उलझा दी हर डोर, हमें जो बाँध रही थी,
छिन्नित संस्कृति वहीं जहाँ से साध रही थी ।
देखो फूहड़ता छितराकर बिखरायी है,
निशा-शून्यता विहँस स्वयं पर इठलायी है ।
जाओ इतिहासों के अब अध्याय खोज लो,
नालंदा और तक्षशिला, पर्याय खोज लो ।
सपनों और अपनों में झूल रहा जीवन है,
आत्म-प्रेम के वैभव का उन्माद चरम है ।
यदि ला पाना कहीं दूर से समाधान तुम,
तब रच लेना मेरे जीवन का विधान तुम ।
औरों की क्या कहें, स्वयं पर नहीं आस्था,
विश्व भरेगा दंभ तुम्हारे हर प्रयास का ।
श्रेय - प्रेय के बीच कठिन है चल पाना आता है तम ध्येय - मात्र है भटकाना ।
ReplyDeleteचञ्चल-मन शावक-सम दौडा जाता है नियति यही है भाग-भाग कर पछताना॥
ReplyDeleteसपनों और अपनों में झूल रहा जीवन है,
आत्म-प्रेम के वैभव का उन्माद चरम है .....गहन भाव
गहन भाव लिए उम्दा अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत सुंदर !!
ReplyDeleteनालंदा और तक्षशिला अब इतिहास हो गए
ReplyDeleteठेलों और ठेकों में चल ने वाले गुरुकुल ? खास हो गए
बातें शिक्षा की बेमानी सी लगती है
देखने को पुराना वैभव यह पीढी तराशती है
कल 08/जून/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन कब होगा इंसाफ - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबढिया है
ReplyDeleteबहुत ही सशक्त, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
औरों का कहें स्वयं पर नही आस्था,
ReplyDeleteयही है आज की स्थिति और नियति
सपनों और अपनों में झूल रहा जीवन है,
ReplyDeleteआत्म-प्रेम के वैभव का उन्माद चरम है ।
.... बेहद गहन भाव लिये सशक्त प्रस्तुति
औरों की क्या कहें, स्वयं पर नहीं आस्था,
ReplyDeleteविश्व भरेगा दंभ तुम्हारे हर प्रयास का ।
… बहुत सही....
बहुत ही सशक्त अभिव्यक्ति...गहन अनुभूति..आभार
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद पढ पाई हूं ...अच्छा है हमेशा की तरह
ReplyDeleteजाओ इतिहासों के अब अध्याय खोज लो,
ReplyDeleteनालंदा और तक्षशिला, पर्याय खोज लो ।
सपनों और अपनों में झूल रहा जीवन है,
आत्म-प्रेम के वैभव का उन्माद चरम है ।
सशक्त अभिव्यक्ति!
जाओ इतिहासों के अब अध्याय खोज लो,
ReplyDeleteनालंदा और तक्षशिला, पर्याय खोज लो ।
सपनों और अपनों में झूल रहा जीवन है,
आत्म-प्रेम के वैभव का उन्माद चरम है ।
बहुत सुंदर...
उम्दा...सार्थक प्रस्तुति...
ReplyDeleteऔरों की क्या कहें, स्वयं पर नहीं आस्था,
ReplyDeleteविश्व भरेगा दंभ तुम्हारे हर प्रयास का ..
गहरा भाव ... पर स्वयं में आष्टा तो जगानी होती नहीं तो विश्व का अस्तित्व ही खतरे में आ जाएगा ...
आप तो स्वयं के प्रयास पर विश्वास करने वालों में से हैं ...... फिर मन उलझा सा क्यों लग रहा है ?
ReplyDeleteyahi main kahne wali thi :)
Deleteकभी कभी सब गड्डमगड्ड सा लगता है, स्थापित प्राचीर टूटती दिखती है, सदियों से स्थापित संस्कृति की प्राचीर। मन तब पुकार उठता है, कोई भी दिशा, कोई भी गति।
Deleteआत्मविश्वास से लकदक व्यक्ति (स्वयं पर नहीं आस्था,), क्यों थके प्रतीत लग रहे हैं।
ReplyDeleteसपनों और अपनों में झूल रहा जीवन है,
ReplyDeleteआत्म-प्रेम के वैभव का उन्माद चरम है ।
.... बेहद गहन भाव लिये उम्दा...सार्थक प्रस्तुति...
ये भाव क्षणिक हैं .... विश्वास औए प्रयास तो आपके व्यक्तित्व से झलकते हैं | शुभकामनाएं
ReplyDeleteआप आकर चले भी गए।
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