जब क्रिकेट, बैडमिन्टन और स्वीमिंग नहीं करता था, तब भी फुटबॉल खेलता था। गृहनगर के स्टेडियम में फुटबॉल नियमित रूप से होती थी। उस समय अन्य खेल हम खिलाड़ियों को मँहगे पड़ जाते थे। फुटबॉल की व्यवस्था खेल अधिकारी कर देते थे और हम २२ खिलाड़ी संतुष्ट हो जाते थे। किस खेल में कौन अच्छा है, इस बात से खिलाड़ियों को क्या लेना देना। मनोरंजन और स्वास्थ्य फुटबॉल से बना रहता था, उसके बाद कोई भी खेल खिलवा लीजिये। संभवतः फुटबॉल का ही जीवन में यह योगदान रहा है कि शरीर अभी भी स्वस्थ है और अन्य खेल खेलने में सक्षम भी।
९० मिनट कैसे एक फुटबॉल के पीछे दौड़ते भागते निकल जाते थे? समय का पता ही नहीं चलता था, अँधेरा होता था, फुटबॉल दिखनी बन्द होती थी तब कहीं जाकर खेल बन्द होता था। एक फुफेरे भाई यूनीवर्सिटी के लिये खेलते थे, जब भी टूर्नामेन्ट खेल कर आते थे, उनकी १० नम्बर वाली शॉर्ट चिरौरी करके माँग लिया करता था। उसे पहनकर खेलने में मैराडोना जैसा अनुभव होता था। फुटबॉल पैरों में चिपके, न चिपके, दौड़ उसी गति से लगाते थे और कई बार गोल तक पहुँच जाने में सफल भी हो जाते थे। गर्मियों की छुट्टियों में दोपहर को लेटे लेटे इसी बात की प्रतीक्षा रहती थी कि कब सायं हो और कब खेलने निकलें। खेलने आने वालों की कभी कमी नहीं रहती थी, आज भी सबके नाम और चेहरे स्पष्ट रूप से याद हैं। भले ही सब अपने अपने व्यवसायों में व्यस्त हैं पर जब भी घर जाना होता है, फुटबॉल के उस समय की चर्चा अवश्य होती है। सबके मन में उस समय की विशेष स्मृतियाँ आज भी विद्यमान हैं।
मैदान अच्छा नहीं था और गिरने की स्थिति में खरोंच आदि नित्यरूप से लगती थीं। पैरों में सामने वाले के जूते से लगे कई घाव आज भी लगे हैं। कुहनी की चोट, पैर की मोच, गिरते समय कन्धे पर लगे झटके और घर पहुँच कर उन सब चोटों को माँ से छिपाने के लिये सामान्य दिखने का क्रम, उन स्मृतियों में एक विशेष अनुभूति आज भी हो आती है। मूक राणा सांगा बने रहते थे, डर लगा रहता था कि कहीं यह सब देख कर खेल बन्द न करवा दिया जाये। भले ही हम कितना अभिनय कर लें पर माँ को सब पता चल जाता था, यदि लँगड़ाना छिपा भी ले गये तो भी कई बार छोटा भाई ही पोल खोल देता था। चोट पर हल्दी चूने लेपना, हल्दी का दूध, रात की गाढ़ी नींद और अगले दिन फिर से खेलने के लिये शत प्रतिशत प्रस्तुत। फुटबॉल का उन्माद इस तरह व्यापा रहता था कि कहीं बाहर जाने के नाम पर भाँति भाँति के बहाने बनाने में दिन निकल जाता था।
१९८६ का समय था, उस वर्ष दसवीं बोर्ड की परीक्षा देकर गर्मी की छुट्टी पर घर आया था। १९८२ के एशियाड में टीवी लेने की पिताजी की इच्छा १९८६ में फलीभूत हुयी। अवसर था फुटबॉल के वर्ल्डकप का। मेरी उम्र १४ वर्ष की थी, पर फुटबॉल के प्रति उत्सुकता परिपूर्ण थी। पिताजी को भी बहुत रुचि थी, हमने साथ बैठ कर सारे मैच देखे थे। उसके बाद से आज तक कोई भी वर्ल्डकप छोड़ा नहीं है, यद्यपि हर बार स्थान बदलता रहा है। इस वर्ष बनारस में आने के बाद पिताजी के साथ बनारस में ही वर्ल्डकप देखने की योजना थी। पिताजी का स्वास्थ्य अचानक से बिगड़ा, कानपुर में ऑपरेशन कराना पड़ा। यद्यपि स्वास्थ्य लाभ कर सामान्य होने के पश्चात उनको बनारस में लेकर आयेंगे, पर उस बीच प्रथम सप्ताह के मैच साथ साथ देखने से छूट जायेंगे।
