पहली बार जब १९९३ में बंगलुरू आया था तो मन अभिभूत हो गया था, हर ओर हरा भरा, हर ओर पेड़ ही पेड़। सुदृढ़ नगरीय बससेवा होने पर भी मित्रों के साथ प्रतिदिन ६-७ किमी का स्वच्छंद पैदल चलना हो ही जाता था। अच्छा लगता था, बतियाना, गपियाना और गहरी साँसों में प्रकृति की सोंधी गंध को भर लेना। उस समय यह सेवानिवृत लोगों का प्रतिष्ठित आधार बन चुका था, पर आईटी के उत्थानपथ पर अपनी शैशवास्था में था। वह प्रवास भले ही ६ माह का रहा हो पर मन में बंगलुरु के प्रति एक विशिष्ट आकर्षण बना रहा। १६ वर्ष बाद जब रेलवे ने यहाँ मुझे अपनी सेवायें देने का अवसर दिया तो मन ही मन ईश्वर को मन की अतृप्त इच्छाओं को मान देने के लिये धन्यवाद दिया और सपरिवार यहाँ रहने आ गया। पता ही नहीं चला कि ५ वर्ष कब निकल गये और आज, जब यहाँ से विदा लेने का समय आ रहा है तो मन यहाँ बिताये समय का मूल्यांकन करने में लगा हुआ है।
सोचा नहीं था कि यह नगर मन में इतना बस जायेगा। हर नगर का एक व्यक्तित्व होता है, वहाँ रहना उससे नित व्यवहार करने सा है। उस नगरीय व्यक्तित्व के विकास में हम अपना कुछ योगदान दे पायें, न दे पायें, पर उस नगर का प्रभाव हमारे व्यक्तित्व पर व्यापक होता है। उस नगर में रहना उस प्रभाव को जीवन में अंगीकृत करने सा है, कुछ अस्थायी सा, कुछ स्थायी सा। यह तो समय ही बतायेगा कि आगामी नगर अपना स्थान बनाते समय बंगलुरू के कितने तत्वों को विस्थापित कर देगा, पर यहाँ से जाते समय अपनी तुलना अपने ही पाँच वर्ष पहले के व्यक्तित्व से करता हूँ तो अन्तर स्पष्ट दिखता है। कई अन्य कारक भी रहे होंगे इस अन्तर के, पर उसमें बंगलुरू का भाग अधिकतम है।
शरीर जो झेलता है, मन भी वैसा बनने लगता है। यही कारण है कि किसी स्थान की जलवायु व्यक्तित्व का बाहरी आकार भी गढ़ती है और व्यवहार की मानसिकता भी। बंगलुरू का तापमान सम है, पर्याप्त वर्षा भी होती है यहाँ। आप आश्चर्य करेंगे कि पिछले पाँच वर्षों में मैंने एक बार भी मुझे स्वेटर नहीं पहना है, सुबह की हवाओं से बचने के लिये अधिकतम ट्रैकसूट का अपर। लोग कहते हैं कि सम तापमान शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम करता है और वातावरण में जीवाणुओं को पनपने में सहायता करता है। पूर्ववर्ती स्थानों के विषम तापमानों से तपे और सिकुड़े शरीर की सहनशीलता का प्रताप था या सौभाग्य कि शरीर ने कोई विशेष कष्ट नहीं दिया यहाँ पर। आगे शरीर का क्या होगा, यह तो भविष्य ही बतायेगा, पर इस सम तापमान ने मन पर एक विशेष प्रभाव डाला है। मन कहीं अधिक संतुलित और सम हो गया, क्रोध कम हो गया। अब दृष्टिगत असहजता विकार नहीं लाती है अपितु समाधान ढूढ़ने में तत्पर हो जाती है।समत्वता आच्छादित है, स्थितिप्रज्ञता की छिटकी सुगन्ध दे गया बंगलुरू।
अट्टालिकाओं से शोभित बंगलुरू |
