पिछले माह जब बंगलोर से अपना सामान लाने के लिये गया तो पुराने कई पर्यवेक्षकों से बातचीत हुयी। जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि हम बनारस पहुँच चुके हैं तो उनकी प्रसन्नता और बढ़ गयी, ऐसा लगा मानो बनारस उनका प्रिय और जाना पहचाना स्थान है। यहाँ के बारे में अधिक बताना भी नहीं पड़ा, उन्हें सब पहले से ही ज्ञात था। बड़ा ही आश्चर्य का विषय था क्योंकि उत्तर भारत में किसी से दक्षिण भारतीय नगरों के बारे मे प्रश्न पूछें तो उत्तर में शून्यवाद टपकता है। बनारस को छोड़, अन्य उत्तर भारतीय नगरों के बारे में उनका ज्ञान सामान्य से भी कम था। चर्चा अन्य विषयों पर मुड़ गयी, पर मेरे विचारों की सुई इस रहस्य पर अटकी रही कि कर्नाटक के जनमानस में बनारस के विशिष्ट परिचय का क्या कारण है? मेरे पास बनारस के बारे में बताने के लिये अधिक न था, क्योंकि यहाँ आने के बाद मैं व्यस्तताओं में सिकुड़ा रहा, बनारस की जीवन्तता से परिचय नहीं कर सका। बनारस के बारे में उनके प्रश्नों में उनकी जिज्ञासा कम, मेरी परीक्षा अधिक परिलक्षित थी।
सांस्कृतिक निकटता भौगोलिक निकटताओं से अधिक मुखर होती हैं। कहने को मैं भले ही बनारस के निकट रहा, पला, बढ़ा और अब यहाँ रह भी रहा हूँ, पर मेरी सांस्कृतिक निकटता कर्नाटक में रहने वाले और अभी तक बनारस न आये हुये बहुत लोगों से पर्याप्त मात्रा में कम है।
इसी बीच मेरे साथ बंगलोर में कार्य करने वाले और आन्ध्रप्रदेश के निवासी एक सहयोगी अधिकारी ने बताया कि वह बनारस आ रहे हैं। पहले लगा कि वह यहाँ किसी प्रशासनिक कारण से आ रहे होंगे, पर जब उन्होंने अपनी यात्रा को पूर्णतया व्यक्तिगत कारण बताया तो बंगलोर में पर्यवेक्षकों से वार्ता के समय उपजा रहस्य और गहरा गया। सहयोगी अधिकारी ने बताया कि उनके माता पिता ६ माह के लिये बनारस में रहने आये हैं, एक अस्थायी निवास लेकर रह रहे हैं और ६ माह बाद वापस अपने गृहनगर चले जायेंगे। उनके आने का कारण अपने माता पिता का कुशल मंगल देखना और संबंधित व्यवस्थाओं को देखना है। उनकी यात्रा तो दो दिन की थी, पर मेरे विचारों में दक्षिण की उत्तरापथ यात्रा अभी तक चल रही है।
शंकराचार्य के द्वारा चारों पीठों में स्थापित व्यवस्था ने देश के विस्तृत भूभाग को सांस्कृतिक सूत्र से जोड़े रखा है, उस व्यवस्था के बारे में बहुतों को ज्ञात भी होगा, पर बनारस के जुड़े दक्षिण भारत के इस लगाव की जानकारी मुझे इसके पहले नहीं थी। यद्यपि यह अवश्य ज्ञात है कि बनारस से ही शंकराचार्य का कीर्तिचक्र प्रारम्भ हुआ था, यहाँ पर उनके जीवन के विस्तृत प्रयासों के बीज पर्याप्त मात्रा में दिखते हैं।
बनारस में दक्षिण भारतीयों के क्षेत्र स्थायी हैं, आवागमन निरन्तर है, संबंध सतत है, आस्था में सांस्कृतिक अटूटता है। पता किया तो, यहाँ पर केदार घाट का निर्माण विजयनगर के महाराज ने करवाया था और संभव है कि वहाँ घंटे भर पर बैठे भर रहने से ही दक्षिण की चारों भाषाओं में हो रहे संवाद आपको सुनने को मिल जायें। इसके अतिरिक्त आन्ध्र आश्रम दक्षिण से अल्प प्रवास में आने वालों के लिये चहल पहल भरा स्थान है। उत्सुकता बढ़ी, नेट पर और खोजा तो पाया कि दक्षिण भारत से ही नहीं वरन जो दक्षिण भारतीय अन्य देशों में जाकर बस गये हैं, उनके मन में भी बनारस आकर अपनी पूर्व परम्पराओं को बनाये रखने की तड़प होती है।
इतना सब जानने के बाद हमें लगा कि हम बंगलोर से बनारस तक जिस पथ से आये हैं, वह शताब्दियों से जाना पहचाना है। हमारे बंगलोर के पर्यवेक्षकों के लिये भी हमारा यहाँ आना एक परम्परा के अन्तर्गत ही हुआ, कहीं कोई पृथकता का भाव नहीं रहा। मेरे लिये भी उन्हें यहाँ आमन्त्रित करने में अत्यन्त सहजता का अनुभव हुआ और अच्छा लगा कि उनके साथ संबंध इस सदियों पुराने सांस्कृतिक सेतु के माध्यम से बना रहेगा। साथ ही साथ उनके यहाँ आने पर उनके लिये व्यवस्थायें करने का सुख जो मुझे मिलेगा, वह पाँच वर्षों के परिचय स्नेह सूत्र बनाये रखेगा। उनसे दूर आने के बाद भी हम उन्हीं के परिचित मार्ग पर खड़े हैं, विपथ नहीं हुये हैं।
