स्थिरता तो प्राप्य नहीं अब,
मन अशान्ति को स्वतः सुलभ है ।
धरो हाथ पर हाथ नहीं अब,
शान्ति प्रयत्नों का प्रतिफल है ।।१।।
थोड़ी ऊर्जा यदि रहती है,
हलचल का विस्तार बढ़ाती ।
पर स्थिरता, जो अभीप्सित,
क्यों आने में समय लगाती ।।२।।
रहता चिन्तित मैं जीवन का,
यह सीधा सा प्रश्न कठिन है ।
पर विचित्र लगती है दुनिया,
जो अशान्ति के सम्मुख नत है ।।३।।
अब समाज उस राह चला है,
मन उलझा है, स्याह घना है ।
शान्त जनों को पर समाज यह,
रसविहीन, विपरीत बना है ।।४।।
ज्ञान सदा ही शान्त, व्यवस्थित,
जो हलचल है सत्य नहीं है ।
पर झूठे सिद्धान्त विचरते,
दूषित हो मन-वायु बही है ।।५।।
पर समाज का यह प्रपंच औ’,
नियमों का भीषण आडम्बर ।
शान्ति,मुक्ति कैसे मिल जाये,
कैसे विजय मिलेगी मन पर ।।६।।
बाहर लहरें, भीषण दर्शन,
अन्तः सागर का स्थिर पर ।
मन में हाहाकार भयंकर,
रहते क्यों पर कर्म-शून्य नर ।।७।।
कब तक जीवन, उल्टी धारा,
बहता जाये मूक, अलक्षित ।
मुक्त दिशायें, पथ पाने को,
क्यों प्रयास रह जायें सीमित ।।८।।
तर्क यही मन में आते हैें,
फिर भी जाने क्यों लगता है ।
शान्ति स्वप्न में पाकर भी मन,
कोलाहल में क्यों जगता है ।।९।।
शान्ति, मुक्ति सब श्वेत कथन से,
लगते चिन्तन में, जीवन में ।
किन्तु प्रयत्नों से पाना है,
कर प्रहार मन के शासन में ।।१०।।