अच्छी राजधानी बनने के जीतोड़ प्रयास में यह नगर अपनी मौलिकता खो बैठा है। एक स्वच्छंदता का भाव जो दो दशक पहले यहाँ की सोंधी हवा में मुझे मिला था, उसका स्थान कॉन्क्रीट मिश्रित गुरुत्व और रूक्षता ने ले लिया है। ठीक वैसा ही कुछ परिवर्तन मेरे व्यवहार में भी हुआ। बचपन की स्वच्छंदता और युवावस्था की ऊर्जा के स्थान पर व्यवहार में गृहस्वामी और बड़े अधिकारी का गांभीर्य आ गया। मुझे जब भी स्मृतियों का बंगलुरू ढूढ़ना होता था तो किसी हरे भरे बड़े पेड़ की छाँह निहारने लगता, उसकी छाँह में मुझे मेरा बचपन भी दिख जाता। नित विकास और विस्तार करता बंगलुरू मुझे अपना सा लगता, स्मृतियों से जूझता, फिर भी आगे बढ़ता, सबको स्वयं में समाहित करने के लिये, सागर सा विशाल और खारा।
जब कोई प्यारा नगर होता है तो लोग वहाँ रहना चाहते हैं। लोगों की वहाँ रहने की इच्छा से वह स्थान फलता फूलता है। अन्योन्याश्रयता का यह भाव निवासी और नगर, दोनों के लिये लाभप्रद रहता है, पर यह भाव एक सीमा तक ही वहन किया जा सकता है। यह नगर फला फूला, अर्थव्यवस्था में धन का प्रवाह हुआ, यहाँ के लोगों को काम मिला। संसाधन अधिक होते हैं, तो प्रतियोगिता कम हो जाती है, जीवटता कम हो जाती है। भारत और चीन के विद्यार्थियों का अपने अमेरिकी समकक्षों से अच्छा करने का भाव इसी प्रतियोगिता से, इसी जीवटता से आता है। उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों का प्रतियोगी परीक्षाओं में सब कुछ झोंक देने का भाव इसी जीवटता से आता है। जहाँ पर सरकारी नौकरी के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं हैं, यदि वहाँ के लोग जीवट नहीं रहेंगे, तो वे कहीं के नहीं रहेंगे। बहुधा आक्षेप लगता है कि यहाँ के लोग अधिक प्रतियोगी नहीं होते हैं और रेलवे व अन्य क्षेत्रों की सरकारी नौकरियों में देश के अन्य भागों से लोग आ जाते हैं। सुविधा और विकास का यह पक्ष विश्व के लिये भला ही नया न हो, पर मेरे लिये इस बात को समझने का अवसर बड़ी निकटता से मिला।
यहाँ पर बाहर के लोग आकर जीविका पाते हैं। आईटी क्षेत्र में आने वाले तीन तरह के लोग होते हैं। पहले वे, जो बंगलोर का उपयोग विदेश जाने के लिये लॉन्चपैड की तरह करते हैं। दूसरे वे, जो तनिक स्थिर होने और पहचान पाने के पश्चात अपने घर के आसपास की कोई नौकरी ढूढ़ते हैं। तीसरे वे, जो यहाँ बस जाते हैं। इसी प्रकार सरकारी नौकरी में यहाँ भर्ती होने वाले लोग भी दो मानसिकताओं में रहते हैं। अपने अधीनस्थ कई कर्मचारियों को देखा है, प्रथम तीन वर्ष तक घर वापस जाने की तड़पन धीरे धीरे यहाँ की सुविधाओं में बस जाने के भाव में बदल जाती है। जो यहाँ बस जाते हैं, उन परिवारों को पास से देखने और उनमें आया बदलाव जानने का अवसर मिला। उनके अनुसार यहाँ की भाषा भर सीख लेने से यहाँ रहने में आनन्द आने लगता है। भाषा नहीं भी सीख पाने से कोई विशेष कठिनाई नहीं होती है, पर रचने बसने के लिये भाषाई ज्ञान आवश्यक है। पूरे देश में संस्कृति एक सी है, केवल स्थानीय भाषा भर जान लेने से आप वहाँ के मूल निवासी जैसे हो जाते हैं। देश की एकता को पुष्ट करने का यह सूत्र आनन्द देने वाला रहा।
