28.6.14

व्यर्थ ही

शान्त, तृप्त, कर्मालु, व्यवस्थित,
मन की मृगतृष्णा से दूर ।
ऐसा एक व्यक्तित्व जगा लूँ,
अब तो मेरा ध्येय यही है ।।१।।

व्यर्थ तृषा की बलिवेदी पर,
और समय का अर्पण करना ।
अन्त्य क्षुधा कर ले परिपूरित,
द्विजजन का सिद्धान्त यही है ।।२।।

व्यर्थ शब्द के मकर जाल मे,
जीवन का सारल्य फँसाना ।
शब्द-खोज तज अर्थ समझ ले,
न्यून श्रमेच्छुक मार्ग यही है ।।३।।

व्यर्थ कष्ट की आशंका से,
कर्म-पुण्य क्यों करूँ तिरोहित ।
स्वेद बिन्दु के उजले मोती,
जीवन का श्रृंगार यही है ।।४।।

व्यर्थ सुखों की अभिलाषा में,
अंधकूप में घुसते जाना ।
मदिरा का सुख छोड़ क्षणिक जो,
जीवन जल का पान सही है ।।५।।

24.6.14

अपेक्षा

दो खुशी के पल मिलें,
तो मुक्त हो बाँहें खिलें ।
सत्य है इन ही पलों के,
हेतु जीवन जी रहा है ।।१।।

अपेक्षित तो बहुत कुछ है,
दृष्टि में पर्याप्त सुख है ।
किन्तु यह निष्ठुर व्यवस्था,
भाग अपना माँगती है ।।२।।

क्यों नियम के शासनों में,
रूढ़ियों के तम घनों में ।
मुक्ति की उत्कट तृषा में,
घुट गयी स्वच्छन्दता है ।।३।।

शक्ति से है, दोष ऊर्जित,
अहम्‌ में सारल्य अर्पित ।
काल ही निर्णय करेगा,
लोक जिस पथ जा रहा है ।।४।।

व्यर्थ ही सब लड़ रहे हैं,
घट क्षुधा के भर रहे हैं ।
पर खुशी की पौध केवल,
प्रेम के जल की पिपासी ।।५।।

21.6.14

मन किससे बातें करता है

ना जानू मैं अन्तरतम में,
अवचेतन की सुप्त तहों में,
अनचीन्हा, अनजाना अब तक,
कौन छिपा सा रहता है ?
मन किससे बातें करता है ?

भले-बुरे का ज्ञान कराये,
असमंजस में राह दिखाये,
इस जीवन के निर्णय लेकर,
जो भविष्य-पथ रचता है ।
मन किससे बातें करता है ?

पीड़ा का आवेग, व्यग्रता,
भावों का उद्वेग उमड़ता,
भीषण आँधी, पर भूधर सा,
अचल, अवस्थित रहता है ।
मन किससे बातें करता है ?

निद्रा के एकान्त महल में,
चुपके से, हौले से आकर,
भावों की मनमानी क्रीड़ा,
स्वप्न-पटों से तकता है ।
मन किससे बातें करता है ?

17.6.14

फुटबाल, पिताजी, एक और पीढ़ी

जब क्रिकेट, बैडमिन्टन और स्वीमिंग नहीं करता था, तब भी फुटबॉल खेलता था। गृहनगर के स्टेडियम में फुटबॉल नियमित रूप से होती थी। उस समय अन्य खेल हम खिलाड़ियों को मँहगे पड़ जाते थे। फुटबॉल की व्यवस्था खेल अधिकारी कर देते थे और हम २२ खिलाड़ी संतुष्ट हो जाते थे। किस खेल में कौन अच्छा है, इस बात से खिलाड़ियों को क्या लेना देना। मनोरंजन और स्वास्थ्य फुटबॉल से बना रहता था, उसके बाद कोई भी खेल खिलवा लीजिये। संभवतः फुटबॉल का ही जीवन में यह योगदान रहा है कि शरीर अभी भी स्वस्थ है और अन्य खेल खेलने में सक्षम भी।

