जीवन-जल को वाष्प बना कर,
बादल बन कर छा जाते हो ।
रहो कहीं भी छिपे छिपे से,
हमको तो तुम भा जाते हो ।।
अस्तित्वों के युद्ध कभी, निर्मम होकर हमने जीते थे,
हृदय-कक्ष फिर भी जीवन के, आत्म-दग्ध सूने, रीते थे ।
सुप्त हृदय में, सुख तरंग का, स्पन्दन तुम दे जाते हो ।
रहो कहीं भी छिपे छिपे से, हमको तो तुम भा जाते हो ।।१।।
समय कहाँ था, जीवन का जो, लुप्त हुआ सौन्दर्य बढ़ाते,
कैसे शुष्कित सम्बन्धों से, जीवन में सुख लेकर आते ।
त्यक्त, प्रतीक्षित फुलवारी में, सुन्दर पुष्प खिला जाते हो ।
रहो कहीं भी छिपे छिपे से, हमको तो तुम भा जाते हो ।।२।।
अभी प्राप्त जो धन, गरिमा है, कहाँ हमारे साथ रहेगी,
आशाआें की डोर कहाँ तक, स्वार्थ-पूर्ति के वार सहेगी ।
जहाँ साथ सब छोड़ गये, तुम चित-परिचित से आ जाते हो ।
रहो कहीं भी छिपे छिपे से, हमको तो तुम भा जाते हो ।।३।।
सुंदर प्रस्तुति...
ReplyDeleteदिनांक 31/07/2014 की नयी पुरानी हलचल पर आप की रचना भी लिंक की गयी है...
हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है...
हलचल में शामिल की गयी सभी रचनाओं पर अपनी प्रतिकृयाएं दें...
सादर...
कुलदीप ठाकुर
जीवन-जल को वाष्प बना कर,
ReplyDeleteबादल बन कर छा जाते हो ।
रहो कहीं भी छिपे छिपे से,
हमको तो तुम भा जाते हो ।।
अनुपम भाव संयोजन ....
जहाँ साथ सब छोड़ गए ,तुम चित-परिचित से आ जाते हो।
ReplyDeleteहम को तुम भा जाते हो।
सुन्दर प्रस्तुती ।
क्या बात है प्रवीण जी। यह कविता जीवन-दर्शन की गहनता को सीधे स्पर्श कर रही है। गुनगुनाते हुए पढ़ते समय यह खटका लगा...........समय कहाँ था, जीवन का (के स्थान पर) समय कहां था जीवन में (होना चाहिए)।
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteसमय कहाँ था, जीवन का जो, लुप्त हुआ सौन्दर्य बढ़ाते,
ReplyDeleteकैसे शुष्कित सम्बन्धों से, जीवन में सुख लेकर आते ।
त्यक्त, प्रतीक्षित फुलवारी में, सुन्दर पुष्प खिला जाते हो ।
रहो कहीं भी छिपे छिपे से, हमको तो तुम भा जाते हो ।।
बहुत सुंदर........
अभी प्राप्त जो धन, गरिमा है, कहाँ हमारे साथ रहेगी,
ReplyDeleteआशाआें की डोर कहाँ तक, स्वार्थ-पूर्ति के वार सहेगी ।
जहाँ साथ सब छोड़ गये, तुम चित-परिचित से आ जाते हो ।
...वाह...बहुत सटीक अभिव्यक्ति...शब्दों और भावों का अद्भुत संयोजन...बहुत सुन्दर
उत्कृष्ट रचना
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचना
ReplyDeleteमन को भाति कविता. सुंदर रचना.
ReplyDeleteदर्शन के साथ लयबद्धता भी।
ReplyDeleteसमय कहाँ था, जीवन का जो, लुप्त हुआ सौन्दर्य बढ़ाते,
ReplyDeleteकैसे शुष्कित सम्बन्धों से, जीवन में सुख लेकर आते ।
त्यक्त, प्रतीक्षित फुलवारी में, सुन्दर पुष्प खिला जाते हो ।
रहो कहीं भी छिपे छिपे से, हमको तो तुम भा जाते हो ।।२।।
एकदम बढ़िया
बेहद उम्दा रचना और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
ReplyDelete@मुकेश के जन्मदिन पर.
हमको तुम भा जाते हो---
ReplyDeleteप्रकृति का साथ जीवन को नव-जीवन देता है.
bahut badhia sir....
ReplyDeleteबहुत सुंदर........
ReplyDeleteअभी प्राप्त जो धन, गरिमा है, कहाँ हमारे साथ रहेगी,
ReplyDeleteआशाआें की डोर कहाँ तक, स्वार्थ-पूर्ति के वार सहेगी ।
जहाँ साथ सब छोड़ गये, तुम चित-परिचित से आ जाते हो ।
रहो कहीं भी छिपे छिपे से, हमको तो तुम भा जाते हो ।।३।।
लाजवाब अभिव्यक्ति!
वाह... बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबढिया कविता है . अब तो आप कवि हो गये परी तरह :)
ReplyDeleteaahaa... kya baat h sir ji. :)
ReplyDeleteजीवन की सच्चाई !
ReplyDeleteWaah!! So beautiful !!
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