अगणित रहस्य के अन्धकूप,
इस प्रकृति-तत्व की छाती में ।
है अन्तहीन यह ज्ञानस्रोत,
मानव तू क्या क्या ढूँढ़ेगा ।।
विस्तारों की यह प्रकृति दिशा,
आधारों से यह मुक्त शून्य ।
लाचारी से विह्वल होकर,जीवन अपना ले डूबेगा ।
है अन्तहीन यह ज्ञानस्रोत, मानव तू क्या क्या ढूँढ़ेगा ।।१।।
तू कण कण को क्यों तोड़ रहा,
जाने रहस्य क्या खोज रहा ।
इन छोटे छोटे अदृश कणों में डुबा स्वयं को भूलेगा ।
है अन्तहीन यह ज्ञानस्रोत, मानव तू क्या क्या ढूँढ़ेगा ।।२।।
कारण असंख्य, कर्ता असंख्य,
मानव हन्ता, ये तत्व हन्त्य ।
कब तक जिज्ञासा बाण लिये, इन सबके पीछे दौड़ेगा ।
है अन्तहीन यह ज्ञानस्रोत, मानव तू क्या क्या ढूँढ़ेगा ।।३।।
स्थिर न तुझसे विजित हुआ,
चेतन पर फिर क्यों दृष्टि पड़ी ।
जाने किसका आधार लिये, तू चरम सत्य पर पहुँचेगा ।
है अन्तहीन यह ज्ञानस्रोत, मानव तू क्या क्या ढूँढ़ेगा ।।४।।
अपना प्रवाह न समझ सका,
मन के वेगों में उलझ गया ।
लड़खड़ा रहा तेरा पग पग, बाकी चालें क्या समझेगा ।
है अन्तहीन यह ज्ञानस्रोत, मानव तू क्या क्या ढूँढ़ेगा ।।५।।
अपने घर में बैठे बैठे,
बाहर दिखता जो, देख रहा ।
अन्तर आकर खोलो आँखें, तब अन्तरतम को जानेगा ।
है अन्तहीन यह ज्ञानस्रोत, मानव तू क्या क्या ढूँढ़ेगा ।।६।।