बंगलुरू आधुनिक भी है और मँहगा भी। सामान्य उपयोग की वस्तुयें और खाने पीने का सामान बड़ा मँहगा है यहाँ पर। आधुनिकता से दोनों पक्षों से परिचय में बंगलुरू का विशेष महत्व रहा है। तकनीक के क्षेत्र में क्या नया हो रहा है, इसके बारे में जानकारी रखना कठिन नहीं रहा मेरे लिये। यहाँ पर आने के बाद से घर के सारे यन्त्र बदले जा चुके हैं। घर में ही नहीं वरन कार्यक्षेत्र में आईटी संबंधित तकनीक के अनुप्रयोग देश के अन्य क्षेत्रों में भी अनुसरण योग्य समझे गये हैं। यह प्रशासनिक रूप से अत्यधिक संतोष का विषय रहा है मेरे लिये। आधुनिकता के नकारात्मक पक्ष भी हैं। जिस तरह धूप में रहने से उसके प्रति सहनशीलता विकसित हो जाती है, उसी प्रकार आधुनिकता के प्रति भी सहनशीलता विकसित हो गयी है। आधुनिक परिवेश देखकर अब मन भ्रमित नहीं होता है। जहाँ आधुनिकता के सकारात्मक पक्ष के उपयोग का महत्व और क्रियाविधि समझ आ गयी है, वहीं फ़ैशन आदि अन्य नकारात्मक पक्षों को महत्व न देना भी बंगलुरू से ही सीखा है।
संस्कृति की अन्य विधाओं की दृष्टि से बंगलुरू बड़ा ही गतिशील रहा है। यहाँ पर ही संगीत, नाटक, साहित्य और अभिनय के सशक्त हस्ताक्षरों को देखने का अवसर मिला। संस्कृति के इन पक्षों को साक्षात देखना अपने आप में ही एक अनुभव था। ब्लॉग लेखन का शुभारम्भ यहीं आने के साथ हुआ था। यहाँ पर लेखन का समय भी मिला और लेखन योग्य विषय भी। लेखन के लिये यहाँ वर्ष भर उपयुक्त समय रहता है। सम जलवायु में जब शरीर और मन को कष्ट न हो, तो दिन में किसी भी समय लिखा जा सकता है। यदि किसी लेखक को किसी पुस्तक पर कार्य करना हो, बंगलुरू एक उपयुक्त स्थान है। कुछ माह के लिये यहाँ आकर लेखकीय उत्पादकता बढ़ायी जा सकती है।
मेरे लिये ही नहीं, श्रीमतीजी के लिये भी बंगलुरू का प्रवास कूड़ा प्रबन्धन व बाग़वानी के लिये विशेष रहा। यहाँ की जलवायु में पौधों की कई प्रजातियाँ उन्होंने गमलों में लगा रखी थीं, आगामी नगरों में वे गमले इतने हरे भरे नहीं रहेंगे। बच्चों के लिये भी यहाँ के ५ वर्ष अपनों से तनिक भिन्न पारिवारिक पृष्ठभूमि के बच्चों के साथ घुलने मिलने वाले रहे। बच्चे वयस्कों से कहीं अधिक सहजता से घुल मिल जाते हैं। उनके विकास में इस तथ्य का योगदान वृहद रहेगा है। अपने बचपन की तुलना उनसे करता हूँ तो अन्तर सार्थक व स्पष्ट दिखता है।
विस्तार में जाता हूँँ तो अन्तहीन क्रम दिखता है जिनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित कर सकूँ। अभी बस इतना कह सकता हूँ, आभार बंगलुरू।
नोश्टाल्जिया - और बिछोह का स्मरण करते हुये नोश्टाल्जिया अच्छा है। पर कालांतर में एक अन-बायस्ड आकलन उस स्थान का करना बनता है।
ReplyDeleteमैने सन 80 के आसपास बैंगळुरू देखा था, फिर बाईस साल बाद और फिर बत्तीस साल बाद। और ौत्तरोत्तर एक पूर्णत: अपरिचित नगर को देख रहा था - आकार-प्रकार में ही नहीं, चरित्र में भी!
बंगलुरु , बहुत ही सुन्दर शहर है । वहॉ के लोग बहुत ही व्यवहार-कुशल एवम् अपनी संस्कृति के प्रति सचेत दिखाई देते हैं । मैं खाने के प्रति बहुत सजग रहती हूँ , मैं डरी हुई थी कि पता नहीं वहॉ भोजन कैसा मिलेगा पर मेरी आशंका गलत सिध्द हुई और मैंने केले के पत्ते मै भर-पेट भोजन किया और मन तृप्त हो गया । मुझे पडोसी शहर 'मैसूर' भी बहुत अच्छा लगा । देवी के मन्दिर और राज-महल में हम धन्टों घूमते रहे ।
ReplyDeleteक्या ऊँची अट्टालिकाओं के बीच अपनापन खोता नहीं जा रहा है
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको..... अब आपकी उत्कृष्ट लेखनी किसी नए शहर से परिचय करवाएगी यही आशा है ....
