प्रश्न कुछ भी पूछता हूँ,
उत्तरों की विविध नदियाँ,
ज्ञान का विस्तार तज कर,
मात्र तुझमें सिमटती हैं ।
नेत्र से कुछ ढूँढ़ता हूँ,
दृष्टियों की तीक्ष्ण धारें,
अन्य सब आसार तजकर,
तुम्हीं पर कब से टिकी हैं ।
जब कभी कुछ सोचता हूँ,
विचारों की दिशा सारी,
व्यर्थ का संसार तजकर,
तुम्हीं पर आ अटकती हैं ।
नहीं खुद को रोकता हूँ,
हृदय के खाली भवन में,
जब तुम्हारी ही तरंगें,
Great concentration. We have to aggregate selves to attain the bliss. Regards.
ReplyDeleteउम्दा अभिव्यक्ति ...... खूबसूरत रचना .....
ReplyDeleteGreat concentration. We have to aggregate selves to attain the bliss. Regards.
ReplyDeleteजब कभी कुछ सोचता हूँ,
ReplyDeleteविचारों की दिशा सारी,
व्यर्थ का संसार तजकर,
तुम्हीं पर आ अटकती हैं ।
उत्कृष्ट भाव ।
उद्दिष्ट वही है - सारे प्रश्नों का उत्तर और सभी खोजों का लक्ष्य !
ReplyDeleteजब कभी कुछ सोचता हूँ,
ReplyDeleteविचारों की दिशा सारी,
व्यर्थ का संसार तजकर,
तुम्हीं पर आ अटकती हैं ।.... very meaningful.. utkrisht abhivyakti
नहीं खुद को रोकता हूँ,
ReplyDeleteहृदय के खाली भवन में,
जब तुम्हारी ही तरंगें,
अनवरत ही भटकती हैं ।
.. बहुत सुन्दर
जब कभी कुछ सोचता हूँ,
ReplyDeleteविचारों की दिशा सारी,
व्यर्थ का संसार तजकर,
तुम्हीं पर आ अटकती हैं ।
bahut sundar bhav aur usase bhi achchhi abhivyakti ..
नहीं खुद को रोकता हूँ,
ReplyDeleteहृदय के खाली भवन में,
जब तुम्हारी ही तरंगें,
अनवरत ही भटकती हैं ।
मन के भाव को शब्दों में लिखा है ...!!!
उम्दा अभिव्यक्ति
ReplyDeleteKya bat .....Adbhut shabd winyas....utkrisht
ReplyDeleteएक गाना याद आ गया> मेरी हर होशियारी़़़बस तुम तक़़़ > रांझना
ReplyDeleteउत्कृष्ट रचना....
ReplyDeleteइस जग का अति अद्भुत प्राणी इस पृथ्वी पर क्यों कर आया
ReplyDeleteयह रहस्य तो बना हुआ है किसने क्या खोया क्या पाया ?
कोSहमस्मि यह प्रश्न तरंगित रहा निरन्तर मानव मन में
उत्तर पाता रहा मनुज नित आश्रम के पावन जीवन में ।
पुरुषार्थ चतुष्टय बीज रूप में बसा हुआ है मानव मन में
धर्म अर्थ औ काम मोक्ष की सतत् कामना है चिन्तन में।
पाएगा जब तक न मनुज यह भटकेगा जीवन उपवन में ।
आस्था का यह स्वर है जीवित आज भी ताज़ा सबके मन में।
देवासुर संग्राम हो रहा नित-प्रति हर युग में हर बार
सही - गलत की समझ कठिन है ज्यों हो दोधारी तलवार ।
हुआ पराजित नर षड्-रिपु से नित्य निरन्तर बारम्बार
लक्ष्य हेतु तत्पर है फिर भी उसे चुनौती है स्वीकार ।
अर्थात सब रास्ते तुम्हारी तरफ ही जाते हैं
ReplyDeleteये शून्य जहां सब कुछ एक हो जता है बस उसी की तो तलाश रहती है ...
ReplyDeleteबहुत खूब ...
बहुत खूब , मंगलकामनाएं आपको !
ReplyDeleteDil ko chu lene wala lekh
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना..
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
प्रेम गली अति सांकरी या मेँ दो न समाहिं।
ReplyDeleteकविता के हर शब्द में बनारस है और कबीर भी।
विश्व में तुम हो अखिल अस्तित्त्व में तुम हो ,नही हूँ मैं कहीं कुछ भी जहाँ देखूँ वहीं तुम हो । --हमेशा की तरह गहन चिन्तनमयी रचना ।
ReplyDeleteदृष्टि की तीक्षणता ही जीवन को गतिमान करती है।
ReplyDeleteअति सुंदर.
ReplyDeleteसुन्दर रचना। ……।
ReplyDeleteनेत्र से कुछ ढूँढ़ता हूँ,
दृष्टियों की तीक्ष्ण धारें,
अन्य सब आसार तजकर,
तुम्हीं पर कब से टिकी हैं ।
पंक्तियाँ कबीर का दर्शन परिलक्षित करती प्रतीत होती है।
आभार …।
सुन्दर रचना। ……।
ReplyDeleteनेत्र से कुछ ढूँढ़ता हूँ,
दृष्टियों की तीक्ष्ण धारें,
अन्य सब आसार तजकर,
तुम्हीं पर कब से टिकी हैं ।
पंक्तियाँ कबीर का दर्शन परिलक्षित करती प्रतीत होती है।
आभार …।