९० मिनट कैसे एक फुटबॉल के पीछे दौड़ते भागते निकल जाते थे? समय का पता ही नहीं चलता था, अँधेरा होता था, फुटबॉल दिखनी बन्द होती थी तब कहीं जाकर खेल बन्द होता था। एक फुफेरे भाई यूनीवर्सिटी के लिये खेलते थे, जब भी टूर्नामेन्ट खेल कर आते थे, उनकी १० नम्बर वाली शॉर्ट चिरौरी करके माँग लिया करता था। उसे पहनकर खेलने में मैराडोना जैसा अनुभव होता था। फुटबॉल पैरों में चिपके, न चिपके, दौड़ उसी गति से लगाते थे और कई बार गोल तक पहुँच जाने में सफल भी हो जाते थे। गर्मियों की छुट्टियों में दोपहर को लेटे लेटे इसी बात की प्रतीक्षा रहती थी कि कब सायं हो और कब खेलने निकलें। खेलने आने वालों की कभी कमी नहीं रहती थी, आज भी सबके नाम और चेहरे स्पष्ट रूप से याद हैं। भले ही सब अपने अपने व्यवसायों में व्यस्त हैं पर जब भी घर जाना होता है, फुटबॉल के उस समय की चर्चा अवश्य होती है। सबके मन में उस समय की विशेष स्मृतियाँ आज भी विद्यमान हैं।

मैदान अच्छा नहीं था और गिरने की स्थिति में खरोंच आदि नित्यरूप से लगती थीं। पैरों में सामने वाले के जूते से लगे कई घाव आज भी लगे हैं। कुहनी की चोट, पैर की मोच, गिरते समय कन्धे पर लगे झटके और घर पहुँच कर उन सब चोटों को माँ से छिपाने के लिये सामान्य दिखने का क्रम, उन स्मृतियों में एक विशेष अनुभूति आज भी हो आती है। मूक राणा सांगा बने रहते थे, डर लगा रहता था कि कहीं यह सब देख कर खेल बन्द न करवा दिया जाये। भले ही हम कितना अभिनय कर लें पर माँ को सब पता चल जाता था, यदि लँगड़ाना छिपा भी ले गये तो भी कई बार छोटा भाई ही पोल खोल देता था। चोट पर हल्दी चूने लेपना, हल्दी का दूध, रात की गाढ़ी नींद और अगले दिन फिर से खेलने के लिये शत प्रतिशत प्रस्तुत। फुटबॉल का उन्माद इस तरह व्यापा रहता था कि कहीं बाहर जाने के नाम पर भाँति भाँति के बहाने बनाने में दिन निकल जाता था।

१९८६ का समय था, उस वर्ष दसवीं बोर्ड की परीक्षा देकर गर्मी की छुट्टी पर घर आया था। १९८२ के एशियाड में टीवी लेने की पिताजी की इच्छा १९८६ में फलीभूत हुयी। अवसर था फुटबॉल के वर्ल्डकप का। मेरी उम्र १४ वर्ष की थी, पर फुटबॉल के प्रति उत्सुकता परिपूर्ण थी। पिताजी को भी बहुत रुचि थी, हमने साथ बैठ कर सारे मैच देखे थे। उसके बाद से आज तक कोई भी वर्ल्डकप छोड़ा नहीं है, यद्यपि हर बार स्थान बदलता रहा है। इस वर्ष बनारस में आने के बाद पिताजी के साथ बनारस में ही वर्ल्डकप देखने की योजना थी। पिताजी का स्वास्थ्य अचानक से बिगड़ा, कानपुर में ऑपरेशन कराना पड़ा। यद्यपि स्वास्थ्य लाभ कर सामान्य होने के पश्चात उनको बनारस में लेकर आयेंगे, पर उस बीच प्रथम सप्ताह के मैच साथ साथ देखने से छूट जायेंगे।

