30.4.14

बचपन

बचपन फिर से जाग उठा है,
सुख-तरंग उत्पादित करने,
ऊर्जा का उन्माद उठा है ।

वे क्षण भी कितने निश्छल थे,
चंचलता का छोर नहीं था ।
जीवन का हर रूप सही था,
व्यथा युक्त कोई भोर नहीं था ।।१।।

अनुपस्थित था निष्फल चिन्तन,
शान्ति अथक थी, चैन मुक्त था ।
घर थी सारी ज्ञात धरा तब,
दम्भ-युक्त अज्ञान दूर था  ।।२।।
 
व्यक्त सदा मन की अभिलाषा,
छलना तब व्यवहार नहीं था ।
मन में दीपित मुक्त दीप था,
अन्धकार का स्याह नहीं था ।।३।।

अनुभव का अंबार नहीं यदि,
ऊर्जा का हर कुम्भ भरा था ।
नहीं उम्र के वृहद भवन थे,
हृदय क्षेत्र विस्तार बड़ा था ।।४।।

थे अनुपम वे ज्ञानरहित क्षण,
अन्तः अपना भरा हुआ था ।
आज हृदय है खाली खाली,
ज्ञान कोष में अनल भरा है ।।५।।

26.4.14

कविता झरती

आनन्द रहित मन की तृष्णा, जब मधु का प्याला कहती है,
जब यादों के मद ज्वारों की, सारी सीमायें ढहती हैं,
जब मेरे सोये अन्तः में इच्छायें रिक्त बहकती हैं,
तब मन रूपी इस सरिता में भावों की धारा बहती है ।

तो उमड़ रही इस धारा से, छन्दों का अमृत कर निर्मित,
मैं उसको जीवन के सुन्दर रस-कलशों में कर एकत्रित,
मन की सारी पीड़ाआें के उपचार हेतु ही रखता हूँ ।
और,
मेरी यह कविता, मेरे ही उन निष्कर्षों की साक्षी है ।।

23.4.14

मेरी कविता

मेरी कविता है आज दुखी,
शायद मेरी ही गलती है ।
कुछ है स्वभाव भी रूखा सा,
कुछ रागें क्षुब्ध मचलती हैं ।।

मैं कृतघ्न हूँ, सुख की मदिरा,
खुद ही पीकर मस्त हो गया ।
सुख-यात्रा में छोड़ तुझे,
तेरे संग केवल दुख बाँटे हैं ।।

असह्य वेदना के घावों ने,
आश्रय तुझसे ही पाया है ।
मेरी एक सिसकी ने तेरा,
ढेरों अश्रु बहाया है ।
पर तूने जाने कितने सावन एकाकी ही काटे हैं ।
मैं कृतघ्न हूँ, जीवन में तेरे संग केवल दुख बाँटे हैं ।।१।।

गोद तुम्हारी मेरे सर की,
चिन्ता सब हर लेती है ।
तेरे वक्षस्थल की धड़कन,
प्रबल सान्त्वना देती है ।
पंथों के दिग्भ्रम में तेरे ही शब्द मुझे थपकाते हैं ।
ना जाने क्यों, जीवन में तेरे संग केवल दुख बाँटे हैं ।।२।।

अब लगता तेरे संग बैठूँ,
मैं बचे हुये सब दिन काटूँ ।
तेरे मधुवन में आकर के,
मिलजुल कर सारे सुख बाटूँ ।
बस तेरे दूर चले जाने के, कल्पित भाव सताते हैं ।
करना प्रायश्चित क्योंकि तेरे संग केवल दुख बाँटे हैं ।।३।।

(बहुत दिन हुये, लेखन से विशेषकर कविता से दूर हूँ, पूर्वव्यक्त भय मन में उभर आया)

19.4.14

जीवनी अलमस्त हो

मगन हो अपने विचारों के किनारों में,
जीवनी अलमस्त हो चुपचाप बहती जा रही थी ।
कहीं पर गाम्भीर्य की गहराइयों का,
और उत्श्रंखल विनोदों का कहीं मिश्रण बनी थी ।
कहीं पर हो संकुचित व्यवधान से,
और समतल में कहीं विस्तार की जननी बनी थी ।
वक्रता के थे किनारे इस जगत में,
काटती रहती उन्हें, उस वक्रता से रहित करती ।
मार्ग के सब अनुभवों का रस समेटे,
हो बड़ी निश्चिन्त वह जीवन समर में जा रही थी ।

किन्तु तब नियमित कलापों से व्यथित हो,
मनदशा रसहीनता को अग्रसर थी ।
इस असत भू के हृदय में सत्य क्या है,
मनस सागर में दबी इच्छा प्रबल थी ।।

व्यक्ति का जीवन विरह है,
इस विरह का सत्य क्या है ?
सतत मानव से विलग उस,
तत्व का अस्तित्व क्या है ?
शान्त सब जीवन बिताते,
किन्तु उसमें सत्व क्या है ?
अन्ध जीवन की दशा पर,
सत्य का वक्तव्य क्या है ?

