बनारस आ गये हैं, पर जब तक इस तथ्य को उदरस्थ कर पाता, दो माह बीत गये। पता ही नहीं चला, यहाँ पर आना और यहाँ प्रवाहित कई धाराओं में आत्ममुग्ध हो रम जाना। इसे घटनाओं की अनवरत गति कह लें, कार्यस्थल में स्थापित होने का प्रयास करती मति कह लें, या अर्धविक्षिप्त अवस्था में समय की क्षति कह लें, एक स्थान पर बैठकर लिखने का समय ही नहीं मिल पाया। न ब्लॉग पढ़ना ही हो सका, न ही उन पर कुछ कहना हो सका। हो सका तो, पठनीय रचनाओं पर उड़ती सी एक दृष्टि और मन में घुमड़ते विचारों के बादल की कविताई शब्दवृष्टि।
सोचा कि लिखें, बनारस पर, जितना भी देख पाये, पहले दिन, प्रभार लेने के पहले। चार स्थान पर गये, भोर उठकर। गंगा माँ की गोद में स्नेहिल स्नान, बनारस के कोतवाल कालभैरव से आज्ञापत्र, बनारस बसाने वाले बाबा विश्वनाथ का आशीर्वाद और अन्त में भक्तिप्रवर संकचमोचन के दर्शन। एक दिन में इतना पुण्य एकत्र कर और आध्यात्मिक क्षुधा तृप्त कर बैठे ही थे कि हमारे सहायक कचौड़ी, दही और जलेबी ले आये। मन आनन्द में हो तो भूख बहुत लगती है। हम भी अपवाद न थे, आकण्ठ पकवान चढ़ाये और प्रभार लेने पहुँच गये।
प्रभार परिचालन का था, व्यस्तता आवश्यक अंग है इसका। इस तथ्य का आभास तो था, पर इतना भी नहीं सोचा था कि प्रथम ५ घंटों जैसे स्वर्णिम कालखण्ड को व्यक्त कर पाने के लिये दो माह तक जूझना होगा, वैसे उन्मुक्त क्षणों को पुनः पाने की प्रतीक्षा तो अब भी है।
सोचा कि क्या लिखता, बनारस पर, सारे प्रचार माध्यम इस नगरी की स्तुति में लगे थे, गुण व्याख्यायित करने में और दोष अनुमानित करने में। गलियों में, घाटों में, नदी के सिकुड़े पाटों में, भौतिक अव्यवस्था में आध्यात्मिक व्यवस्था को ढूढ़ निकालने का अथक प्रयास करते हुये सभी। राजनीति के बहाने ही सही, काल की गति उन्हें खींचकर यहाँ ले आयी थी, संभवतः हमें भी, एक प्रत्यक्ष पर मूकदर्शक के रूप में।
सोचा कि कैसे लिखता, जब कार्य में थक जाने के बाद और घर वापस लौटने के पहले गाढ़ी बनारसी लस्सी का बड़ा कुल्हड़ आपको बुला रहा हो, आप मना न कर पायें और पूरा चढ़ा लें। जब स्वाद में और पेट में इतना गाढ़ापन पहुँच जाये, तो दृष्टि से न कुछ दिखता है और मन से न कुछ लिखता है।
सोचा कि कैसे लिखता, जब आपके ही पुत्र और पुत्री बनारस की तुलना बंगलोर से करने में जुट जायें और गिन गिन कर दोष गिनायें। इस तथ्य को उनको कौन समझाये कि यहाँ दृष्टिगत आध्यात्मिक व्यवस्था शेष अव्यवस्थाओं पर कहीं भारी है। देश के हर कोने से आये लोग यहाँ सत्य खोजते हुये दिख जायेंगे। क्या भीड़ सदा ही अव्यवस्थाजनक होती है, इस प्रश्न का उत्तर दे पाने से अच्छा होता कि मैं उन्हें कुम्भ मेले में घुमाने ले जाता। अधिक नहीं समझा पाता हूँ क्योंकि तुलना असहाय हो जाती है, बच्चे इण्टरनेट के माध्यम से व्यवस्थित नगरों के चित्र देख चुके होते हैं, लेख पढ़ चुके होते हैं, अन्तर समझ चुके होते हैं। कैसे बताता कि हम भौतिक जगत पर ध्यान ही नहीं दे सके, शरीर के भीतर का सँवारने के क्रम में बाहर अस्तव्यस्ता धारण किये रहे।
सोचा कि दोष ही कैसे लिखता, जब श्रीमतीजी को यहाँ की अव्यवस्थता में अपने गृहनगर में रहने सा लग रहा हो, और इसी बहाने मायके जाने की बाध्यता कम हो रही हो। यहाँ की गलियों में और कहीं भी पड़े कूड़े को देखकर कई बार तो उन्हें कानपुर के कई मुहल्ले तक याद आ जाते हैं। नये स्थान पर भी ससुराल पक्ष की इतनी उपस्थिति को कभी भी उत्साहपूर्वक लिखने वाली विषयवस्तु नहीं बनानी चाहिये, यही सोच कर बस लिखते लिखते रह गया। आशा है कि भविष्य में दोनों नगर एक गति से विकसित हों जिससे श्रीमतीजी की सापेक्षिक दृष्टि में घर्षण न हो, उन्हें समदृश्यता मिली रहे।
सोचा कि निरपेक्ष हो कैसे लिखता जब मेरे संबंध-तन्तु और मेधा-तन्तु इस नगर से जुड़े हों। मेरी माँ बचपन से ही मेरी प्रवीणता का स्रोत वाराणसी को उद्घोषित कर चुकी हैं। पिता की ओर से मेधा के प्रवाह की दिशा बताने वाले विज्ञान को मेरी माँ अपने उदाहरणों से निस्तेज कर चुकी हैं। उनकी माता के नाना बनारस के प्रकाण्ड विद्वान थे। मेरी बौद्धिक क्षमताओं में मेरी माँ को सदा ही मेरी नानी के नाना की कहानियों की झलक दिखती रही है। मेरा बनारस जाना उनके लिये मुझे मेरे बौद्धिक स्रोत के समीप जाना लग रहा है। जब मेरे मस्तिष्क में बनारस का तत्व विद्यमान हो तो लेखन में कैसे अपेक्षित निरपेक्षता आ सकेगी।
हम भी दो माह के बनारसी हो गये हैं। प्रारब्ध का लब्ध कहें या कर्मक्षेत्र की आश्रयता, गंगा का आदेश कहें या सहज शिव का उत्प्रेरण, संस्कृति का पुरस्कार कहें या लेखकीय अपेक्षाओं की सांध्रता, हम बनारस के हो चुके हैं। समय अपने पट खोलेगा और हमारा भी इतिहास और इतिवृत्त बनारस में सना होगा।