झूला बन क्यों झूम रहा हूँ ।
नियत दिशा है, बढ़ते जाना,
ज्ञान-कोष का वृहद खजाना,
किन्तु हृदय की लोलुपता है,
मन में कुछ अनतृप्त व्यथा है ।
भटक रहा मैं, घूम रहा हूँ ।
झूला बनकर झूम रहा हूँ ।।१।।
विजय कहाँ की, उत्सव कैसे,
रुका यहाँ किस आकर्षण से ।
अहं आज क्यों शान्त नहीं है,
आवश्यकता , अन्त नहीं है ।
विजय तुच्छ क्यों चूम रहा हूँ,
झूला बनकर झूम रहा हूँ ।।२।।
ज्ञात नहीं कब तक झूमूँगा,
पद्धति यह कैसे भूलूँगा ।
सच पूछो तो याद नहीं है,
कब से ऐसे झूम रहा हूँ ।।३।।
अंतर्नाद सा कुछ
ReplyDeleteशानदार
ReplyDeleteवाह बहुत सुंदर
ReplyDeleteसादर
झूमते रहिये जब तक झूम सको.
ReplyDeleteनिम्नवत् लिंक पर भी आशीर्वचन प्रदान कीजिये:
http://disarrayedlife.blogspot.in/2014/10/science-vis-vis-india-part-2.html
bahut khoob...
ReplyDeleteनियत दिशा है, बढ़ते जाना,
ज्ञान-कोष का वृहद खजाना,
ummda
Hi I am back to blogging check my blog at
http://drivingwithpen.com/
''झूमने वाले झूम रहे है ,विजय श्री को चूम रहे है''
ReplyDeleteजीवन यह अनमोल बहुत है वर्त्तमान को क्यों खोता है
ReplyDeleteसब का समाधान जो बनता वह क्यों खुद रोता है ?
आपकी ये रचना चर्चामंच http://charchamanch.blogspot.in/ पर चर्चा हेतू 11 अक्टूबर को प्रस्तुत की जाएगी। आप भी आइए।
ReplyDeleteस्वयं शून्य
सादर प्रणाम सर ! यह तो आध्यात्मिक दिवानगी की काव्यमय प्रस्तुति है ।इस पर मैं कहना चाहूॅंगा -------- अनिश्चितता नई नहीं यह /पर , चिन्तन पद्धति यह नूतन / ज्ञान तर्क से आत्म परीक्षण / अध्यात्म यह अति उर - वन्दन / आजन्म ही चढ़े हिंडोले / आत्म यशोबल का कर कीर्तन / चलता जाता लोक इसी पर / अस्थिर वास्तव में जीवन ।
ReplyDeleteSunder bhivyakti ..!!!
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