27.8.14

कुछ हो वहाँ?

एक क्रम है, एक भ्रम है,
क्या पता, हम हैं कहां?
तरल सी पायी सरलता,
नियति बहते हम यहाँ।
प्रकृति कहती, मानते हैं,
परिधि अपनी जानते हैं,
लब्ध जितना, व्यक्त जितना
लुप्त उतना, त्यक्त उतना,
इसी क्रम में, इसी भ्रम में,
दृष्टि नभ, कुछ हो वहाँ?

19 comments:

  1. वाह .... यूँ ही जीवन इस क्रम और भ्रम में जीवन चलता रहता है

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  2. भ्रम का एहसास होना भी बड़ी बात है. यही कुंजी है.

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  3. सुंदर प्रस्तुति...
    दिनांक 28/08/2014 की नयी पुरानी हलचल पर आप की रचना भी लिंक की गयी है...
    हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है...
    हलचल में शामिल की गयी सभी रचनाओं पर अपनी प्रतिकृयाएं दें...
    सादर...
    कुलदीप ठाकुर

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  4. बहुत ही बढ़िया


    सादर

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  5. वाह !!! बहुत सुन्दर !
    आजकल भैया आपके ब्लॉग पर सिर्फ कवितायें ही मिल रही हैं, पढ़ रहा हूँ भैया सभी कवितायें, अच्छा लग रहा है पढ़ना :)

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  6. सुन्दर काव्य

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  7. प्रकृति के अनुशासन में सर्जना की सुखद कामना और भवितब्य का सोल्लास सामना साथ ही भ्रम के संजाल से पार पाने कीउत्कट अभिलाषा मुझे इस कविता में परिलक्षित है जो वन्दनीय है ।

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  8. इसी रहस्य को खोलने के लिए तो वेदों की रचना हुई....आज तक होती जा रही है

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  9. सच महा अनिता जी...... क्रम -वर्णन हेतु ही वेदों की रचना हुई ताकि भ्रम न रहे ....

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  10. जिवन एक झरना है
    नियति ने निरझर बनाया
    करम मेरे धरम अपने
    बांध उसमें बांधतें है

    कविता बहुत ही अच्छी है

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  11. वाह !!! सुन्दर काव्य बहुत सुन्दर !

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  12. Good contemplation. Realising actual stuff - delirium of course. But it is true understanding. Regards.

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