१९८६ में मैं १४ वर्ष का था, आज २८ वर्षों के बाद मेरा पुत्र १४ वर्षों का हो गया है। उसकी भी फुटबॉल में उतनी ही रुचि है, जितनी मेरी रही है। पिताजी के घर आने के बाद तीन पीढ़ियाँ एक साथ बैठकर मैच देखेंगी। पिताजी और पुत्रजी दोनों ही ब्रॉजील के समर्थक हैं, हमारा मन १९८६ से ही जर्मनी के साथ रहा है। अभी चार दिन के ही मैच निकले हैं, घर में उत्साह और उत्सुकता चरम पर है। बिटिया और श्रीमतीजी के कार्यक्रमों के समय पर पहला मैच आता है, उस समय थोड़ा जूझना पड़ता है, पर मैच देखने को मिल जाता है। शेष दो मैच देर रात में आते हैं, टाटा स्काई प्लस की कृपा से उनकी रिकॉर्डिंग हो जाती है, वे अगले दिन देख लिये जाते हैं। कोई बहुत ही महत्वपूर्ण मैच जिसमें रात भर की प्रतीक्षा करना संभव न हो, उसे रात में ही देखने की पूर्व और पूर्ण व्यवस्था कर ली जाती है। जो रिकॉर्डेड मैच अगले दिन देखें जाते हैं, उनके बारे में नियम बनाया हुआ है कि उनका निष्कर्ष क्या हुआ, न कोई इण्टरनेट पर देखेगा, न ही किसी को बतायेगा।
याद है, ४ वर्ष पहले लगभग इसी समय अपना ब्लॉग प्रारम्भ किया था और फुटबॉल के ऊपर एक आलेख लिखा भी था। भारत में भले ही फुटबॉल को क्रिकेट जैसी लोकप्रियता न मिल पायी हो, पर मेरे मन में फुटबॉल आज भी प्रथम स्थान पर अवस्थित है। फुटबॉल देखना जितना रुचिकर है, खेलना उतना कठिन। खेला हूँ, इसलिये कह सकता हूँ कि किसी का खेल जितना सरल और प्राकृतिक दिखता है, उसके पीछे उतनी ही श्रम और समय लगा होता है। कोई खिलाड़ी किसी को पास देता है, पास दूसरे खिलाड़ियों के ठीक पैर पर पहुँचता है। दूसरा खिलाड़ी उसे बिना छिटकाये अपने नियन्त्रण में ले लेता है। तेज़ और ऊँचे पास तो नियन्त्रण की दृष्टि से और भी कठिन होते हैं।
आज भी प्रश्न तीन S का ही है, गति(Speed), सहनशक्ति(Stamina) और कुशलता(Skill़) । यूरोपीय टीमें गति और सहनशक्ति के लिये जानी जाती रही हैं, लैटिन अमेरिका की टीमें अपनी कुशलता के लिये विख्यात हैं। पिछले वर्ल्डकप में तो गति की जीत हुयी थी। इस वर्ल्डकप में यूरोपीय और लैटिन अमेरिका की खेल शैलियों का अन्तर सिमटता जा रहा है। छोटे पासों की गति और लम्बे पासों की सटीकता हर टीमों के द्वारा अपनायी जा रही हैं। जैसे जैसे वर्ल्डकप अपने पट खोलेगा, टीमों की तकनीक के बारे में और भी पता चलेगा।
हॉलैंड ने पिछले वर्ल्डकप फ़ाइनल में मिली हार का भरपूर बदला लिया है। अभी तक ११ मैच हो चुके हैं, विशेष तथ्य यह है कि सारे के सारे मैच निष्कर्षपूर्ण रहे हैं, कोई भी बराबरी पर नहीं छूटे हैं। आज जर्मनी और पुर्तगाल का मैच है, मेरा मन जर्मनी के साथ है, अब देखना है क्या होता है? मेरी २८ साल की वर्ल्डकपीय यात्रा में जर्मनी भले ही अधिक बार न जीता हो, पर उसने हर बार जान लगाकर खेल खेला है और खेल के स्तर को हर बार बढ़ाया है। जिस प्रकार से विश्व में फुटबॉल का वातावरण बना हुआ है, उससे फुटबॉल की लोकप्रियता का अनुमान हो जाता है। मन में दबी इच्छा तो यह भी है कि वर्ल्डकप में कभी मुझे अपने देश की टीम को देखने का अवसर मिले। तब सच कहता हूँ कि उसके आगे किसी और देश की तकनीक अच्छी नहीं लगेगी। इस बार तो जर्मनी के साथ हैं।
आपकी लिखी रचना बुधवार 18 जून 2014 को लिंक की जाएगी...............
ReplyDeletehttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
हॉकी वाई प्रेक्टिस फुटबाल वाई पावर क्रिकेट बाई चांस ..... ऐसा मेरे बाबा नुझे कहते थे . हम आराम तलब भारतीय है इसलिए क्रिकेट को ज्यादा पसंद किया
ReplyDeleteआपकी टीम ने ४-० से पुर्तगाल को रौंद दिया...शुरुआत अच्छी है पर और भी मुकाबले दिलचस्प होंगे...जब अपनी टीम न हो तो निष्पक्ष भाव से मैच का आनंद लिया जा सकता है...
ReplyDeleteभारत को भी फुटबाल को प्रोत्साहन देना होगा ।
ReplyDeleteभारत में तो क्रिकेट के अलावा किसी खेल को प्रोत्सहन नहीं दिया जाता..आवश्यकता है कि फुटबॉल व् अन्य खेलों को भी उतना ही प्रोत्साहन दिया जाये जिससे वे भी विश्व स्तर पर जगह बना सकें..
ReplyDeleteफुटबाल देखना मुझे भी भाता है। जिदान के हेडबट को कौन भूल सकता है?
ReplyDeleteहेडर से अजूबे गोल निकल रहे हैं। हैप्पी footballing :)
वाह..बहुत रोचक आलेख..
ReplyDeleteबढ़िया सामयिक प्रस्तुति
ReplyDeleteफुटबाल चुस्ती फुर्ती वाला खेल है फिटनेस के लिए एकदम सही ..
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवारीय चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteखेल में शरीर जितना थकता है मन को उतना ही आराम मिलता है । खेल , जीवन का अनिवार्य अॅग है ।
ReplyDeleteसुन्दर लेखन, पढना रूचिकर लगा.. हम दोनों ने दसवीं का बोर्ड एक ही उम्र में एक ही साथ दिया .. :)
ReplyDeleteरुचिकर लेख
ReplyDeleteपिताजी के स्वास्थ्य के लिए शुभकामनाएं। गर्मियों में दोपहर में लेटे-लेटे शाम का इंतजार कई खेल प्रेमियों को होता था...शायद अब भी होता हो।
ReplyDeleteग्रामीण खेलों के बाद फूटबाल हमारा भी पसंदीदा खेल रहा !!
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ReplyDeleteअतीत के झरोखे से खेल को देखना उसमें होना ही है।
परिणाम जाने बिना रिकॉर्डिंग देखना रोचक है। कैसे रोक पाते होंगे खुद को?
ReplyDeleteशुरुआत तो उलट फेर कर रही है ... आगे आगे देखिये क्या होता है ...
ReplyDeleteरोमांचक फूटबाल !
ReplyDeleteफुटबाल का जुनून तो पिछले आठ सालों में इंग्लैंड में रहकर मैंने भी खूब देखा। सच कहूँ तो मुझे भी क्रिकेट देखने से ज्यादा फूटबाल ही देखना पसंद है।
ReplyDeleteसुन्दर लेखन बढ़िया सामयिक प्रस्तुति
ReplyDeleteलोकप्रियता के मामले में फुटबॉल क्रिकेट से बहुत आगे है. इसमें ज्यादा दमखम की जरूरत होती है. यादों को साझा करने लिए आभार.
ReplyDeleteachhi prastuti hai
ReplyDeleteफुटबाल नहीं खेला लेकिन मैच देखना अच्छा लगता है। इसे पढ़ना अच्छा रहा।
ReplyDeleteउत्कृष्ट, सामयिक प्रस्तुति...
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