१९८६ में मैं १४ वर्ष का था, आज २८ वर्षों के बाद मेरा पुत्र १४ वर्षों का हो गया है। उसकी भी फुटबॉल में उतनी ही रुचि है, जितनी मेरी रही है। पिताजी के घर आने के बाद तीन पीढ़ियाँ एक साथ बैठकर मैच देखेंगी। पिताजी और पुत्रजी दोनों ही ब्रॉजील के समर्थक हैं, हमारा मन १९८६ से ही जर्मनी के साथ रहा है। अभी चार दिन के ही मैच निकले हैं, घर में उत्साह और उत्सुकता चरम पर है। बिटिया और श्रीमतीजी के कार्यक्रमों के समय पर पहला मैच आता है, उस समय थोड़ा जूझना पड़ता है, पर मैच देखने को मिल जाता है। शेष दो मैच देर रात में आते हैं, टाटा स्काई प्लस की कृपा से उनकी रिकॉर्डिंग हो जाती है, वे अगले दिन देख लिये जाते हैं। कोई बहुत ही महत्वपूर्ण मैच जिसमें रात भर की प्रतीक्षा करना संभव न हो, उसे रात में ही देखने की पूर्व और पूर्ण व्यवस्था कर ली जाती है। जो रिकॉर्डेड मैच अगले दिन देखें जाते हैं, उनके बारे में नियम बनाया हुआ है कि उनका निष्कर्ष क्या हुआ, न कोई इण्टरनेट पर देखेगा, न ही किसी को बतायेगा। 

याद है, ४ वर्ष पहले लगभग इसी समय अपना ब्लॉग प्रारम्भ किया था और फुटबॉल के ऊपर एक आलेख लिखा भी था। भारत में भले ही फुटबॉल को क्रिकेट जैसी लोकप्रियता न मिल पायी हो, पर मेरे मन में फुटबॉल आज भी प्रथम स्थान पर अवस्थित है। फुटबॉल देखना जितना रुचिकर है, खेलना उतना कठिन। खेला हूँ, इसलिये कह सकता हूँ कि किसी का खेल जितना सरल और प्राकृतिक दिखता है, उसके पीछे उतनी ही श्रम और समय लगा होता है। कोई खिलाड़ी किसी को पास देता है, पास दूसरे खिलाड़ियों के ठीक पैर पर पहुँचता है। दूसरा खिलाड़ी उसे बिना छिटकाये अपने नियन्त्रण में ले लेता है। तेज़ और ऊँचे पास तो नियन्त्रण की दृष्टि से और भी कठिन होते हैं।

आज भी प्रश्न तीन S का ही है, गति(Speed), सहनशक्ति(Stamina) और कुशलता(Skill़) । यूरोपीय टीमें गति और सहनशक्ति के लिये जानी जाती रही हैं, लैटिन अमेरिका की टीमें अपनी कुशलता के लिये विख्यात हैं। पिछले वर्ल्डकप में तो गति की जीत हुयी थी। इस वर्ल्डकप में यूरोपीय और लैटिन अमेरिका की खेल शैलियों का अन्तर सिमटता जा रहा है। छोटे पासों की गति और लम्बे पासों की सटीकता हर टीमों के द्वारा अपनायी जा रही हैं। जैसे जैसे वर्ल्डकप अपने पट खोलेगा, टीमों की तकनीक के बारे में और भी पता चलेगा।

हॉलैंड ने पिछले वर्ल्डकप फ़ाइनल में मिली हार का भरपूर बदला लिया है। अभी तक ११ मैच हो चुके हैं, विशेष तथ्य यह है कि सारे के सारे मैच निष्कर्षपूर्ण रहे हैं, कोई भी बराबरी पर नहीं छूटे हैं। आज जर्मनी और पुर्तगाल का मैच है, मेरा मन जर्मनी के साथ है, अब देखना है क्या होता है? मेरी २८ साल की वर्ल्डकपीय यात्रा में जर्मनी भले ही अधिक बार न जीता हो, पर उसने हर बार जान लगाकर खेल खेला है और खेल के स्तर को हर बार बढ़ाया है। जिस प्रकार से विश्व में फुटबॉल का वातावरण बना हुआ है, उससे फुटबॉल की लोकप्रियता का अनुमान हो जाता है। मन में दबी इच्छा तो यह भी है कि वर्ल्डकप में कभी मुझे अपने देश की टीम को देखने का अवसर मिले। तब सच कहता हूँ कि उसके आगे किसी और देश की तकनीक अच्छी नहीं लगेगी। इस बार तो जर्मनी के साथ हैं।