ज्ञान की हैं कठिन राहें,
तर्क के कंकड़ बिछे हैं,
पथ प्रदर्शक भी नहीं है,
सत्य-चिन्तन चिर असम्भव ।

इन विचारों के प्रचण्डित धुन्ध में,
जीवनी भी पन्थ अपना खो रही है ।
बहु-प्रतीक्षित सत्य भी यदि सरल न हो,
तो मुझे उस सत्य की इच्छा नहीं है ।।

जीवनी अलमस्त हो चुपचाप बहना चाहती है ।
चित्र साभार - freehdw.com

16.4.14

मध्यमार्गी पथ असाध्य है

आदर्शों के मरुथल में, जीवन कष्टों का छोर नहीं है,
भ्रष्टाचारी दलदल में आ बचा सके, कोई जोर नहीं है ।
इन दो विषम उपायों से जीवन-रजनी में भोर नहीं है,
मध्यमार्गी पथ असाध्य है, अनुभव-युक्त किशोर नहीं है ।।

अन्तः दीपक जला हुआ है,
राग द्वेष से घिरा हुआ है,
मानव क्या निष्कर्ष निकाले, नियत बुद्धि का ठौर नहीं है ।
मध्यमार्गी पथ असाध्य है, अनुभव-युक्त किशोर नहीं है ।।१।।

संस्कार की सतोपासना,
औ’ समाज की कुटिल वासना,
स्वयं निरन्तर संग्रामित, जीवन निश्चय की ओर नहीं है ।
मध्यमार्गी पथ असाध्य है, अनुभव-युक्त किशोर नहीं है ।।२।।

आदर्शों का ध्येय मिला है,
आत्मोन्नति का पंथ खुला है,
पर समाज में जीवन यह, कटु सम्बन्धों की डोर नहीं है ।
मध्यमार्गी पथ असाध्य है, अनुभव-युक्त किशोर नहीं है ।।३।।

(एक किशोर के रूप में लिखी यह कविता आज पुनः याद आ गयी, पता नहीं क्यों?)

12.4.14

लोकपथ

अनवरत सुख की पिपासा,
प्रकृति में उन्मुक्तता है ।
शान्ति को मन ढूढ़ता है,
प्रेम को मन मचलता है ।।

है विडम्बना मनुज की पर,
विचारों के समन्वय सुर,
क्यों नही मिल पा रहे हैं ?
स्वार्थरत हो चीखते हैं,
मदित होकर मनुज सारे,
बेसुरे हो गा रहे हैं ।

जीतने की कोशिशों में,
दास होते जा रहे हैं ।
कहाँ प्रभुता पा रहे है ?
तथ्यभेदी प्रचुरता है,
जागरण के आवरण में,
अन्त्य सोते जा रहे हैं ।

आगामी आशा भरमाती,
शंका शंकित होती जाती,
लोग किस पथ जा रहे हैं,
लोकपथ क्या आ रहे हैं?

9.4.14

आभार बंगलुरू

पहली बार जब १९९३ में बंगलुरू आया था तो मन अभिभूत हो गया था, हर ओर हरा भरा, हर ओर पेड़ ही पेड़। सुदृढ़ नगरीय बससेवा होने पर भी मित्रों के साथ प्रतिदिन ६-७ किमी का स्वच्छंद पैदल चलना हो ही जाता था। अच्छा लगता था, बतियाना, गपियाना और गहरी साँसों में प्रकृति की सोंधी गंध को भर लेना। उस समय यह सेवानिवृत लोगों का प्रतिष्ठित आधार बन चुका था, पर आईटी के उत्थानपथ पर अपनी शैशवास्था में था। वह प्रवास भले ही ६ माह का रहा हो पर मन में बंगलुरु के प्रति एक विशिष्ट आकर्षण बना रहा। १६ वर्ष बाद जब रेलवे ने यहाँ मुझे अपनी सेवायें देने का अवसर दिया तो मन ही मन ईश्वर को मन की अतृप्त इच्छाओं को मान देने के लिये धन्यवाद दिया और सपरिवार यहाँ रहने आ गया। पता ही नहीं चला कि ५ वर्ष कब निकल गये और आज, जब यहाँ से विदा लेने का समय आ रहा है तो मन यहाँ बिताये समय का मूल्यांकन करने में लगा हुआ है। 

सोचा नहीं था कि यह नगर मन में इतना बस जायेगा। हर नगर का एक व्यक्तित्व होता है, वहाँ रहना उससे नित व्यवहार करने सा है। उस नगरीय व्यक्तित्व के विकास में हम अपना कुछ योगदान दे पायें, न दे पायें, पर उस नगर का प्रभाव हमारे व्यक्तित्व पर व्यापक होता है। उस नगर में रहना उस प्रभाव को जीवन में अंगीकृत करने सा है, कुछ अस्थायी सा, कुछ स्थायी सा। यह तो समय ही बतायेगा कि आगामी नगर अपना स्थान बनाते समय बंगलुरू के कितने तत्वों को विस्थापित कर देगा, पर यहाँ से जाते समय अपनी तुलना अपने ही पाँच वर्ष पहले के व्यक्तित्व से करता हूँ तो अन्तर स्पष्ट दिखता है। कई अन्य कारक भी रहे होंगे इस अन्तर के, पर उसमें बंगलुरू का भाग अधिकतम है।

शरीर जो झेलता है, मन भी वैसा बनने लगता है। यही कारण है कि किसी स्थान की जलवायु व्यक्तित्व का बाहरी आकार भी गढ़ती है और व्यवहार की मानसिकता भी। बंगलुरू का तापमान सम है, पर्याप्त वर्षा भी होती है यहाँ। आप आश्चर्य करेंगे कि पिछले पाँच वर्षों में मैंने एक बार भी मुझे स्वेटर नहीं पहना है, सुबह की हवाओं से बचने के लिये अधिकतम ट्रैकसूट का अपर। लोग कहते हैं कि सम तापमान शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम करता है और वातावरण में जीवाणुओं को पनपने में सहायता करता है। पूर्ववर्ती स्थानों के विषम तापमानों से तपे और सिकुड़े शरीर की सहनशीलता का प्रताप था या सौभाग्य कि शरीर ने कोई विशेष कष्ट नहीं दिया यहाँ पर। आगे शरीर का क्या होगा, यह तो भविष्य ही बतायेगा, पर इस सम तापमान ने मन पर एक विशेष प्रभाव डाला है। मन कहीं अधिक संतुलित और सम हो गया, क्रोध कम हो गया। अब दृष्टिगत असहजता विकार नहीं लाती है अपितु समाधान ढूढ़ने में तत्पर हो जाती है।समत्वता आच्छादित है, स्थितिप्रज्ञता की छिटकी सुगन्ध दे गया बंगलुरू। 