ReplyDeleteबेंगलुरु में आपके पाँच साल कि यात्रा सुखद रही और आपकी उत्कृष्ट लेखनी ने इसे और सम झने का मौका दिया मुझे। मैं भी पिछले पाँच छै साल से यहाँ रह रही हूँ और ये मैंने भी पाया कि मेरा भी क्रोध भी काफी हद तक कम हुआ है। और तो आपने इतना कुछ लिख ही दिया है किन्तु एक बात मई जरुर कहना चाहूंगी एक बड़े सरकारी अधिकारी और एक आम नागरिक कि सुविधाओ में काफी फर्क होता है एक आम नागरिक के लिए बहुत संघर्ष है यहा।
ReplyDeleteआपको नये शहर में जाने कि अनेक शुभकामनाये। हमे और दूसरे शहर को जानने का मिलेगा ब्लॉग के माध्यम से आशा करते है।
धन्यवाद
एक नगरवासी का अपने नगर के प्रति ऐसा विचारणीय और सार्थक अनुभव इस लेख में साफ़ झलकता है।
ReplyDeleteनये नगर में भी आप सपरिवार सहज रूप से निवास करे, यही कामना है हमारी।सादर।।
मेरा भतीजा 2 वर्ष रहा बैंगलुरु में, फिर एक वर्ष दिल्ली में। और अब लौट कर फिर बैंगलुरु में ही पहुंच गया। उसके माध्यम से काफी तारीफें सुनी हैं इस शहर की। देखें कब जाना हो पाता है। वैसे अगला पड़ाव कौन से शहर का है सर?
ReplyDeleteहम पिछले चालीस साल से यहाँ रह रहे हैं।
ReplyDelete1974 में बम्बई छोडकर यहाँ पहली बार आये थे। शहर इतना अचछा लगा कि यहीं बस जाने का निर्णय ले लिया।
अब quality of life में पतन हुआ है। पर अब हम शहर छोडकर कहीं जा भी नहीं सकते। रीटायर हो चुके हैं और अपना घर भी बना लिया है।
इन पाँच सालोँ में आपसे परिचय करके हम धन्य हुए। आपकी याद आती रहेगी। आशा करता हूँ कि भविष्य में पुनः भेँट होगी।
शुभकामनाएं
बंगलौर से बंगलुरू आपके सामने ही बना और आप के कर्मक्षेत्र व रचनाकर्म का केन्द्र भी।
ReplyDeleteभुला नहीं पाओगे यह नगर। नये स्थान के लिए शुभकामनाएँ।
भैय्या अब आप कहाँ जा रहे हैं?
ReplyDeleteबेटा के रहने से बंगलोर को जानने का मौका मुझे भी मिल रहा ..... और आपके आलेख से भी .....
ReplyDeleteआप नए शहर से भी परिचय कब करवाएँगे ,प्रतीक्षा रहेगी .....
हार्दिक शुभकामनायें
नए अनुभव कि तलाश ....
ReplyDeleteये बात सही कही आपने. स्थानीय भाषा का ज्ञान होने से वहां रहने का आनंद बढ़ जाता है. यहाँ बैंगलोर में घर खरीदने के बाद आजकल कन्नड़ सीखने में समय लगा रहा हूँ.
ReplyDeleteवैसे तो जहाँ भी कार्यक्षेत्र होता है ,वहाँ से जुडाव हो ही जाता है । लेकिन बैंगलुरु की बात सचमुच अलग है । चाहे बात मौसम की हो या हरेभरे वृक्षों व फूलों की और चाहे अपेक्षाकृत शान्त वातावरण की लेकिन इसी विशिष्टता ने अब इसकी मौलिकता को छीनना प्रारम्भ कर दिया है । आईटी शहर होने के कारण हर इंजीनियर बैंगलुरु को ही प्राथमिकता देता है । ग्वालियर से काफी दूरी होने के बावजूद बच्चे अब दिल्ली की तरफ नही आना चाहते । कारण बडे भाई प्रशान्त का इसरो में होने के साथ-साथ वहाँ का वातावरण भी है जो दूसरी जगहों से काफी अच्छा है । हालाँकि सन् 2004 से ( जब मैं पहली बार गई थी) अब तक वहाँ काफी परिवर्तन आ चुका है जो शहर की मौलिकता को खत्म कर रहा है लेकिन विकास में तो यह सब होना ही है न ।
ReplyDeleteआप बैंगलुरु छोड रहे हैं यह जानकर थोडा बुरा लगा क्योंकि मैं इस बार न केवल वहाँ हिन्दी के साहित्यकारों से मिलने की योजना बना रही हूँ बल्कि एक अवधि के लिये वहाँ रहने का विचार भी कर रही हूँ । खैर आप जहाँ भी रहेंगे वह स्थान आपका हो जाएगा । वह स्थान कहाँ होगा और इस शहर को कब छोडना है आशा है कि यह भी पता चल ही जाएगा ।
ab tak keval suna tha aaj aapki post ke madhyam se bahut hi kareeb se jan bhi liya bengluru ke bare me .nice post .
