मिलता रहता अन्न धरा से,
जल बन जीवन-अमृत बरसे,
फल बोझों से झुकते तरुवर,
प्राण-वायु और औषधि पाकर,
खाते, पीते इस धरती पर, हम जीते, सुख से रहते हैं ।
प्यार भरा वात्सल्य सतत, मातृत्व इसी को कहते हैं ।।१।।
नील-जलधि का, बहती नद का,
ऊपर फैले विस्तृत नभ का,
रस, रंगों से लदे हुये वन,
आश्रय धरती, आश्रित हैं हम,
हिम आच्छादित शैल, मध्य में, सुन्दर झरने बहते हैं ।
छिटकाती सौन्दर्य पूर्ण, मातृत्व इसी को कहते हैं ।।२।।
प्राप्त तत्व सारे आवश्यक,
तन, मन हित सौन्दर्य-प्रदायक,
माणिक, मोती, सोना, चाँदी,
रत्नाभूषण ला दे जाती,
मन हुलसाती सोंधी माटी, जीवन बन पुष्प महकते हैं ।
लाकर देती श्रृंगार विविध, मातृत्व इसी को कहते हैं ।।३।।
भावपूर्ण.... सच, मातृत्व इसी को कहते हैं
ReplyDeleteमाता पृथ्वी पुत्रोsहम पृथिव्याः
ReplyDeleteयह भाव लेकर कविता अवतरित हुई है
निश्चित ही. मातृत्व की यही परिभाषा है.
ReplyDeleteअद्भुत कविता-अद्भुत मातृत्व! आभार।
ReplyDeleteधरती मां ऐसी ही हैं...
ReplyDeleteक्या बात वाह!
ReplyDeleteमातृत्व से ओत-प्रोत।
ReplyDeleteवाह सर ! मात्रृत्व को समर्पित इस कविता और इसे प्रकाशित करने वाली लेखनी को शतस: प्रणाम । माॅं से क्या नहीं मिलता?
ReplyDeleteइसलिए-------माया जगत की तू अकेली, एक अनुपम कृति हो / पूरी प्रकृति में सृजन की तू , एक अद्भूत रीति हो ।
सही मायनों में मातृत्व की परिभाषा ।
ReplyDelete