खड़ी कहीं पर दूर, कल्पना के अनन्त विस्तारों में,
सुख मदिरा में चूर, नियन्त्रित नहीं मनस उद्गारों में,
यौवन से भरपूर , सिमटती नहीं शब्द आकारों में,
स्वप्नकक्ष की अनघ सुन्दरी, जाने कब से बुला रही है ।
पर हूँ मैं असमर्थ मधुरते,
स्वप्नों के सेवक हैं हम सब,
स्वप्नों के महलों में जाकर,
साधिकार नहीं रह सकते ।
हाँ जब वह दिन आयेगा,
स्वप्न रहेंगे शेष नहीं तब,
स्वप्न-भार से मुक्त व्यक्ति,
तब तेरे ही द्वारे आयेगा ।
वाह... बीहद सुंदर कविता।
ReplyDeleteRohitas Ghorela: सब थे उसकी मौत पर (ग़जल 2)
वाह !
ReplyDelete---सुन्दर कविता....
ReplyDelete-----स्वप्नों के महलों में ही तो साधिकार रह सकते हैं .....अन्यथा दुनिया में तो प्रत्येक व्यक्ति पराधिकार है ...कभी रिश्ते-मित्र-समाज.-परिवार . , कभी प्रशासन-शासन-अनुशासन-नियमानुशासन , कभी सेवायोजन-कर्म व्यापार .....हेतु..., ..
सत्यं वदसि ।
Deletevery nice
ReplyDeleteपर हूँ मैं असमर्थ मधुरते,
ReplyDeleteस्वप्नों के सेवक हैं हम सब,
स्वप्नों के महलों में जाकर,
साधिकार नहीं रह सकते ।
गहरे भाव...
" ले चल मुझे भुलावा - देकर मेरे नाविक धीरे - धीरे ।
ReplyDeleteजिस निर्जन में सागर - लहरी अम्बर के कानों में गहरी
निश्छल प्रेम - कथा कहती हो तज कोलाहल की अवनि रे।"
जयशंकर प्रसाद
:-)
ReplyDeleteKya baat kya baat...
ReplyDeleteअर्थात् करवाचौथ पर ....समुचित व्याख्या।
ReplyDeletewaah
ReplyDeleteहम सपनों के सेवक नहीं सर्जक हैं।
ReplyDeletehttp://rajubindas.blogspot.in/2014/10/blog-post.html
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