एक क्रम है, एक भ्रम है,
क्या पता, हम हैं कहां?
तरल सी पायी सरलता,
नियति बहते हम यहाँ।
प्रकृति कहती, मानते हैं,
परिधि अपनी जानते हैं,
लब्ध जितना, व्यक्त जितना
लुप्त उतना, त्यक्त उतना,
इसी क्रम में, इसी भ्रम में,
दृष्टि नभ, कुछ हो वहाँ?
वाह .... यूँ ही जीवन इस क्रम और भ्रम में जीवन चलता रहता है
ReplyDeleteभ्रम का एहसास होना भी बड़ी बात है. यही कुंजी है.
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति...
ReplyDeleteदिनांक 28/08/2014 की नयी पुरानी हलचल पर आप की रचना भी लिंक की गयी है...
हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है...
हलचल में शामिल की गयी सभी रचनाओं पर अपनी प्रतिकृयाएं दें...
सादर...
कुलदीप ठाकुर
बहुत ख़ूब
ReplyDeleteअच्छा दर्शन है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeletesunder rachna !!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसादर
वाह !!! बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteआजकल भैया आपके ब्लॉग पर सिर्फ कवितायें ही मिल रही हैं, पढ़ रहा हूँ भैया सभी कवितायें, अच्छा लग रहा है पढ़ना :)
सुन्दर काव्य
ReplyDeleteजीवन चला ही रहता है
ReplyDeleteप्रकृति के अनुशासन में सर्जना की सुखद कामना और भवितब्य का सोल्लास सामना साथ ही भ्रम के संजाल से पार पाने कीउत्कट अभिलाषा मुझे इस कविता में परिलक्षित है जो वन्दनीय है ।
ReplyDeleteइसी रहस्य को खोलने के लिए तो वेदों की रचना हुई....आज तक होती जा रही है
ReplyDeleteसच महा अनिता जी...... क्रम -वर्णन हेतु ही वेदों की रचना हुई ताकि भ्रम न रहे ....
ReplyDeleteजिवन एक झरना है
ReplyDeleteनियति ने निरझर बनाया
करम मेरे धरम अपने
बांध उसमें बांधतें है
कविता बहुत ही अच्छी है
वाह !!! सुन्दर काव्य बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteGood contemplation. Realising actual stuff - delirium of course. But it is true understanding. Regards.
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