जीवन-जल को वाष्प बना कर,
बादल बन कर छा जाते हो ।
रहो कहीं भी छिपे छिपे से,
हमको तो तुम भा जाते हो ।।
अस्तित्वों के युद्ध कभी, निर्मम होकर हमने जीते थे,
हृदय-कक्ष फिर भी जीवन के, आत्म-दग्ध सूने, रीते थे ।
सुप्त हृदय में, सुख तरंग का, स्पन्दन तुम दे जाते हो ।
रहो कहीं भी छिपे छिपे से, हमको तो तुम भा जाते हो ।।१।।
समय कहाँ था, जीवन का जो, लुप्त हुआ सौन्दर्य बढ़ाते,
कैसे शुष्कित सम्बन्धों से, जीवन में सुख लेकर आते ।
त्यक्त, प्रतीक्षित फुलवारी में, सुन्दर पुष्प खिला जाते हो ।
रहो कहीं भी छिपे छिपे से, हमको तो तुम भा जाते हो ।।२।।
अभी प्राप्त जो धन, गरिमा है, कहाँ हमारे साथ रहेगी,
आशाआें की डोर कहाँ तक, स्वार्थ-पूर्ति के वार सहेगी ।
जहाँ साथ सब छोड़ गये, तुम चित-परिचित से आ जाते हो ।
रहो कहीं भी छिपे छिपे से, हमको तो तुम भा जाते हो ।।३।।