तेरे जीवन को बहलाने,
आखिर रंग कहाँ से लाऊँ ?
कैसे तेरा रूप सजाऊँ ?
नहीं सूझते विषय लुप्त हैं,
जागृत थे जो स्वप्न, सुप्त हैं,
कैसे मन के भाव जगाऊँ,
आखिर रंग कहाँ से लाऊँ ।।१।।
बिखर गये जो सूत्रबद्ध थे,
अनुपस्थित हो गये शब्द वे,
कैसे तुझ पर छन्द बनाऊँ,
आखिर रंग कहाँ से लाऊँ ।।२।।
अस्थिर है मन भाग रहा है,
तुझ पर जो अनुराग रहा है,
कैसे फिर से उसे जगाऊँ,
आखिर रंग कहाँ से लाऊँ ।।३।।
जीवन में कुछ खुशियाँ लाने,
तुझको अपना हाल बताने,
तेरे पास कहाँ से आऊँ,
आखिर रंग कहाँ से लाऊँ ।।४।।
वाह ..... बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं इस उलझन को....
ReplyDeleteसुंदर रचना.
ReplyDeleteवाह बहुत ही सुंदर गीत ....
ReplyDeletebahut sundar chhnd racha hai aapne sundar geet , hardik badhai
ReplyDeleteवाह। क्या लयबद्ध गीत है !
ReplyDeleteउदासी का भाव लिए सुंदर गीत
ReplyDeleteवाह.. लाजवाब
ReplyDeleteप्रेम का सुन्दर गीत।
ReplyDeleteभावविभोर हूँ। कुछ जोड़ता चलूँ?
ReplyDeleteप्रेम पगे दो सजल नयन हैं
मन मेरा उन्मुक्त मगन है
कैसे तुमसे नजर मिलाऊँ
आखिर रंग कहाँ से लाऊँ
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बृहस्पतिवार (24-07-2014) को "अपना ख्याल रखना.." {चर्चामंच - 1684} पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
उनको ही समझाना होगा,
ReplyDeleteमन को खूब मनाना होगा ,
अवसादों को दूर भगाऊँ
ऐसे रंग कहाँ से लाऊँ ?
बहुत सुन्दर मनभावन गीत !
ReplyDeleteकर्मफल |
अनुभूति : वाह !क्या विचार है !
मनमोहक ।
ReplyDeleteसुन्दर गीत ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteयही तड़प जाने कितनों की
ReplyDeleteयह दर्द जाने कितनों का.
Beautiful lyric.
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