अट्टालिकाओं से शोभित बंगलुरू
२० वर्ष पहले के बंगलुरू में इतना यातायात नहीं था। बंगलुरू कभी भी राजधानी के रूप में योजना बनाकर बसाया नहीं गया। सेवानिवृत्ति के बाद मानव जीवन को जो आवश्यक होता है, वे सारे अनिवार्य तत्व उपस्थित थे यहाँ। कहते हैं कि पुष्प का सौन्दर्य मधुमक्खी को आकर्षित करता है और उस आकर्षण से ही उसके मधु का शोषण भी होता है। अच्छी सम जलवायु और हरा भरा वातावरण, यहाँ की जनसंख्या बढ़ने के कारक सदा से थे, पर आईटी ने उस प्रक्रिया को तीव्रतम कर दिया। जो बढ़ोत्तरी आधी शताब्दी में होनी थी, वह दो दशकों में ही हो गयी। वाहनों की अधिकाधिक संख्या और सड़कों की सीमित चौड़ाई, पहले तो यहाँ के पेड़ों को लील गयी और फिर यहाँ का यातायात बाधित करने लगी। वाहनों की गति पैदल के समकक्ष हो गयी, साथ ही वाहनों की अधिकता पैदल यात्रियों की संरक्षा को भयग्रस्त कर बैठी। बाधित यातायात ने औरों की तरह मुझे भी दो गुण सिखाये, धैर्य और अनुशासन। धैर्य इसलिये कि झल्लाने से वाहन उड़ने नहीं लगेगा, अनुशासन इसलिये कि वह तोड़ने से आर्थिक दण्ड और लम्बे जाम। पाँच वर्षों में तो विश्चय ही कुछ माह ट्रैफिक सिग्नल पर बिताये हैं मैंने, पर इन दो गुणों की महत्ता समझने के लिये वह तर्पण भी स्वीकार है जीवन को।

अच्छी राजधानी बनने के जीतोड़ प्रयास में यह नगर अपनी मौलिकता खो बैठा है। एक स्वच्छंदता का भाव जो दो दशक पहले यहाँ की सोंधी हवा में मुझे मिला था, उसका स्थान कॉन्क्रीट मिश्रित गुरुत्व और रूक्षता ने ले लिया है। ठीक वैसा ही कुछ परिवर्तन मेरे व्यवहार में भी हुआ। बचपन की स्वच्छंदता और युवावस्था की ऊर्जा के स्थान पर व्यवहार में गृहस्वामी और बड़े अधिकारी का गांभीर्य आ गया। मुझे जब भी स्मृतियों का बंगलुरू ढूढ़ना होता था तो किसी हरे भरे बड़े पेड़ की छाँह निहारने लगता, उसकी छाँह में मुझे मेरा बचपन भी दिख जाता। नित विकास और विस्तार करता बंगलुरू मुझे अपना सा लगता, स्मृतियों से जूझता, फिर भी आगे बढ़ता, सबको स्वयं में समाहित करने के लिये, सागर सा विशाल और खारा।

जब कोई प्यारा नगर होता है तो लोग वहाँ रहना चाहते हैं। लोगों की वहाँ रहने की इच्छा से वह स्थान फलता फूलता है। अन्योन्याश्रयता का यह भाव निवासी और नगर, दोनों के लिये लाभप्रद रहता है, पर यह भाव एक सीमा तक ही वहन किया जा सकता है। यह नगर फला फूला, अर्थव्यवस्था में धन का प्रवाह हुआ, यहाँ के लोगों को काम मिला। संसाधन अधिक होते हैं, तो प्रतियोगिता कम हो जाती है, जीवटता कम हो जाती है। भारत और चीन के विद्यार्थियों का अपने अमेरिकी समकक्षों से अच्छा करने का भाव इसी प्रतियोगिता से, इसी जीवटता से आता है। उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों का प्रतियोगी परीक्षाओं में सब कुछ झोंक देने का भाव इसी जीवटता से आता है। जहाँ पर सरकारी नौकरी के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं हैं, यदि वहाँ के लोग जीवट नहीं रहेंगे, तो वे कहीं के नहीं रहेंगे। बहुधा आक्षेप लगता है कि यहाँ के लोग अधिक प्रतियोगी नहीं होते हैं और रेलवे व अन्य क्षेत्रों की सरकारी नौकरियों में देश के अन्य भागों से लोग आ जाते हैं। सुविधा और विकास का यह पक्ष विश्व के लिये भला ही नया न हो, पर मेरे लिये इस बात को समझने का अवसर बड़ी निकटता से मिला।

यहाँ पर बाहर के लोग आकर जीविका पाते हैं। आईटी क्षेत्र में आने वाले तीन तरह के लोग होते हैं। पहले वे, जो बंगलोर का उपयोग विदेश जाने के लिये लॉन्चपैड की तरह करते हैं। दूसरे वे, जो तनिक स्थिर होने और पहचान पाने के पश्चात अपने घर के आसपास की कोई नौकरी ढूढ़ते हैं। तीसरे वे, जो यहाँ बस जाते हैं। इसी प्रकार सरकारी नौकरी में यहाँ भर्ती होने वाले लोग भी दो मानसिकताओं में रहते हैं। अपने अधीनस्थ कई कर्मचारियों को देखा है, प्रथम तीन वर्ष तक घर वापस जाने की तड़पन धीरे धीरे यहाँ की सुविधाओं में बस जाने के भाव में बदल जाती है। जो यहाँ बस जाते हैं, उन परिवारों को पास से देखने और उनमें आया बदलाव जानने का अवसर मिला। उनके अनुसार यहाँ की भाषा भर सीख लेने से यहाँ रहने में आनन्द आने लगता है। भाषा नहीं भी सीख पाने से कोई विशेष कठिनाई नहीं होती है, पर रचने बसने के लिये भाषाई ज्ञान आवश्यक है। पूरे देश में संस्कृति एक सी है, केवल स्थानीय भाषा भर जान लेने से आप वहाँ के मूल निवासी जैसे हो जाते हैं। देश की एकता को पुष्ट करने का यह सूत्र आनन्द देने वाला रहा।