14.6.14

बहुधा

अथक चिन्तन में नहाया,
सकल तर्कों में सुशोभित,
अनवरत ऊर्जित दिशा की प्रेरणा से,
बहुधा बना व्यक्तित्व मेरा ।

चला जब भी मैं खुशी में गुनगुनाता,
ध्येय की वे सुप्त रागें,
अनबँधे आवेश में आ,
मन तटों से उफनते आनन्द में,
क्षितिज तक लेती हिलोरें ।

10.6.14

पहचाना पथ

पिछले माह जब बंगलोर से अपना सामान लाने के लिये गया तो पुराने कई पर्यवेक्षकों से बातचीत हुयी। जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि हम बनारस पहुँच चुके हैं तो उनकी प्रसन्नता और बढ़ गयी, ऐसा लगा मानो बनारस उनका प्रिय और जाना पहचाना स्थान है। यहाँ के बारे में अधिक बताना भी नहीं पड़ा, उन्हें सब पहले से ही ज्ञात था। बड़ा ही आश्चर्य का विषय था क्योंकि उत्तर भारत में किसी से दक्षिण भारतीय नगरों के बारे मे प्रश्न पूछें तो उत्तर में शून्यवाद टपकता है। बनारस को छोड़, अन्य उत्तर भारतीय नगरों के बारे में उनका ज्ञान सामान्य से भी कम था। चर्चा अन्य विषयों पर मुड़ गयी, पर मेरे विचारों की सुई इस रहस्य पर अटकी रही कि कर्नाटक के जनमानस में बनारस के विशिष्ट परिचय का क्या कारण है? मेरे पास बनारस के बारे में बताने के लिये अधिक न था, क्योंकि यहाँ आने के बाद मैं व्यस्तताओं में सिकुड़ा रहा, बनारस की जीवन्तता से परिचय नहीं कर सका। बनारस के बारे में उनके प्रश्नों में उनकी जिज्ञासा कम, मेरी परीक्षा अधिक परिलक्षित थी।

सांस्कृतिक निकटता भौगोलिक निकटताओं से अधिक मुखर होती हैं। कहने को मैं भले ही बनारस के निकट रहा, पला, बढ़ा और अब यहाँ रह भी रहा हूँ, पर मेरी सांस्कृतिक निकटता कर्नाटक में रहने वाले और अभी तक बनारस न आये हुये बहुत लोगों से पर्याप्त मात्रा में कम है।

इसी बीच मेरे साथ बंगलोर में कार्य करने वाले और आन्ध्रप्रदेश के निवासी एक सहयोगी अधिकारी ने बताया कि वह बनारस आ रहे हैं। पहले लगा कि वह यहाँ किसी प्रशासनिक कारण से आ रहे होंगे, पर जब उन्होंने अपनी यात्रा को पूर्णतया व्यक्तिगत कारण बताया तो बंगलोर में पर्यवेक्षकों से वार्ता के समय उपजा रहस्य और गहरा गया। सहयोगी अधिकारी ने बताया कि उनके माता पिता ६ माह के लिये बनारस में रहने आये हैं, एक अस्थायी निवास लेकर रह रहे हैं और ६ माह बाद वापस अपने गृहनगर चले जायेंगे। उनके आने का कारण अपने माता पिता का कुशल मंगल देखना और संबंधित व्यवस्थाओं को देखना है। उनकी यात्रा तो दो दिन की थी, पर मेरे विचारों में दक्षिण की उत्तरापथ यात्रा अभी तक चल रही है।