ReplyDeleteबंगलौर के बारे में आपसे नयी जानकारी मिली..शहर जब अपनी मौलिकता खोने लगता है तब लोग भी मशीनी से होने लगते हैं.
ReplyDeleteजहाँ कई सालों से रहते रहे हैं वहां से दिली जुड़ाव होना स्वाभाविक है
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (10-04-2014) को "टूटे पत्तों- सी जिन्दगी की कड़ियाँ" (चर्चा मंच-1578) पर भी है!
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर ।
ReplyDeleteआदमी का जुडाव होना स्वाभाविक ही है. अभी इस विषय पर एक और विस्तृत लेख की प्रतीक्षा है..
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति को ब्लॉग बुलेटिन की कल कि बुलेटिन राहुल सांकृत्यायन जी का जन्म दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteहमारे संस्थान का प्रधान कार्यालय वहीं है. लेकिन बहुत कम जाना हुआ बेंगलुरू. पिछले सफर में आपसे फ़ोन पर तो बात हुई थी, मिलना सम्भव नहीं पाया. जाने क्यों उस शहर ने मुझे कभी आकर्षित नहीं किया. मुझे दो बार वहाम तबादले के ऑफर मिले, लेकिन मैंने मना कर दिया. जबकि यही ऑफर कोलकाता या मुम्बई के लिये होते तो मना नहीं कर पाता. कारण यह नहीं कि दक्षिण भारत का महानगर है, बस कुछ अजाना सा.
ReplyDeleteख़ैर, मैं कहाँ अपनी बात ले बैठा. आपको नए स्थान की शुभकामनाएँ , जिसकी सूचना सर्वप्रथम आदरणीय ज्ञानदत्त जी से प्राप्त हुई थी!!
padhkar achcha laga.......
ReplyDeleteमेरी स्मृतियों में तो बैंगलोर ही है, बंगलुरू तो देखा ही नहीं.
ReplyDeleteबंगलोर 1974 में पहली बार जाना हुआ था उसके बाद वर्तमान तक आना जाना है, निरंतर नयी शक्ल में नजर आया, आपने बहुत ही सुंदर लिखा, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
कुछ शहर मन में बस जाते हैं...सुन्दर कृतज्ञता ज्ञापन...
ReplyDeleteविकास के साथ सभी महानगरों का रूप और स्वभाव बदल गया है, लेकिन कुछ तो अवश्य है जो उससे एक जुड़ाव पैदा कर देता है...
ReplyDeleteमंगल कामनाएं नए शहर के लिए !
ReplyDeleteबहुत सुंदर लिखा है ....
ReplyDeleteबंगलुरू की जो छवि मेरे मन में थी उसे आपने और परिष्कृत कर दिया। अपनी वातावरण के प्रति आपकी प्रेक्षण क्ष्मता और उसे व्यक्त करने का लाघव अद्भुत है। बहुत दिन बाद इस पोस्ट तक पहुँचा -हिन्दुस्तान अखबार के माध्यम से। आज संपादकीय पृष्ठ पर इसका अंश प्रकाशित हुआ है।
ReplyDeleteमेरी रीडिंग-लिस्ट से आपका ब्लॉग गूगल-प्लस के परिवर्तन में गायब हो था। अब दुबारा जोड़ लिया है। ब्लॉग जगत में आपके सक्रिय उपस्थिति और नियमित भ्रमण से ईर्ष्या होती है।
आशा है अगले पड़ाव के बारे में भी इन पृष्ठों पर शीघ्र बताइएगा।
वाह बहुत ही सुन्दर आलेख . बंगलुरु के बारे में इतनी सारी जानकारी उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteवयक्तित्व पर कब शहर अपना सशक्त हस्ताक्षर कर देता है उससे विलग होने पर अहसास होता है..