बंगलुरू आधुनिक भी है और मँहगा भी। सामान्य उपयोग की वस्तुयें और खाने पीने का सामान बड़ा मँहगा है यहाँ पर। आधुनिकता से दोनों पक्षों से परिचय में बंगलुरू का विशेष महत्व रहा है। तकनीक के क्षेत्र में क्या नया हो रहा है, इसके बारे में जानकारी रखना कठिन नहीं रहा मेरे लिये। यहाँ पर आने के बाद से घर के सारे यन्त्र बदले जा चुके हैं। घर में ही नहीं वरन कार्यक्षेत्र में आईटी संबंधित तकनीक के अनुप्रयोग देश के अन्य क्षेत्रों में भी अनुसरण योग्य समझे गये हैं। यह प्रशासनिक रूप से अत्यधिक संतोष का विषय रहा है मेरे लिये। आधुनिकता के नकारात्मक पक्ष भी हैं। जिस तरह धूप में रहने से उसके प्रति सहनशीलता विकसित हो जाती है, उसी प्रकार आधुनिकता के प्रति भी सहनशीलता विकसित हो गयी है। आधुनिक परिवेश देखकर अब मन भ्रमित नहीं होता है। जहाँ आधुनिकता के सकारात्मक पक्ष के उपयोग का महत्व और क्रियाविधि समझ आ गयी है, वहीं फ़ैशन आदि अन्य नकारात्मक पक्षों को महत्व न देना भी बंगलुरू से ही सीखा है।

संस्कृति की अन्य विधाओं की दृष्टि से बंगलुरू बड़ा ही गतिशील रहा है। यहाँ पर ही संगीत, नाटक, साहित्य और अभिनय के सशक्त हस्ताक्षरों को देखने का अवसर मिला। संस्कृति के इन पक्षों को साक्षात देखना अपने आप में ही एक अनुभव था। ब्लॉग लेखन का शुभारम्भ यहीं आने के साथ हुआ था। यहाँ पर लेखन का समय भी मिला और लेखन योग्य विषय भी। लेखन के लिये यहाँ वर्ष भर उपयुक्त समय रहता है। सम जलवायु में जब शरीर और मन को कष्ट न हो, तो दिन में किसी भी समय लिखा जा सकता है। यदि किसी लेखक को किसी पुस्तक पर कार्य करना हो, बंगलुरू एक उपयुक्त स्थान है। कुछ माह के लिये यहाँ आकर लेखकीय उत्पादकता बढ़ायी जा सकती है।

मेरे लिये ही नहीं, श्रीमतीजी के लिये भी बंगलुरू का प्रवास कूड़ा प्रबन्धन व बाग़वानी के लिये विशेष रहा। यहाँ की जलवायु में पौधों की कई प्रजातियाँ उन्होंने गमलों में लगा रखी थीं, आगामी नगरों में वे गमले इतने हरे भरे नहीं रहेंगे। बच्चों के लिये भी यहाँ के ५ वर्ष अपनों से तनिक भिन्न पारिवारिक पृष्ठभूमि के बच्चों के साथ घुलने मिलने वाले रहे। बच्चे वयस्कों से कहीं अधिक सहजता से घुल मिल जाते हैं। उनके विकास में इस तथ्य का योगदान वृहद रहेगा है। अपने बचपन की तुलना उनसे करता हूँ तो अन्तर सार्थक व स्पष्ट दिखता है।

विस्तार में जाता हूँँ तो अन्तहीन क्रम दिखता है जिनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित कर सकूँ। अभी बस इतना कह सकता हूँ, आभार बंगलुरू।

चित्र साभार - www.spicejet.com

5.4.14

गाय और आयुर्वेद

एक बड़ी पुरानी कहावत है, हम गाय नहीं पालते, गाय हमें पालती है। हम भी गाय द्वारा ११ वर्ष पालित रहे हैं। गाय का घर में होना स्वास्थ्य के लिये एक वरदान है। खाने के लिये भरपूर दूध, दही, मठ्ठा, मक्खन और घी। खेत के लिये गोबर और ईँधन के रूप में गोबर के उपले। गोमूत्र से कीटनाशक और गाय के बछड़े से खेत जोतने के लिये बैल। खेत में उपजे गेहूँ से ही चोकर, अवशेष से भूसा और सरसों से खली। अपने आप में परिपूर्ण आर्थिक व्यवस्था का परिचायक है, गाय का घर में होना। एक तृण भी व्यर्थ नहीं जाता है गाय केन्द्रित अर्थव्यवस्था में। पहले के समय यही कारण रहा होगा कि देश का किसान कृषिकार्य में केवल अन्न बेचने ही नगर आता था, उसे कभी कुछ खरीदने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। किसान सम्पन्न था, कृषिकर्म सर्वोत्तम माना जाता था। 