शंकराचार्य के द्वारा चारों पीठों में स्थापित व्यवस्था ने देश के विस्तृत भूभाग को सांस्कृतिक सूत्र से जोड़े रखा है, उस व्यवस्था के बारे में बहुतों को ज्ञात भी होगा, पर बनारस के जुड़े दक्षिण भारत के इस लगाव की जानकारी मुझे इसके पहले नहीं थी। यद्यपि यह अवश्य ज्ञात है कि बनारस से ही शंकराचार्य का कीर्तिचक्र प्रारम्भ हुआ था, यहाँ पर उनके जीवन के विस्तृत प्रयासों के बीज पर्याप्त मात्रा में दिखते हैं। 

बनारस में दक्षिण भारतीयों के क्षेत्र स्थायी हैं, आवागमन निरन्तर है, संबंध सतत है, आस्था में सांस्कृतिक अटूटता है। पता किया तो, यहाँ पर केदार घाट का निर्माण विजयनगर के महाराज ने करवाया था और संभव है कि वहाँ घंटे भर पर बैठे भर रहने से ही दक्षिण की चारों भाषाओं में हो रहे संवाद आपको सुनने को मिल जायें। इसके अतिरिक्त आन्ध्र आश्रम दक्षिण से अल्प प्रवास में आने वालों के लिये चहल पहल भरा स्थान है। उत्सुकता बढ़ी, नेट पर और खोजा तो पाया कि दक्षिण भारत से ही नहीं वरन जो दक्षिण भारतीय अन्य देशों में जाकर बस गये हैं, उनके मन में भी बनारस आकर अपनी पूर्व परम्पराओं को बनाये रखने की तड़प होती है।

इतना सब जानने के बाद हमें लगा कि हम बंगलोर से बनारस तक जिस पथ से आये हैं, वह शताब्दियों से जाना पहचाना है। हमारे बंगलोर के पर्यवेक्षकों के लिये भी हमारा यहाँ आना एक परम्परा के अन्तर्गत ही हुआ, कहीं कोई पृथकता का भाव नहीं रहा। मेरे लिये भी उन्हें यहाँ आमन्त्रित करने में अत्यन्त सहजता का अनुभव हुआ और अच्छा लगा कि उनके साथ संबंध इस सदियों पुराने सांस्कृतिक सेतु के माध्यम से बना रहेगा। साथ ही साथ उनके यहाँ आने पर उनके लिये व्यवस्थायें करने का सुख जो मुझे मिलेगा, वह पाँच वर्षों के परिचय स्नेह सूत्र बनाये रखेगा। उनसे दूर आने के बाद भी हम उन्हीं के परिचित मार्ग पर खड़े हैं, विपथ नहीं हुये हैं।

पर्यवेक्षकों ने बताया कि कर्नाटक में एक व्यवस्था सदियों से चली आ रही है। पारम्परिक परिवेश में, प्राथमिक शिक्षा के लिये बच्चों को कुंभकोणम भेजा जाता है। कुंभकोणम तमिलनाडु में हैं पर वहाँ पर सारे शिक्षक कर्नाटक से हैं। माध्यमिक शिक्षा के लिये महाकोटा भेजा जाता है। महाकोटा कर्नाटक में है पर वहाँ सारे शिक्षक उत्तर भारत से हैं। उच्च शिक्षा के लिये बनारस की मान्यता है। बनारस उत्तर भारत में है पर यहाँ पर सारे शिक्षक दक्षिण कर्नाटक से आते हैं। स्व रामकृष्ण हेगड़े, यू आर राव आदि प्रसिद्ध नाम हैं जो इस परम्परा से होकर आये हैं। कर्नाटक में जितने भी स्वामी हैं, उसमें अधिकतर इसी परम्परा से आबद्ध हैं। दक्षिण भारत के शतप्रतिशत ख्यातिलब्ध ज्योतिषी बनारस से अपनी शिक्षा प्राप्त करके गये हैं।

मात्र कल्पना करके आनन्द का अतिरेक हो जाता है। वृहदता का उद्भव संकीर्णताओं से उत्पन्न समस्याओं को एक क्षण में बहा ले जाने में सक्षम है। हमें तो आभास भी नहीं है कि भाषाओं के आधार लेकर अपनी क्षुद्रताओं को महिमामंडित करने का जो प्रयास हम अब तक करते आये हैं, वह अत्यन्त लघुता और अल्पता लिये हुये सिद्ध होने वाला है। संस्कृति के अविरल प्रवाह में उभय दिशाओं में धारायें बह रही हैं। वे कुछ समय के लिये अवरुद्ध भले ही हो जायें पर अन्ततोगत्वा वे समस्त दुर्बुद्धि-मल को बहा ले जाने में सक्षम होंगी, यह मेरा प्रबल विश्वास है।

