कभी सजाये बड़े यत्न से,
रंग कल्पना के चित्रों में,
चित्र तुम्हारे आज स्वयं ही, फीके क्यों पड़ते जाते हैं ?
और मुझे क्यों रेखाआें के उलझे चित्रण ही भाते हैं ?
नहीं क्यों श्रृंगार जीवित,
आज शब्दों के चयन में,
ना जाने क्यों आदर्शों के कोरे प्रकरण ही भाते हैं ।
चित्र तुम्हारे आज स्वयं ही, फीके क्यों पड़ते जाते हैं ।।१।।
नहीं रीझता हृदय आज क्यों,
मधुर सहजता के गुञ्जन में,
क्यों कानों में आज कृत्रिमता के दानव चिल्लाते हैं ।
चित्र तुम्हारे आज स्वयं ही, फीके क्यों पड़ते जाते हैं ।।२।।
नहीं आज क्यों वर्षित होता,
प्रेम, प्रणय मेरे उपवन में,
ना जाने क्यों मेघ प्रेम के बिन बरसे ही उड़ जाते हैं ।
चित्र तुम्हारे आज स्वयं ही, फीके क्यों पड़ते जाते हैं ।।३।।
जीवन के सूखे से वन में,
सूने से इस पीड़ित मन में,
अनवरत बढ़ती व्यथा और प्रश्न यही पूछे जाते हैं ।
आकर्षक जो चित्र तुम्हारे, फीके क्यों पड़ते जाते हैं ।।४।।
" नहीं सरल हर एक भाव का रेखाञ्कन हो जाए ।
ReplyDeleteरेखाओं के चक्र - व्यूह बिन चित्राञ्कन हो जाए ।
जीवन केवल घोर - तपस्या कलाकार की है
नहीं ज़रूरी बीच तपस्या मूल्याञ्कन हो जाए ।"
अशोक चक्रधर
ओह प्रवीण , आपने एक त्वरित रचना लिखवा दी, आभार भाई !
ReplyDeleteऔर कितने बच सकेंगे
भाव जो मन में उगाये
और कितने दिन चलेंगे
चित्र जो हमने बनाये !
सब क्षणिक,यदि जानते हैं, आंसुओं को क्यों बुलाएं !
हृदय को भयभीत करते , क्यों व्यथा के राग गायें ! - सतीश सक्सेना
Bahut Sunder ...Wah
Deletewaah pravin ji sundar geet , bahut umda bhav ye sabhi mn ke panno par kyun chhaa jate hai....... hardik badhai
Deleteविचारणीय और हृदयस्पर्शी भाव .... अद्भुत पंक्तियाँ
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति...
ReplyDeleteदिनांक 14/08/2014 की नयी पुरानी हलचल पर आप की रचना भी लिंक की गयी है...
हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है...
हलचल में शामिल की गयी सभी रचनाओं पर अपनी प्रतिकृयाएं दें...
सादर...
कुलदीप ठाकुर
Marmsparshi
ReplyDeleteराग कब होते वृथा हैं
ReplyDeleteभाव की ही तो कथा हैं |
हों क्षणिक पर रागिनी जो पीर अंतस की बुझायें,
क्यों न उन निर्झर पलों में गुनुगुनाएं, मुस्कुराएँ |
सूने से इस पीड़ित मन में कोई आने को है व्याकुल...
ReplyDeleteमिटा रहा हर स्मृति पुरानी
नये चित्र कुछ गढने होंगे...
सुन्दर।
ReplyDeleteमन की विरक्त भावनाओं का सुन्दर प्रस्फुटन
ReplyDeleteनहीं आज क्यों वर्षित होता,
ReplyDeleteप्रेम, प्रणय मेरे उपवन में,
ना जाने क्यों मेघ प्रेम के बिन बरसे ही उड़ जाते हैं ।
चित्र तुम्हारे आज स्वयं ही, फीके क्यों पड़ते जाते हैं ।।३।।
सुंदर पंक्तियां।।।
ये तार हैं वीणा के--कभी कस जाते हैं तो कभी ढीले हो जाते हैं
ReplyDeleteजीवन-संगीत बह्ता ही है--
बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteसर , प्रस्तुत सुन्दर भावों को समेटने की अक्षमता में उन्हे पकड़ने के लिए बॉहे निम्नवत् सहज ही फैल रही हैं-
ReplyDeleteहुए तिरोहित भाव कभी जो
बादल बनकर छा जाते हैं
भूले बिसरे चित्र सहज ही चलते फिरते अा जाते हैं ।
कुशल चितेरे रेखाअों से चित्र नए गढ़ते जाते हैं।।
नहीं रीझता हृदय आज क्यों,
ReplyDeleteमधुर सहजता के गुञ्जन में,
क्यों कानों में आज कृत्रिमता के दानव चिल्लाते हैं ।
चित्र तुम्हारे आज स्वयं ही, फीके क्यों पड़ते जाते हैं ।।२।।
एकदम सुन्दर
भीतर सौंदर्य बोध बना रहे, कृतिमता से मन भर ही जाएगा।
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