धीरे धीरे अंग्रेजों ने देश की रीढ़ माने जाने वाले कृषकवर्ग को तोड़ दिया, सहन करने से अधिक लगान लगाकर, भूमि अधिग्रहण कानून बनाकर, उपज का न्यून मूल्य निर्धारित करके और भिन्न तरह के अन्यायपूर्ण कानून बना कर। किसी समय चीन के साथ मिलकर भारत विश्व का ७० प्रतिशत अन्न उत्पादन करता था, अंग्रेजों के शासनकाल उसी भारत में १३ बड़े अकाल पड़े, करोड़ों लोगों की मृत्यु हुयी। कृषिकर्म अस्तव्यस्त हो गया, न खेतों में किसी का लगाव रहा और न ही उसकी संरक्षक गाय को संरक्षण मिला, वह कत्लखाने भेजी जाने लगी। १९४३ के बंगाल के अकाल ने देश को झकझोर कर रख दिया था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद प्राथमिकता अन्न उत्पादन पर आत्मनिर्भर बनने की थी, हरित क्रान्ति के माध्यम से हम सफल भी हुये, अन्न आयातक से निर्यातक बन गये। इस पूरी प्रक्रिया में संकर बीज, रासायनिक खाद और कीटनाशक आ गये, गाय केन्द्रित कृषिव्यवस्था बाजार केन्द्रित व्यवस्था में परिवर्तित हो गयी। तीन चार दशक तक रासायनिक खाद और कीटनाशक के प्रयोग ने भूमि की उर्वराशक्ति छीन ली है, आसपास के जल को भी दूषित कर दिया। साथ ही साथ तीक्ष्ण रासायनों से दूषित खाद्यान्न ने हमारे स्वास्थ्य पर भी अत्यन्त नकारात्मक प्रभाव डाला है। 

कृषि व्यवस्था से गाय की अनुपस्थिति ने न केवल भूमि को उसकी उत्पादकता से वंचित किया, वरन हमारे स्वास्थ्य में भी कैंसर आदि जैसे असाध्य रोगों को भर दिया। यही चिन्ता रही होगी कि विश्व आज प्राकृतिक या ऑर्गेनिक खेती की ओर मुड़ रहा है और इस प्रकार उत्पन्न खाद्यान्न और शाकादि सामान्य से कहीं अधिक मँहगे मूल्य में मिलते हैं।

गाय का पौराणिक चित्र, सब देव इसमें बसते हैं
जो महत्व गाय का हमारी कृषि व्यवस्था में रहा है और जिसके कारण हमारा स्वास्थ्य संरक्षित रहने की निश्चितता थी, वही महत्व गाय का आयुर्वेद में भी रहा है। आयुर्वेद में गाय के सारे उत्पादों को महत्व का माना गया है, दूध, दही, छाछ, मक्खन, घी, गोमूत्र और गोबर। आयुर्वेद में आठ तरह का दूध वर्णित है और उसमें सर्वोत्तम दूध का माना गया है। यह दूध आँखों, हृदय और मस्तिष्क के लिये अत्यन्त उपयोगी है। दूध रस और विपाक में मधुर, स्निग्ध, ओज और धातुओं को बढाने वाला, वातपित्त नाशक, शुक्रवर्धक, कफवर्धक, गुरु और शीतल होता है। गाय का दूध पचाने में आसान होता है, माँ के दूध के पश्चात बच्चों के लिये गाय का ही दूध सबसे अच्छा माना गया है। देशी गाय का दूध जर्सी गाय से कहीं अच्छा होता है, यह शरीर में प्रतिरोधक क्षमता, बुद्धि और स्मरणशक्ति बढ़ाता है। गाय के दूध में विटामिन डी होता है जो कैल्शियम के अवशोषण में सहायता करता है।

जो गायें आलस्य कर बैठी रहती हैं, उनका दूध भी गाढ़ा रहता है, जैसे जर्सी गायें, पर उनमें औषधीय गुण कम रहते हैं। जो गायें चरने जाती हैं, उनका दूध थोड़ा पतला होता है, पर वह बहुत ही अच्छा होता है, उसमें औषधीय गुण अधिक होते हैं। यही कारण है कि सुबह का दूध थोड़ा गाढ़ा होता है, शाम को चर के आने के बाद थोड़ा पलता होता है। हरे पत्ते आदि खाने से वह और भी अच्छा हो जाता है। बकरी छोटी छोटी पत्तियाँ खाती हैं, उसके दूध में औषधीय गुण आ जाते हैं। चरने वाली देशी गाय का सर्वोत्तम होती है।

दही तनिक खट्टा होता है, बाँधने के गुण से युक्त होता है, पचाने में दूध से अधिक गरिष्ठ, वातनाशक, कफपित्तवर्धक और धातुवर्धक होता है। छाछ या मठ्ठा आयुर्वेद की दृष्टि से और भी लाभकारी होता है, यह कफनाशक और पेट के कई रोगों में अत्यन्त प्रभावी होता है। मक्खन आयुर्वेदीय दृष्टि से कई गुणों से पूर्ण रहता है, यह घी जैसा गरिष्ठ नहीं होता है पर रोटी आदि में लगा कर खाया जा सकता है। घी का प्रयोग आयुर्वेद में विस्तृत रूप से किया जाता है। दूध के इस रूप को अधिक समय तक संरक्षित रखा जा सकता है तथा पंचकर्म में स्नेहन आदि से लेकर औषधियाँ बनाने में इसका उपयोग होता है। यही नहीं, भोजन को स्वादिष्ट बनाने के कारण यह प्रतिदिन पर्याप्त मात्रा में खाया जा सकता है। घी सर्वश्रेष्ठ पित्तनाशक माना जाता है।

