हैं अभी तक शेष यादें ।
सोचता सब कुछ भुला दूँ,
अग्नि यह भीषण मिटा दूँ ।
किन्तु ये जीवित तृषायें,
शान्त जब सारी दिशायें,
रूप दानव सा ग्रहण कर,
चीखतीं अनगिनत यादें ।।
कभी स्थिर हो विचारा,
शमित कर दूँ वेग सारा ।
किन्तु जब भी कोशिशें की,
भड़कती हैं और यादें ।।
स्मृतियाँ ऐसी ही होती हैं....
ReplyDeleteदुखद स्मृतियाँ ऐसी ही होती है. सुंदर रचना.
ReplyDeleteइंसान साथ छोड़ दें लेकिन यादें ताउम्र साथ निभाने हेतु काफी होती हैं ....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (27-07-2014) को "संघर्ष का कथानक:जीवन का उद्देश्य" (चर्चा मंच-1687) पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
गजब की छंद बद्ध रचना
ReplyDeleteजैसे राख में छुपी आग
ReplyDeleteवैसे ही मन में छुपी याद ,,,,,हवा लगते ही और तेज हो जाता है ,सुन्दर अभिव्यक्ति |
अच्छे दिन आयेंगे !
सावन जगाये अगन !
यादें ऐसी ही होती हैं .. बार बार लौट के आती हैं ज्यादा वेग से ...
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteशमन भड़काने का ही काम करता है ।
ReplyDeleteभूलना असान नहीं होता
ReplyDeleteश्रीमान आज कल लेख (गद्य) नहीं लिखते हैं । आप के ज्ञानवर्धक लेख की अपेक्षा रहती है ।
ReplyDeleteशानदार..
ReplyDeleteभावपूर्ण चित्रण
ReplyDeleteभूली बिसरी बातें।
ReplyDeleteसुन्दर।
ReplyDeleteदुनिया भर की यादें हमसे मिलने आती हैं। शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है.
ReplyDeleteऐसी ही जिद्दी होती हैं यादें.
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