अनवरत सुख की पिपासा,
प्रकृति में उन्मुक्तता है ।
शान्ति को मन ढूढ़ता है,
प्रेम को मन मचलता है ।।
है विडम्बना मनुज की पर,
विचारों के समन्वय सुर,
क्यों नही मिल पा रहे हैं ?
स्वार्थरत हो चीखते हैं,
मदित होकर मनुज सारे,
बेसुरे हो गा रहे हैं ।
जीतने की कोशिशों में,
दास होते जा रहे हैं ।
कहाँ प्रभुता पा रहे है ?
तथ्यभेदी प्रचुरता है,
जागरण के आवरण में,
अन्त्य सोते जा रहे हैं ।
आगामी आशा भरमाती,
शंका शंकित होती जाती,
लोग किस पथ जा रहे हैं,
लोकपथ क्या आ रहे हैं?
सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं
ReplyDeleteजहॉ प्रश्न है समाधान है है सब कुछ अपने ही भीतर ।
ReplyDeleteभीड़-तंत्र में यही होता है...सब अंधी दौड़, दौड़ रहे हैं...महाजनो येन पथे गत: सा पन्थः...फॉलो देम...
ReplyDeleteविचारणीय भाव..... जाने किस ओर जा रहे हैं
ReplyDeleteकाश हम अपने भीतर के पथ को पहचान जाते
ReplyDeleteतो शायद नहीं निश्चित हम भी महामानव कहलाते
किन्तु विवशता यह हम खुद में ही खोकर रह जाते है
अपनी अस्मिता को लाख कोशिश के बाद भी पहचान नहीं पाते हैं
बहुत अच्छी
ReplyDeleteजीतने की कोशिशों में,
ReplyDeleteदास होते जा रहे हैं ।
bahut sundar
बहुत बढ़िया सर..
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना रविवार 13 अप्रेल 2014 को लिंक की जाएगी...............
ReplyDeletehttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in
आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
आपाधापी है ..!
ReplyDeleteलोग किस पथ जा रहे
ReplyDeleteलोक पथ क्या आरहे---
निराशाओं के बादल छटते ही हैं.
परिवर्तन जीवन का ही एक पहलू है.
सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteजीतने की कोशिशों में,
ReplyDeleteदास होते जा रहे हैं ।
कहाँ प्रभुता पा रहे है ?
- यही समझना शुरू कर दें लोग,तो स्थितियों में सुधार आने लगे .
इन विडंबनाओं के बीच भी कौन है जो पथ दिखला रहा है ..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ! :)
ReplyDeleteपथ दिग्भ्रमित कर रहा है।
ReplyDeleteविडंबनाओं का कोई छोर नहीं....बहुत सुन्दर
ReplyDeleteआगामी आशा भरमाती,
ReplyDeleteशंका शंकित होती जाती,
बहुत सुन्दर . . . .
उम्दा प्रस्तुति ...!
ReplyDeleteRECENT POST - आज चली कुछ ऐसी बातें.
बहुत उत्कृष्ट प्रस्तुति ..
ReplyDeleteएक शेर याद आ गया-
ReplyDeleteमेरे जूनून का नतीजा जरूर निकलेगा।
इसी स्याह समंदर से नूर निकलेगा।
बहुत ही उम्दा व उत्कृष्ट
ReplyDeleteयह दौर ऐसा ही है जहाँ कुछ समझ नहीं आता किस रास्ते पर कौन जाता है !
ReplyDeleteसमसामयिक रचना !
आपाधापी में भ्रम बढ़ते जा रहे हैं ....
ReplyDeleteहै विडम्बना मनुज की पर,
ReplyDeleteविचारों के समन्वय सुर,
क्यों नही मिल पा रहे हैं ?
स्वार्थरत हो चीखते हैं,
मदित होकर मनुज सारे,
बेसुरे हो गा रहे हैं ।
है विडम्बना मनुज की पर,
विचारों के समन्वय सुर,
क्यों नही मिल पा रहे हैं ?
स्वार्थरत हो चीखते हैं,
मदित
(मुदित ) होकर मनुज सारे,
बेसुरे हो गा रहे हैं ।
सुन्दर भाव प्रबंध बढ़िया रचना
निश्चय ही क्या हो रहा है लोग कहां जा रहे हैं।
ReplyDeleteThis is really a tragedy of life that we are fragmented from inside. Our all energies will meet only when we are coordinated. But internal journey is not so easy. You have to cross all deserts, mountains, gorges and dangerous forests. But your start is welcome. Regards.
ReplyDeleteसमाज ही भ्रमित हो गया है ....क्या कहा जाये ...??हम स्वयं उस भ्रम में न पड़ें तो देश के लिए बड़ा योगदान होगा ...!!
ReplyDeleteकविता के संकेत गहन हैं , असली भण्डार अब खुलेगा प्रवीण भाई, आप को काव्य की राह मुबारक़ .....
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