जो गाय दूध न भी देती हो, वह भी आयुर्वेद की दृष्टि से अत्यन्त लाभदायक है। गोबर को कृषि कार्यों में उपयोग करने के अतिरिक्त गोबर के ऊपर बनायी भस्मों की क्षमता कोयले पर बनायी भस्मों से कहीं अधिक होती है। वहीं दूसरी ओर गोमूत्र का होना हमारे लिये वरदान है। गोमूत्र वात और कफ को तो समाप्त कर देता है, पित्त को कुछ औषधियों के साथ समाप्त कर देता है। पानी के अतिरिक्त  इसमें कैल्शियम, आयरन, सल्फर, सिलीकॉन, बोरॉन आदि है। यही तत्व हमारे शरीर में हैं, यही तत्व मिट्टी में भी हैं, यह प्रकृति के सर्वाधिक निकट है, संभवतः इसीलिये सर्वाधिक उपयोगी भी। देशी गाय, जो अधिक चैतन्य रहती हो, उसका मूत्र सर्वोत्तम है। उसमें पाया जाने वाला सल्फर त्वचा के रोगों के लिये अत्यन्त उपयोगी है। खाँसी के रोगों में भी गोमूत्र बहुत लाभदायक है। टीबी के रोगियों पर किये प्रयोगों से अत्यधिक लाभ मिले हैं, यह शरीर की प्रतिरोधक शक्ति बहुत अधिक बढ़ा देता है। गोमूत्र के प्रयोग कैंसर पर भी चल रहे हैं। जब शरीर में कर्क्यूमिन नामक रसायन कम होता है तो कैंसर हो जाता है। यह रसायन हल्दी के अतिरिक्त गोमूत्र में भरपूर मात्रा में है। इसका सेवन करने में लोग भले ही नाक भौं सिकोड़ते हों, पर वैद्य आज भी गोमूत्र अपनी विभिन्न औषधियों में देते हैं। आँख और कान के रोगों में गोमूत्र का बहुत लाभ है, क्योंकि आँख के रोग आँख में कफ बढ़ने से होता है। गाय का पंचामृत आयुर्वेद के अनुसार अत्यधिक उपयोगी है। 

कुतर्क हो सकता है कि यदि यह इतना ही उपयोगी होता तो गाय उसे छोड़ती ही क्यों, अपने उपयोग में क्यों नहीं ले आती। गाय को तभी तो माता कहा जाता है, क्योंकि गाय यह मूत्र हमारे उपयोग के लिये ही छोड़ती है। गोमूत्र गाय का प्रमुख उपहार है, दूध तो कुछ दिनों के लिये ही देती है। गोबर से उपले और खाद बनती है। जो गाय चरती है, उसके ही उत्पाद और गोमूत्र उपयोगी होता है। जर्सी गाय के मूत्र में तीन ही पोषक घटक है, जबकि देशी गाय के मूत्र में १० पोषक घटक हैं। कभी गाय का पौराणिक चित्र देखा हो तो गाय के मूत्र में धनवन्तरि, गोबर में लक्ष्मी, गले में शंकर बसते हैं। गोबर की खाद से खेती, उपले से ईँधन। गोबर गैस से ईंधन और गाड़ी भी चलायी जा सकती है। पेस्टीसाइट गोमूत्र से मिलता है। गाय हर प्रकार के विष अपने शरीर में ही सोख लेती है, तभी  गले में शंकर का वास माना गया है। इस प्रकार उसके शरीर से जो कुछ भी प्राप्त होता है, सारा का सारा मानव के लिये अत्यन्त उपयोगी है। गाय का संरक्षण हर प्रकार से आवश्यक है, मैंने पाली है, सच में बहुत अधिक आनन्द मिलता है।

यदि आधुनिकता पोषित रोगों के दुष्चक्र से निकलना है तो गाय को संरक्षित करना पड़ेगा। गाय हमारी सामाजिक व्यवस्था का प्राण है। तभी कहावत याद आती है कि हम गाय नहीं पाल सकते, गाय हमें पालती है। कुछ गायें थोड़ा कम दूध देती हैं। पर जो गाय दूध कम देती है, उसके बछड़े मज़बूत होते है। जो गाय अधिक दूध देती है, उसके बछड़े कमज़ोर होते हैं। गाय पालन के प्रति सबके मन में श्रद्धा है, मैंने अपने परिवार में देखा है, पिताजी में देखा है, सुबह से शाम तक प्रेम से गाय की सेवा करते हैं, घंटों उसके पास बैठे रहते हैं। कहते हैं कि जिस घर में गाय रहती है और जिस किसान के पास गाय रहती है, उन दोनों स्थानों पर भाग्य स्वयं आकर बसता है। काश, हमारी गायों का भी भाग्य सँवरे और वे पुनः हमारा भाग्य सँवारें। इति आयुर्वेद चर्चा।

चित्र साभार - www.swahainternational.org

2.4.14

आयुर्वेद का आर्थिक पक्ष

पिछले २०० वर्षों में भारत के स्वास्थ्य में हुये परिवर्तन को यदि एक पंक्ति में कहना हो तो इस प्रकार कहा जा सकता है। तब ५ में से ४ स्वस्थ रहते थे, अब ५ में से ४ अस्वस्थ। विकास और सुख सुविधायें शरीर को सुख देने के लिये होती हैं और यदि शरीर ही अस्वस्थ है तो सारे साधनों का क्या लाभ? दो सौ वर्षों का यह कालखण्ड अंग्रेजों के द्वारा आयुर्वेद को समूल नष्ट करने के व्यवस्थित प्रयासों से प्रारम्भ होता है, समाज को आर्थिक रूप से अशक्त बना मैकालियत को थोपने से उत्थान पाता है और अन्ततः ७-८ पीढ़ियों द्वारा घरों तक सिमटी परम्पराओं की विरासत को आधुनिकता में तिलांजलि देने से समाप्त होता है। क्या करें, किसी को भी सौ बार यह पढ़ाया जाये कि वह मूढ़ है तो वह मान बैठेगा और उसी प्रकार व्यवहार करने लगेगा। परतंत्रता का यह अभिशाप ढोना हमारे भाग्य में तो लिखा था, पर एक बात तो निश्चित है कि यह हमारी पीढ़ी में ही यह अभिशाप अपना अन्त पा जायेगा, हमारी संततियाँ उसके दुष्प्रभाव से मुक्त रहेंगी।

