सहसा मन में घिर आयी, वो रात बिताने बैठा हूँ
तुमसे पाये हर सुख का अब मूल्य चुकाने बैठा हूँ
भावों का उद्गार प्रस्फुटित, आतुर मन के आँगन में,
मेघों का उपकार, सरसता नहीं छोड़ती सावन में,
जाने क्या ऊर्जा बहती थी, सब कुछ ही अनुकूल रहा,
वर्ष दौड़ते निकल गये मधु-स्मृतियों का स्रोत बहा,
है कितना उपकार-जनित अधिकार, बताने बैठा हूँ,
तुमसे पाये हर सुख का अब मूल्य चुकाने बैठा हूँ ।
रम कर पथ के उपकरणों में मन उलझाये घूमे थे
निशा दिवस का ब्याह रचाते नित मदिराये झूमे थे
मगन इसी में, हम जीवन में आगे बढ़ना भूल गये,
कोमलता में घिरे रहे, निस्पृह हो लड़ना भूल गये,
उस अशक्त जीवन का विधिवत भार उठाने बैठा हूँ,
तुमसे पाये हर सुख का अब मूल्य चुकाने बैठा हूँ ।
मन की पर्तें भेद रहीं हैं, बातें जो थीं नहीं बड़ी,
कहीं समय में छिपी रही जो कर्तव्यों की एक लड़ी
अनजाने में, अनचाहे ही, रूठ गयी जिन रातों से,
नहीं याद जो रखनी चाहीं, चुभती उन सब बातों से,
निर्ममता से बहे हृदय का रक्त सुखाने बैठा हूँ,
तुमसे पाये हर सुख का अब मूल्य चुकाने बैठा हूँ ।
सब कहते हैं, जीवन मैने, अपने ही अनुरूप जिया,
नहीं रहा संवेदित, न ही संबंधों को श्रेय दिया,
सत्य यही है, मन उचाट सा रहा सदा ही बन्धों में,
आत्मा मेरी ठौर न पाती, छिछले कृत्रिम प्रबन्धों में,
निश्छल मन को पर समाज का सत्य सिखाने बैठा हूँ,
तुमसे पाये हर सुख का अब मूल्य चुकाने बैठा हूँ ।
मुझको भी पाने थे उत्तर, जब प्रश्नों से लादा तुमने,
मैं आधे से भी क्षीण रहा, जब माँग लिया आधा तुमने,
मैं क्या हूँ तेरे बिन समझो, उड़ना चाहूँ, हैं पंख नहीं,
एकांत अन्ध गलियारों में भागा फिरता हूँ ,अंत नहीं,
शान्तमना अब, जीवन का बिखराव बचाने बैठा हूँ,
तुमसे पाये हर सुख का अब मूल्य चुकाने बैठा हूँ ।
हूँ कृतज्ञ सबका जिनसे भी कोई हित स्वीकार किया,
कुछ भी सीखा, जीवन में कैसे भी अंगीकार किया,
क्यूँ विरुद्ध हूँ उन सबके, जो जीवन-पथ के ध्येय नहीं,
कुछ भी कहते हों, कहने दो, अब पाना कोई श्रेय नहीं,
तरु सहिष्णु हूँ आज, अहं का बोझ हटाने बैठा हूँ,
तुमसे पाये हर सुख का अब मूल्य चुकाने बैठा हूँ ।
मानवीय मूल्यों की मिशाल हैं ये कवितायें। इन्हें अब पुस्तrकाकार आना जरूरी है।
ReplyDeleteमैं भी विनोद जी से सहमत हूँ । आप बहुत अच्छा लिखने लगे हैं । बधाई ।
Deleteसुन्दर , उत्कृष्ट कविता
ReplyDeleteवाह वाह बहुत ही उत्कृष्ट ॥ पहली ही पंक्ति ने पूरी कविता पढ़ने के लिए मजबूर कर दिया॥ सुंदर भाव से संपृक्त उत्कृष्ट रचना ॥
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति...
ReplyDeleteदिनांक 20/10/2014 की नयी पुरानी हलचल पर आप की रचना भी लिंक की गयी है...
हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है...
हलचल में शामिल की गयी सभी रचनाओं पर अपनी प्रतिकृयाएं दें...
सादर...
कुलदीप ठाकुर
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी है और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - सोमवार- 20/10/2014 को
हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः 37 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें,
Waah gazab ki prastuti bahut hi saarthak !!
ReplyDeletetisti rahati ho kyaon mujhko kya mai ab tere kabil nahi,
ReplyDeletechua tha jab tera anchal to lipati kyon thi tum.
aaj kaise ban gaya mai aag ka daria tere lia,
mere lia to tune kitani raten jagkar gujarin thi
बेहद खूबसूरत रचना है प्रवीण भाई , बधाई आपको !!
ReplyDeletevah vah vah
ReplyDeleteanand ras athaah
dikhla rahe praveenji
saaryukt sundar raah