ReplyDelete"आगे शरीर का क्या होगा, यह तो भविष्य ही बतायेगा, पर इस सम तापमान ने मन पर एक विशेष प्रभाव डाला है। मन कहीं अधिक संतुलित और सम हो गया, क्रोध कम हो गया। अब दृष्टिगत असहजता विकार नहीं लाती है अपितु समाधान ढूढ़ने में तत्पर हो जाती है।समत्वता आच्छादित है, स्थितिप्रज्ञता की छिटकी सुगन्ध दे गया बंगलुरू। "
ReplyDelete"वाहनों की गति पैदल के समकक्ष हो गयी, साथ ही वाहनों की अधिकता पैदल यात्रियों की संरक्षा को भयग्रस्त कर बैठी। बाधित यातायात ने औरों की तरह मुझे भी दो गुण सिखाये, धैर्य और अनुशासन। धैर्य इसलिये कि झल्लाने से वाहन उड़ने नहीं लगेगा, अनुशासन इसलिये कि वह तोड़ने से आर्थिक दण्ड और लम्बे जाम। पाँच वर्षों में तो विश्चय ही कुछ माह ट्रैफिक सिग्नल पर बिताये हैं मैंने, पर इन दो गुणों की महत्ता समझने के लिये वह तर्पण भी स्वीकार है जीवन को।"
"जिस तरह धूप में रहने से उसके प्रति सहनशीलता विकसित हो जाती है, उसी प्रकार आधुनिकता के प्रति भी सहनशीलता विकसित हो गयी है। आधुनिक परिवेश देखकर अब मन भ्रमित नहीं होता है। जहाँ आधुनिकता के सकारात्मक पक्ष के उपयोग का महत्व और क्रियाविधि समझ आ गयी है, वहीं फ़ैशन आदि अन्य नकारात्मक पक्षों को महत्व न देना भी बंगलुरू से ही सीखा है।"
बंगलुरु शहर एक रिपोर्ताज़ प्रवीण जी की ज़ुबानी बेंगलुरु का सच्चा रोज़नामचा रहा। चैन्नई प्रवास के दौरान हम भी छटे छमाही चलाए आते थे अपने एक मित्र के यहां डेरा डालने। हालाकि की नीयत अब भी मुंबई से भी आने की रहती है आये भी हैं एक आदि बार। पकड़ता है यह शहर कॉस्मोपोलिटन याद आता है यहां का जेकफ्रूट ठेलों मेलों में बिकता।
प्रतीक्षा है कि कब आप बनारस से जुड़ते हैं, घुलते हैं और इसके बारे में अपना अनुभव लिखते हैं।..स्वागत है।
ReplyDeleteI'm away from blogs for quite sometimes due to lack of time but was reading a part of your this article in HT Dainik , today, Praveen ji. So, I decided to go to your blog and read the entire article. nicely written.
ReplyDeleteI wish you all the best for new posting and assignment.
Regards,
दिल में बस गया बंगलुरु..
ReplyDeleteआप भी बनारस चले?
ReplyDeleteएक शहर की आत्मकथा अच्छी लगी.
ReplyDeleteआशा है आपका नया आयाम और भी सुखद हो.
अरे...आप भी बैंगलोर छोड़ रहे अब??? क्यों छोड़ रहे???मना कर देना था न की नहीं जाऊँगा ये शहर छोड़कर :)
ReplyDeleteकितने दिनों के बाद आज आपके ब्लॉग के पोस्ट्स पढ़ रहा हूँ भैया...बता नहीं सकता कितना अच्छा लग रहा है..
जीवन गतिमान है, नये स्थानऔर नये परिवेश की शुभकामनाये।
ReplyDeleteमुस्कुराता हुआ, उत्साह से भरा चेहरा, बोलती सी ऑंखें, किसी भी विषय का ऐसा विश्लेषण, दिल करे सुनते रहिए। वैज्ञानिक जैसा दिमाग और दार्शनिक जैसा दिल. इतनी सारी खूबियां जिस आदमी में हों उसके शहर छोड़ देने पर सब कुछ वैसा ही रहे, यह कैसे मुमकिन है, कहीं बहुत गहरी उदासी है.हालाँकि यह तो होना ही था.
ReplyDeleteशुभकामनाएं।
विगत संस्मरण रोचक रहा। आगत की शुभकामनाएं।
ReplyDeleteखूबसूरत संस्मरण...वैसे भी बैंगलोर की तारीफ बहुत सुन चुकी हूँ...तो निश्चय ही वो शहर यादों में बसाने लायक होगा...|
ReplyDeleteविकास के साथ सभी महानगरों का रूप और स्वभाव बदल गया है...खूबसूरत संस्मरण
ReplyDeleteRecent Post...वक्त के साथ चलने की कोशिश -- वन्दना अवस्थी दुबे :)