ज्ञान अभी भी जीवित जन में
मेरे एक मित्र बताते हैं कि उपेक्षा से ज्ञान भी दुखी होता है और लुप्त हो जाता है, स्वाभाविक और मानवीय गुण है यह। भाग्य से आयुर्वेद का प्रयोग और ज्ञान उपेक्षा से क्षीण तो हुआ है पर लुप्त नहीं हुआ है। राजकीय, प्रशासनिक और सामाजिक उपेक्षा के बाद भी यह उसकी अन्तर्निहित क्षमता ही है जो उसे जीवित रखे है। जिज्ञासा प्रेरित, अभी तक मुझे जिन क्षेत्रों में जितना भी अवसर गहरे उतरने का मिला है, एक तथ्य तो निश्चयात्मकता से कहा जा सकता है। हमारे पूर्वज अद्वितीय बौद्धिक प्रतिभा से युक्त थे। बौद्धिक उत्थान के जो उत्कृष्ट मानक वे नियत कर गये हैं, उनके समकक्ष भी पहुँच पाना हमारे लिये सम्मान का विषय होगा। अपनी विरासत से प्रतियोगिता कैसी, वह तो गर्व कर आत्मसात करने की विषयवस्तु है। ज्ञान के लिये मानव सभ्यतायें सदा ही लालायित रही हैं, कितना भी ज्ञान हो, सबको समाहित कर लेने का विशाल हृदय मानव ने पाया है। वर्तमान में सारे विश्व ने जिस स्तर पर आयुर्वेद को एक जीवनशैली और विशिष्ट उपचार पद्धति के रूप में स्वीकार किया है, यह ज्ञान अपनी पूर्णता में प्रकट होने वाला है।

स्वीकार्यता की उदात्त मानसिकता से आयुर्वेद की आर्थिक उपयोगिता को देखें तो पायेंगे कि वर्तमान में आयुर्वेद न केवल हमारे देश का स्वास्थ्य सुधार सकता है, वरन उसकी आर्थिक स्थिति को संतुलित कर सकता है। तीन स्तरों पर इसका प्रायोगिक अनुपालन किया जा सकता है। पहला है, आयुर्वेदीय सिद्धान्तों पर जीवन जीने की स्वस्थ परम्पराओं का पुनर्जीवन। ऐसा करने से ही रोगों और रोगियों की संख्या कम हो जायेगी और उनके निवारण में लगे अतिरिक्त संसाधन बचाये जा सकेंगे। बात संसाधन बचाने तक ही सीमित नहीं है, हमारी स्थिति इतनी दयनीय है कि हम सबको स्वास्थ्य सेवायें पहुँचा पाने में असमर्थ हैं। विकसित देशों की तुलना में हम आधे भी संसाधन नहीं जुटा पाते हैं, वहाँ जीडीपी का १० प्रतिशत तक व्यय होता है और हम ४ प्रतिशत भी नहीं पहुँच पाये हैं। 

दूसरा है, चिकित्सा पद्धति में आयुर्वेद का सम्यक उद्भव। आयुर्वेद में प्रयुक्त जो भी दवायें हैं, सब हमारे देश में बहुतायत से उपलब्ध हैं, सस्ती भी हैं। आयुर्वेद के विस्तार से ऐलोपैथी दवाओं के आयात में लगा धन बचाया जा सकता है। यही नहीं, आज भी ७० प्रतिशत जनसंख्या गावों में रहती है, जहाँ पर आधुनिक स्वास्थ्य सेवायें और डॉक्टर, दोनों ही अनुपस्थित हैं। सौभाग्य से वहाँ पर भी आयुर्वेद सम्मत देशी पद्धतियों की जड़ें किसी न किसी रूप में उपस्थित हैं, उन्हें व्यवस्थित रूप से पुनर्जीवित किया जा सकता है। मैसूर राज्य में अंग्रेजों के आने के पहले हर गाँव में एक वैद्य होता था जो सामान्य रोगों के निदान से लेकर शल्यचिकित्सा तक करता था।

तीसरा है, असाध्य रोगों में ऐलोपैथी का मौन और आयुर्वेद द्वारा जगायी आशा की किरण। ऐलोपैथी की लक्षण आधारित चिकित्सा और रोग को समूल नाश न कर पाने की क्षमता ने लोगों को आयुर्वेद की ओर मोड़ा है। यही एकल कारण हैं कि केरल में ही स्वास्थ्य-पर्यटन के माध्यम से देश विदेश के लोग असाध्य रोगों में लाभ पाते हैं। जहाँ एक ओर हर वर्ष देश में आयुर्वेद पर मात्र १२०० करोड़ रुपये का बजट है, वहीं दूसरी ओर केरल में पंचकर्म के माध्यम से ही देश को लगभग १०,००० करोड़ रुपये की आय होती है।

कई क्षेत्रों में ऐलोपैथी की महत्ता नकारी नहीं जा सकती है, पर जहाँ पर ऐलोपैथी है ही नहीं, वहाँ पर भी उसके गुणगान करने का क्या लाभ। पहले और तीसरे क्षेत्र ऐसे ही हैं। जीवनचर्या और रोगों की असाध्यता पर ऐलोपैथी मौन है, क्योंकि उसका कार्यक्षेत्र रोग आने के बाद ही प्रारम्भ होता है और रोग के लक्षण जाते ही समाप्त हो जाता है। आज आधे से अधिक रोगी जीवनशैली के कारण उस स्थिति पर पहुँचे हैं। रोग होने के पश्चात उपचार करने का क्या लाभ, अच्छा हो हम रोग होने ही न दें, एक ऐसी जीवनशैली अपना कर जो निरोगी रहने के सिद्धान्त विधिवत बताती है। पंचकर्म आदि उपचारों से असाध्य रोगों को दूर करने में आयुर्वेद अपनी सिद्धहस्तता दिखा रहा है। यही नहीं, दूसरे क्षेत्र में भी ऐलोपैथी दवाइयों के दुष्प्रभाव हमें आयुर्वेद जैसी प्राकृतिक और समग्र पद्धति को अपनाने को विवश कर रहे हैं। जिस तरह आजकल एण्टीबॉयोटिक दवाओं में जड़ी बूटियों के प्रयोग को बढ़ावा मिल रहा है, उससे तो लगता है कि ऐलोपैथी भी आयुर्वेद के सिद्धान्त और क्षमताओं को स्वीकार करने में संकोच नहीं कर रहा है। केवल जड़ी बूटियों के क्षेत्र में ही ६००० करोड़ के व्यापार की संभानवायें हैं और प्रतिस्पर्धा में चीन है।

