हृदय को यदि सालता हो रुक्ष सा व्यक्तिव मेरा,
आँख के उल्लास में यदि शुष्क आँसू दीखते हों,
जीवनी का वाद यदि अपवाद की संज्ञा लिये हो,
सत्य कहता मैं नहीं, वह भूत मेरा दृष्टिगत था ।
बना था निर्मोह, निर्मम, रौंदता आया अभी तक ।
क्रोध का आवेग उठता, यदि कहीं रोका गया पथ ।
सफलता की वेदना में, जूझता हर कार्य था ।
आत्म की बोली लगी थी, जीतना अनिवार्य था ।
बेहद खुबसूरत रचना
ReplyDeleteहमेशा जीत हासिल होता रहे
क्या बात है !
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ReplyDeleteबहुत बढ़िया
सफलता की वेदना में, जूझता हर कार्य था ।
ReplyDeleteआत्म की बोली लगी थी, जीतना अनिवार्य था ।
वीर तुम बढ़े चलो ....धीर तुम बढ़े चलो .....बहुत सुंदर सुदृढ़ भाव ....!!
जीतने की अनिवार्यता की चाह ही जीत है।
ReplyDeleteIndomitable spirit to move in direction of success takes its toll. Earlier description is its demand only. Good composition. Regards.
ReplyDeleteजीतने की अनिवार्यता ही परिश्रम करने की प्रेरणा देती है। जब राह सिर्फ एक ही हो आगे और ऊपर। सुंदर।
ReplyDeleteहारजीत के खेल में उमरिया बीती जाए.
ReplyDeleteसुन्दर।
ReplyDeleteजीतना अनिवार्य था--
ReplyDeleteवेदना भी पिघलती है--इस संसार मेम कोई भी चट्टान बिना धूल-धूसिर हुए नहीं है.
शब्दों के माधयम से पिघलना आनंददायी है क्योंकि रचना का सुख परम है.
मन को छूती रचना.
यह 'किलिंग इंस्टिंक्ट' .....जीतने अनिवार्य हो तो होनी ही चाहिए .... वशर्ते जीत वही हो धर्म की जीत ....
ReplyDeleteजब तक उसकी पहचान न हो ऐसा ही होता है...
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