12.4.14

लोकपथ

अनवरत सुख की पिपासा,
प्रकृति में उन्मुक्तता है ।
शान्ति को मन ढूढ़ता है,
प्रेम को मन मचलता है ।।

है विडम्बना मनुज की पर,
विचारों के समन्वय सुर,
क्यों नही मिल पा रहे हैं ?
स्वार्थरत हो चीखते हैं,
मदित होकर मनुज सारे,
बेसुरे हो गा रहे हैं ।

जीतने की कोशिशों में,
दास होते जा रहे हैं ।
कहाँ प्रभुता पा रहे है ?
तथ्यभेदी प्रचुरता है,
जागरण के आवरण में,
अन्त्य सोते जा रहे हैं ।

आगामी आशा भरमाती,
शंका शंकित होती जाती,
लोग किस पथ जा रहे हैं,
लोकपथ क्या आ रहे हैं?

29 comments:

  1. सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं

    ReplyDelete
  2. जहॉ प्रश्न है समाधान है है सब कुछ अपने ही भीतर ।

    ReplyDelete
  3. भीड़-तंत्र में यही होता है...सब अंधी दौड़, दौड़ रहे हैं...महाजनो येन पथे गत: सा पन्थः...फॉलो देम...

    ReplyDelete
  4. विचारणीय भाव..... जाने किस ओर जा रहे हैं

    ReplyDelete
  5. काश हम अपने भीतर के पथ को पहचान जाते
    तो शायद नहीं निश्चित हम भी महामानव कहलाते
    किन्तु विवशता यह हम खुद में ही खोकर रह जाते है
    अपनी अस्मिता को लाख कोशिश के बाद भी पहचान नहीं पाते हैं

    ReplyDelete
  6. बहुत अच्छी

    ReplyDelete
  7. जीतने की कोशिशों में,
    दास होते जा रहे हैं ।
    bahut sundar

    ReplyDelete
  8. बहुत बढ़िया सर..

    ReplyDelete
  9. आपकी लिखी रचना रविवार 13 अप्रेल 2014 को लिंक की जाएगी...............
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
    आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

    ReplyDelete
  10. लोग किस पथ जा रहे
    लोक पथ क्या आरहे---
    निराशाओं के बादल छटते ही हैं.
    परिवर्तन जीवन का ही एक पहलू है.

    ReplyDelete
  11. सुन्दर प्रस्तुति

    ReplyDelete
  12. जीतने की कोशिशों में,
    दास होते जा रहे हैं ।
    कहाँ प्रभुता पा रहे है ?
    - यही समझना शुरू कर दें लोग,तो स्थितियों में सुधार आने लगे .

    ReplyDelete
  13. इन विडंबनाओं के बीच भी कौन है जो पथ दिखला रहा है ..

    ReplyDelete
  14. बहुत सुन्दर ! :)

    ReplyDelete
  15. पथ दिग्भ्रमित कर रहा है।

    ReplyDelete
  16. विडंबनाओं का कोई छोर नहीं....बहुत सुन्दर

    ReplyDelete
  17. आगामी आशा भरमाती,
    शंका शंकित होती जाती,

    बहुत सुन्दर . . . .

    ReplyDelete
  18. बहुत उत्कृष्ट प्रस्तुति ..

    ReplyDelete
  19. एक शेर याद आ गया-
    मेरे जूनून का नतीजा जरूर निकलेगा।
    इसी स्याह समंदर से नूर निकलेगा।

    ReplyDelete
  20. बहुत ही उम्दा व उत्कृष्ट

    ReplyDelete
  21. यह दौर ऐसा ही है जहाँ कुछ समझ नहीं आता किस रास्ते पर कौन जाता है !
    समसामयिक रचना !

    ReplyDelete
  22. आपाधापी में भ्रम बढ़ते जा रहे हैं ....

    ReplyDelete
  23. है विडम्बना मनुज की पर,
    विचारों के समन्वय सुर,
    क्यों नही मिल पा रहे हैं ?
    स्वार्थरत हो चीखते हैं,
    मदित होकर मनुज सारे,
    बेसुरे हो गा रहे हैं ।

    है विडम्बना मनुज की पर,
    विचारों के समन्वय सुर,
    क्यों नही मिल पा रहे हैं ?
    स्वार्थरत हो चीखते हैं,
    मदित

    (मुदित ) होकर मनुज सारे,
    बेसुरे हो गा रहे हैं ।

    सुन्दर भाव प्रबंध बढ़िया रचना

    ReplyDelete
  24. निश्‍चय ही क्‍या हो रहा है लोग कहां जा रहे हैं।

    ReplyDelete
  25. This is really a tragedy of life that we are fragmented from inside. Our all energies will meet only when we are coordinated. But internal journey is not so easy. You have to cross all deserts, mountains, gorges and dangerous forests. But your start is welcome. Regards.

    ReplyDelete
  26. समाज ही भ्रमित हो गया है ....क्या कहा जाये ...??हम स्वयं उस भ्रम में न पड़ें तो देश के लिए बड़ा योगदान होगा ...!!

    ReplyDelete
  27. कविता के संकेत गहन हैं , असली भण्डार अब खुलेगा प्रवीण भाई, आप को काव्य की राह मुबारक़ .....

    ReplyDelete