आज स्थिति यह है कि जिस परिवार में किसी को कोई असाध्य या गम्भीर रोग होता है, उस परिवार का आर्थिक स्वास्थ्य भी चरमरा जाता है। मध्यम वर्ग एक रोग के कारण ही निम्न मध्यम वर्ग में आ जाता है, निम्न मध्यम वर्ग का परिवार सीधे गरीबी रेखा में आ जाता है। हृदयाघात और कैंसर जैसी बीमारियाँ व्यक्ति के साथ साथ परिवार को भी पीड़ा दे जाती हैं। कारण इन सब रोगों का इलाज बहुत मँहगा होना है। डायबिटीज़ के संग जीवन बिताना प्रकृति के बड़े दण्ड से कम नहीं और नित्य यदि इन्सुलिन आदि लेना पड़े तो आर्थिक दण्ड ऊपर से। भारत में नगरीय जनसंख्या के १० प्रतिशत और ग्रामीण जनसंख्या के ३ प्रतिशत लोगों को डायबिटीज़ है, यही कारण है कि भारत को विश्व की मधुमेह राजधानी कहा जाता है। विशेषज्ञ बताते हैं कि जब आने वाले १५ वर्षों में मधुमेह के रोगियों की संख्या ७ करोड़ से बढ़कर १० करोड़ हो जायेगी, तब लोगों को आय का २०-२५ प्रतिशत भाग इस रोग के निदान में खर्च करना पड़ेगा।

मधुमेह ही नहीं, जीवनशैली से जुड़े लगभग सभी रोगों में देश इसी दयनीय आर्थिक स्थिति में पहुँचने वाला है। २०१० में देश में ५ करोड़ हृदयरोगी और ३० लाख कैंसर के मरीज थे। जहाँ हृदयरोग और कैंसर के इलाज के लिये लाखों का खर्च लगता हो, वहाँ के नागरिक अपनी सारी कमाई इन्हीं रोगों को समर्पित करते रहेंगे। २०१२ की डब्लूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार लगभग २३ प्रतिशत भारतीय हाइपरटेंशन से ग्रसित हैं। कम गम्भीर रोगों में यह संख्या कहीं और अधिक है, लगभग १२ करोड़ श्वासरोग से, १० करोड़ जोड़दर्द से, १८ करोड़ पेटरोग से और २० करोड़ से अधिक लोग आँखों के रोगों से ग्रसित हैं। इसमें ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के आँकड़े अनुपस्थित हैं। गाँवों में डॉक्टरों के न जाने से ७० प्रतिशत जनसंख्या का भाग उपेक्षित है, न रोगों की संख्या ज्ञात है, न उनका निदान उपलब्ध है। अन्य रोग और नियमित रूप से होने वाले ज्वर आदि की संख्या लेंगे तो देश के स्वास्थ्य का दयनीय चित्र उभरेगा।

रोगियों की संख्या हमें चिन्तित करती है, पर उससे भी अधिक घबराहट डॉक्टरों की संख्या देखकर होती है। देश में कुल ६ लाख डॉक्टर हैं, हर २००० व्यक्तियों पर एक, जबकि अन्तर्राष्ट्रीय मानक के आधार पर डॉक्टरों की संख्या १२ लाख होनी चाहिये। प्रतिवर्ष ३०,००० नये डॉक्टरों से भी यह अनुपात अगले २० वर्षों में भर पायेगा। वह भी तब, जब कोई डॉक्टर विदेश न जाये, रिटायर न हो और साथ ही कोई नया रोगी न बढ़े। यदि वर्तमान में डॉक्टरों की कमी पूरी करनी है तो मेडिकल कॉलेज खोलने और चलाने में १० लाख करोड़ रूपये का अतिरिक्त खर्च आयेगा। जिस देश में स्वास्थ्य का वार्षिक बजट ही ३७००० करोड़ हो, वहाँ पर सबको स्वास्थ्य दे पाने की अवधारणा बेईमानी लगती है।

इन चिन्तनीय परिस्थितियों में आयुर्वेद की यह बात सहारा देती है कि बस आहार और अपनी प्रकृति समझ लेने से ८५ प्रतिशत रोगों का निदान संभव है। समुचित और स्वस्थ जीवनचर्या के माध्यम से रोगों को न आने देना आयुर्वेद का सशक्त आधारस्तम्भ है। आयुर्वेद के इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर सबको अपनी चिकित्सा स्वयं करनी होगी। रोगी अपना चिकित्सक स्वयं ही है। जो पीड़ा झेलता है, यदि उसे तनिक ज्ञान हो तो वह उसका निवारण स्वयं ही कर सकता है। आयुर्वेद, प्रणायाम और आसन के साथ स्वास्थ्य में समग्रता और रोगों से लड़ने की सक्षमता आ जाती है। आयुर्वेद में क्षमता है कि वह देश का स्वास्थ्य ढाँचा संभाल सकता है, देश का आर्थिक स्वास्थ्य स्थिर कर सकता है और आयुर्वेद की क्षमताओं का विश्व में प्रचार व प्रसार कर देश के लिये आर्थिक सम्पन्नता भी ला सकता है। बस आवश्यकता है आयुर्वेद की टूटी हुयी कड़ियों को व्यापक और समग्र रूप से जीवन में पुनः जोड़ने की।

आयुर्वेद पर अन्तिम कड़ी में मेरे मन का प्रिय विषय, गाय और आयुर्वेद।

चित्र साभार - yanashala.com