7.6.14

प्रयास तुम्हारा

उलझा दी हर डोर, हमें जो बाँध रही थी,
छिन्नित संस्कृति वहीं जहाँ से साध रही थी ।
देखो फूहड़ता छितराकर बिखरायी है,
निशा-शून्यता विहँस स्वयं पर इठलायी है ।

जाओ इतिहासों के अब अध्याय खोज लो,
नालंदा और तक्षशिला, पर्याय खोज लो ।
सपनों और अपनों में झूल रहा जीवन है,
आत्म-प्रेम के वैभव का उन्माद चरम है ।

यदि ला पाना कहीं दूर से समाधान तुम,
तब रच लेना मेरे जीवन का विधान तुम ।
औरों की क्या कहें, स्वयं पर नहीं आस्था,
विश्व भरेगा दंभ तुम्हारे हर प्रयास का ।

3.6.14

दो माह के बनारसी

बनारस आ गये हैं, पर जब तक इस तथ्य को उदरस्थ कर पाता, दो माह बीत गये। पता ही नहीं चला, यहाँ पर आना और यहाँ प्रवाहित कई धाराओं में आत्ममुग्ध हो रम जाना। इसे घटनाओं की अनवरत गति कह लें, कार्यस्थल में स्थापित होने का प्रयास करती मति कह लें, या अर्धविक्षिप्त अवस्था में समय की क्षति कह लें, एक स्थान पर बैठकर लिखने का समय ही नहीं मिल पाया। न ब्लॉग पढ़ना ही हो सका, न ही उन पर कुछ कहना हो सका। हो सका तो, पठनीय रचनाओं पर उड़ती सी एक दृष्टि और मन में घुमड़ते विचारों के बादल की कविताई शब्दवृष्टि।

सोचा कि लिखें, बनारस पर, जितना भी देख पाये, पहले दिन, प्रभार लेने के पहले। चार स्थान पर गये, भोर उठकर। गंगा माँ की गोद में स्नेहिल स्नान, बनारस के कोतवाल कालभैरव से आज्ञापत्र, बनारस बसाने वाले बाबा विश्वनाथ का आशीर्वाद और अन्त में भक्तिप्रवर संकचमोचन के दर्शन। एक दिन में इतना पुण्य एकत्र कर और आध्यात्मिक क्षुधा तृप्त कर बैठे ही थे कि हमारे सहायक कचौड़ी, दही और जलेबी ले आये। मन आनन्द में हो तो भूख बहुत लगती है। हम भी अपवाद न थे, आकण्ठ पकवान चढ़ाये और प्रभार लेने पहुँच गये।

प्रभार परिचालन का था, व्यस्तता आवश्यक अंग है इसका। इस तथ्य का आभास तो था, पर इतना भी नहीं सोचा था कि प्रथम ५ घंटों जैसे स्वर्णिम कालखण्ड को व्यक्त कर पाने के लिये दो माह तक जूझना होगा, वैसे उन्मुक्त क्षणों को पुनः पाने की प्रतीक्षा तो अब भी है।

सोचा कि क्या लिखता, बनारस पर, सारे प्रचार माध्यम इस नगरी की स्तुति में लगे थे, गुण व्याख्यायित करने में और दोष अनुमानित करने में। गलियों में, घाटों में, नदी के सिकुड़े पाटों में, भौतिक अव्यवस्था में आध्यात्मिक व्यवस्था को ढूढ़ निकालने का अथक प्रयास करते हुये सभी। राजनीति के बहाने ही सही, काल की गति उन्हें खींचकर यहाँ ले आयी थी, संभवतः हमें भी, एक प्रत्यक्ष पर मूकदर्शक के रूप में।

