अथक चिन्तन में नहाया,
सकल तर्कों में सुशोभित,
अनवरत ऊर्जित दिशा की प्रेरणा से,
बहुधा बना व्यक्तित्व मेरा ।
चला जब भी मैं खुशी में गुनगुनाता,
ध्येय की वे सुप्त रागें,
अनबँधे आवेश में आ,
मन तटों से उफनते आनन्द में,
क्षितिज तक लेती हिलोरें ।
" तत्त्वमसि ।" तुम भी वही हो , जो मैं हूँ ।
ReplyDeleteआप आकर चले भी गए।
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन विश्व रक्तदान दिवस - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteसुंदर !
ReplyDeleteसुन्दर रचना...
ReplyDeleteBAHUT...ACHHA....'samb0ddhan
ReplyDeleteज्वार आने लगता है!
ReplyDeleteलेता है मन हिलोरें ....
ReplyDeletegazab :)
ReplyDeleteबहुत बढिया...
ReplyDeleteसुन्दर रचना !!
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति...
ReplyDeleteउत्कृष्ट भाव संयोजन लिए गहन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसुन्दर अर्थ और भाव लयताल की रचना।
ReplyDeleteआपकी इस अभिव्यक्ति की चर्चा कल रविवार (29-06-2014) को ''अभिव्यक्ति आप की'' ''बातें मेरे मन की'' (चर्चा मंच 1659) पर भी होगी
ReplyDelete--
आप ज़रूर इस चर्चा पे नज़र डालें
सादर
बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteउम्मीदों की डोली !