं,
मन में जिसका रूप बसाया,
देखो, वह निष्ठुर न आया।
 
जीवन, पर क्यों रूठ, कहीं अटका अटका सा,
वर्तमान को भूल, कहीं भटका भटका सा।

बहुत हुआ अतिप्रिय, अब तुमको उठना होगा,
छूट गया वह छोड़ पुनः अब जुटना होगा,
नहीं कोई अपना जीवन इतना भी भर ले,
वह अपना क्यों जो अपनों से जीवन हर ले? 

15.11.14

प्रियतम

खोजता दो नेत्र, जिनमें स्वयं को पहचान लूँ मैं,
आप आये, पंथ को विश्राम मिल गया है ।

प्रेम की दो बूँद चाही, किन्तु सागर में उतरता,
आपके सामीप्य का अनुदान मिल गया है ।

हृदय में प्रतिमा बनी थी, और मन से पूजता था,
कहूँ कैसे देवता अन्जान मिल गया है ।

12.11.14

प्रेम-प्लावन

प्रेम-प्लावित हो गया मन,
पा गया अभिराम चिन्तन ।
खोज में कब से तुम्हारी,
भटकता अविराम जीवन ।।

साधना का प्रात और वह ज्ञान की तपती दुपहरी,
निर्णयों की साँझ प्रेरित, संयमों के अडिग प्रहरी ।
आज रजनी मधुर स्वर में कर रही मधुमाय गुञ्जन ।
प्रेम-प्लावित हो गया मन ।। १।।

आज लक्षित निज जनों में, स्वार्थ परिभाषा बने,
कर्म का अवमूल्यन, जब व्यक्तिगत आशा बने ।
शुष्कता से दग्ध नयनों को मिला है प्रेम-अञ्जन ।
प्रेम-प्लावित हो गया मन ।। २।।

जब सुखों की पूर्णता पर काल की बेड़ी पड़ी है,
स्रोत सीमित, विवशता भी आज मुँह बाये खड़ी है ।
प्रेम का अम्बार लेकिन, बढ़ रहा निर्बाध हर क्षण ।
प्रेम-प्लावित हो गया मन ।। ३।।

8.11.14

जाने कितने ऋण बाकी हैं

मुश्किल है ढोना कृतघ्नता,
चुभते अब समझौते भी हैं ।
अर्पण जो तुझको करने हैं,
जाने कितने ऋण बाकी हैं ।।

रमकर तेरे उपकरणों में,
चिन्तन तेरा अनुपस्थित था ।
खोकर मैं अपनी दुनिया में,
स्वार्थ-अन्ध हो भूल गया था ।।
चित्रण तेरा कहाँ बनाता ?

मुझमें तो सामर्थ्य नहीं है,
भिक्षुक भी क्या दे सकता है ?
बूँदों का अस्तित्व कहाँ तक,
तृप्त सिन्धु को कर सकता है ।।
कौन क्षितिज को छू सकता है ?

जीवन तेरी बिन्दु-देन है,
अनुरागी तू, शाश्वत दाता ।
अनत कृपा बहती आती है,
बिन तेरे मैं कहाँ व्यक्त था ।।
खड़ा हुआ निरुपाय, विधाता ।

5.11.14

मन्दगति

कौन कहता है, ये जीवन दौड़ है,
कौन कहता है, समय की होड़ है,

हम तो रमते थे स्वयं में,
आँख मूँदे तन्द्र मन में,
आपका आना औ जाना,
याद करने के व्यसन में,

तनिक समझो और जानो,
नहीं यह कोई कार्य है,
काल के हाथों विवशता,
मन्दगति स्वीकार्य है। 

1.11.14

स्वप्न सुनहला

स्वप्न सुनहला देखा मैंने,
सुन्दर चेहरा देखा मैंने ।
मन में संचित चित्रण को,
बन सत्य पिघलते देखा मैंने ।।१।।

आनन्दित जागृत आँखों में,
सुन्दर तेरा रूप सलोना ।
मन की गहरी पर्तों में,
निर्द्वन्द उभरते देखा मैंने ।।२।।

शब्द कभी भी नहीं मिलेंगे,
उपमाओं में नहीं समाना ।
आज कल्पना को फिर से,
हो विकल विचरते देखा मैंने ।।३।।