सोचा कि कैसे लिखता, जब कार्य में थक जाने के बाद और घर वापस लौटने के पहले गाढ़ी बनारसी लस्सी का बड़ा कुल्हड़ आपको बुला रहा हो, आप मना न कर पायें और पूरा चढ़ा लें। जब स्वाद में और पेट में इतना गाढ़ापन पहुँच जाये, तो दृष्टि से न कुछ दिखता है और मन से न कुछ लिखता है।

सोचा कि कैसे लिखता, जब आपके ही पुत्र और पुत्री बनारस की तुलना बंगलोर से करने में जुट जायें और गिन गिन कर दोष गिनायें। इस तथ्य को उनको कौन समझाये कि यहाँ दृष्टिगत आध्यात्मिक व्यवस्था शेष अव्यवस्थाओं पर कहीं भारी है। देश के हर कोने से आये लोग यहाँ सत्य खोजते हुये दिख जायेंगे। क्या भीड़ सदा ही अव्यवस्थाजनक होती है, इस प्रश्न का उत्तर दे पाने से अच्छा होता कि मैं उन्हें कुम्भ मेले में घुमाने ले जाता। अधिक नहीं समझा पाता हूँ क्योंकि तुलना असहाय हो जाती है, बच्चे इण्टरनेट के माध्यम से व्यवस्थित नगरों के चित्र देख चुके होते हैं, लेख पढ़ चुके होते हैं, अन्तर समझ चुके होते हैं। कैसे बताता कि हम भौतिक जगत पर ध्यान ही नहीं दे सके, शरीर के भीतर का सँवारने के क्रम में बाहर अस्तव्यस्ता धारण किये रहे।

सोचा कि दोष ही कैसे लिखता, जब श्रीमतीजी को यहाँ की अव्यवस्थता में अपने गृहनगर में रहने सा लग रहा हो,  और इसी बहाने मायके जाने की बाध्यता कम हो रही हो। यहाँ की गलियों में और कहीं भी पड़े कूड़े को देखकर कई बार तो उन्हें कानपुर के कई मुहल्ले तक याद आ जाते हैं। नये स्थान पर भी ससुराल पक्ष की इतनी उपस्थिति को कभी भी उत्साहपूर्वक लिखने वाली विषयवस्तु नहीं बनानी चाहिये, यही सोच कर बस लिखते लिखते रह गया। आशा है कि भविष्य में दोनों नगर एक गति से विकसित हों जिससे श्रीमतीजी की सापेक्षिक दृष्टि में घर्षण न हो, उन्हें समदृश्यता मिली रहे।

सोचा कि निरपेक्ष हो कैसे लिखता जब मेरे संबंध-तन्तु और मेधा-तन्तु इस नगर से जुड़े हों। मेरी माँ बचपन से ही मेरी प्रवीणता का स्रोत वाराणसी को उद्घोषित कर चुकी हैं। पिता की ओर से मेधा के प्रवाह की दिशा बताने वाले विज्ञान को मेरी माँ अपने उदाहरणों से निस्तेज कर चुकी हैं। उनकी माता के नाना बनारस के प्रकाण्ड विद्वान थे। मेरी बौद्धिक क्षमताओं में मेरी माँ को सदा ही मेरी नानी के नाना की कहानियों की झलक दिखती रही है। मेरा बनारस जाना उनके लिये मुझे मेरे बौद्धिक स्रोत के समीप जाना लग रहा है। जब मेरे मस्तिष्क में बनारस का तत्व विद्यमान हो तो लेखन में कैसे अपेक्षित निरपेक्षता आ सकेगी।

हम भी दो माह के बनारसी हो गये हैं। प्रारब्ध का लब्ध कहें या कर्मक्षेत्र की आश्रयता, गंगा का आदेश कहें या सहज शिव का उत्प्रेरण, संस्कृति का पुरस्कार कहें या लेखकीय अपेक्षाओं की सांध्रता, हम बनारस के हो चुके हैं। समय अपने पट खोलेगा और हमारा भी इतिहास और इतिवृत्त बनारस में सना होगा।