पर्यवेक्षकों ने बताया कि कर्नाटक में एक व्यवस्था सदियों से चली आ रही है। पारम्परिक परिवेश में, प्राथमिक शिक्षा के लिये बच्चों को कुंभकोणम भेजा जाता है। कुंभकोणम तमिलनाडु में हैं पर वहाँ पर सारे शिक्षक कर्नाटक से हैं। माध्यमिक शिक्षा के लिये महाकोटा भेजा जाता है। महाकोटा कर्नाटक में है पर वहाँ सारे शिक्षक उत्तर भारत से हैं। उच्च शिक्षा के लिये बनारस की मान्यता है। बनारस उत्तर भारत में है पर यहाँ पर सारे शिक्षक दक्षिण कर्नाटक से आते हैं। स्व रामकृष्ण हेगड़े, यू आर राव आदि प्रसिद्ध नाम हैं जो इस परम्परा से होकर आये हैं। कर्नाटक में जितने भी स्वामी हैं, उसमें अधिकतर इसी परम्परा से आबद्ध हैं। दक्षिण भारत के शतप्रतिशत ख्यातिलब्ध ज्योतिषी बनारस से अपनी शिक्षा प्राप्त करके गये हैं।
मात्र कल्पना करके आनन्द का अतिरेक हो जाता है। वृहदता का उद्भव संकीर्णताओं से उत्पन्न समस्याओं को एक क्षण में बहा ले जाने में सक्षम है। हमें तो आभास भी नहीं है कि भाषाओं के आधार लेकर अपनी क्षुद्रताओं को महिमामंडित करने का जो प्रयास हम अब तक करते आये हैं, वह अत्यन्त लघुता और अल्पता लिये हुये सिद्ध होने वाला है। संस्कृति के अविरल प्रवाह में उभय दिशाओं में धारायें बह रही हैं। वे कुछ समय के लिये अवरुद्ध भले ही हो जायें पर अन्ततोगत्वा वे समस्त दुर्बुद्धि-मल को बहा ले जाने में सक्षम होंगी, यह मेरा प्रबल विश्वास है।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार (10-06-2014) को "समीक्षा केवल एक लिंक की.." (चर्चा मंच-1639) पर भी है!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
रोचक आलेख ..... ज्ञानवर्द्धक पोस्ट
ReplyDeleteऔर वे कहते हैं कि भारत कभी एक नहीं हो सकता!
ReplyDeleteऔर अब मुस्कराने की और भी वजहें हैं...मुस्कराइए कि आप पी एम के इलाके में हैं...
ReplyDeleteबनारस को लेकर अब हर ओर उत्सुकता है .... जानकारी देती पोस्ट
ReplyDeletevery interesting!
ReplyDeleteमात्र कल्पना करके आनन्द का अतिरेक हो जाता है।aur jab vahan pahunch hi jao tab kee to kalpna hi asambhav hai .aapka saubhagya hai .nice post .
ReplyDeleteयही है हमारी गंगा - जमुनी तहज़ीब । यही है गंगा - गोदावरी संस्कृति ।
ReplyDeleteभारत की इस अनोखी विरासत के बारे में पढ़कर मन आनन्दित हो गया..आभार !
ReplyDeleteयही भरतीय संस्कृति का यात्रा-पथ है जो ऊपरी भिन्नताओं के साथ अंतस्थ ऐक्य से संगठित है .
ReplyDeleteजानकारी देती बढिया पोस्ट..
ReplyDeleteकाश ऐसी उत्सुकता और भावनात्मक सम्बन्ध हम उतर भारतीय भी दक्षिणी भारतीय शहरों के बारे में रख पायें !!
ReplyDeleteइसी का नाम भारतवर्ष है।
ReplyDeleteज्ञानवर्द्धक आलेख ..... अनोखी विरासत.....पढ़कर मन आनन्दित हो गया
ReplyDeleteअनोखी जानकारी देती बढिया पोस्ट..
ReplyDeleteक्या ! आप आकर चले भी गए।
ReplyDeleteकविताओं में रुचि कम होने से आप के गद्य की उत्सुकता रहती है । आप के इस जानकारी से मन बहुत हर्षित हुआ । मेरा गांव बनारस के पास में है । परन्तु ऐसी जानकारी मुझे नहीं थी । बहुत धन्यवाद । अब तो प्रधान मंत्री जी भी बनारस का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं तथा आप भी बनारस के हो गये है । हमारे जैसे आप के लेखों के उत्सुक पाठक की उम्मीदें बहुत बढ गयी हैं ।
ReplyDeletebenaras toh hum bhi jaana chahte hai, patanhi kab mauka milega
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