अत्रेय ऋषि अध्यक्षता कर रहे हैं, आयुर्वेद के ज्ञाता मनीषी बैठे हैं, साथ हैं कई राज्यों के राजवैद्य, विषय है वात और प्रभाव। चरक संहिता के १२वें अध्याय में वर्णित इस प्रकरण ने बरबस ही मन खींच लिया। सामान्य वात के कार्य, वातजनित रोग, कारण, निवारण और प्रकृति के साथ उसकी समानता पर चर्चा थी। तीन कारणों से इसे यहाँ पर रखना आवश्यक समझता हूँ। पहला, रोगों की कुल सूची में ७० प्रतिशत रोग वातजनित है। जोड़ों का दर्द, गठिया, डायबिटीज़, उच्च रक्तचाप, कैंसर और हृदयाघात आदि वातजनित रोग हैं। दूसरा, भारत एक वातप्रधान देश है और यहाँ पर इन रोगों की संख्या अधिक होती है। तीसरा, आयु के अन्तिम पड़ाव में वात अधिक होने लगता है और शरीर में वातजनित रोग प्रस्फुटित होने लगते हैं। इन तीनों कारणों के परिप्रेक्ष्य में वात की समुचित समझ आवश्यक है, जिससे हम अपनी युवावस्था में सावधान रहकर अपने स्वास्थ्य को सँवार सकते हैं और निरोगी रह सकते हैं।
कफ और पित्त की अपेक्षा वात सर्वाधिक सूक्ष्म और गतिशील होती है, यही कारण है कि शरीर के सभी अंग इसके प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं। जब कभी भी वात व्यथित होती है, शरीर के किसी भाग में एकत्र होती रहती है। बार बार वही कारण होने पर वह वहाँ पर बढ़ती जाती है। समय रहते यदि उसे निष्प्रभावी व संतुलित न किया गया तो रोग का रूप ले लेती है। वात की तुलना में कफ और पित्त के प्रभावक्षेत्र सीमित रहते हैं, अतः उसका निदान अपेक्षाकृत सरल रहता है। यही कारण रहा होगा कि वात की चर्चा का महत्व चरकसंहिता के लिये विशेष रहा होगा।
शक्ति भी, आसक्ति भी |
पृथ्वी और जल प्रकृति के पोषक तत्व हैं, पौधों में सारा पोषण इन्हीं दोनों तत्वों से आता है। सूर्य और वायु प्रकृति के शोषक तत्व हैं, इन दोनों की सहायता से तत्व धरती से निकल कर पौधों में फल रूप में संचित होते हैं। जो कार्य वायु वाह्य प्रकृति में करती है, वही कार्य शरीर के भीतर भी संपादित करती है। आयुर्वेद की सभा में वाह्य वायु के कार्यों को समझाते हुये शरीर के भीतर वात के महत्व को व्याख्यायित किया गया है। सभा के रोचक प्रसंग में जब राजर्षि वायोर्विद प्रकृति में वायु के महत्व को बता रहे थे तो ऋषि मरीचि ने यह पूछा कि सभा आयुर्वेद और स्वास्थ्य के बारे में है, इसमें प्रकृति की कार्यशैली का क्या महत्व? संभवतः उस प्रश्न का उत्तर ही वात के व्यापक प्रभाव को समझने के लिये आवश्यक है।
राजर्षि वायोर्विद का उत्तर इस प्रकार था। यदि चिकित्सक उस वायु को नहीं समझता, जो शक्ति, खरता, गति और विध्वंसक क्षमता में सर्वाग्रणी है, तो वह अपने रोगी को वात के कुप्रभावों के बारे में रोग आने के पर्याप्त पहले से सचेत नहीं कर पायेगा। साथ ही साथ वायु के प्रकृति संचालन में सामान्य गुण बताकर, वात के उन गुणों को भी बता पायेगा, जो शक्ति, वर्ण, विकास, ज्ञान और आयु के लिये सहायक हैं। भूगोल का यह अध्याय आपको तनिक सरल लग सकता है, पर इसके समानान्तर आप शरीर में भी वात के बारे में सोचेंगे तो यही तुलना अत्यधिक रोचक होती जायेगी।
वायु के सामान्य लाभप्रद कार्य हैं, पृथ्वी का जीवन व रखरखाव, अग्नि का उद्दीपन, वायु दवाब जनित पृथ्वी की संघनता, बादलों का निर्माण, वर्षा कराना, नदियों का प्रवाह, फलों और फूलों में परिपक्वता, पौधों का विकास, ऋतुयों का संचालन, अन्न की संघनता और शुष्कता। यही वायु जब भड़कती है तो पहाड़ टूटते हैं, पेड़ उखड़ते हैं, समुद्र में तूफ़ान आते हैं, नदियों की दिशा बदलती है, बादलों में गर्जन होता है, आँधी और अतिवृष्टि होती है, आकाल पड़ता है, ऋतुयें भ्रमित होती हैं, पौधों की उत्पादकता क्षीण होती है और विनाश आता है।
इसी प्रकार सामान्य वात शरीर में निम्न कार्य करता है। शरीर के सारे अंगों को कार्यशील रखता है, सारे कर्मों और शब्दों का उद्भवकारक है, मन को नियन्त्रित और निर्देशित करता है, सारे अंगों में समन्वय रखता है, शरीर को संघनित रखता है, सारे ज्ञानेन्द्रियों का मूल वाहक है, सुख और उत्साह का मूल कारक है, पाचक अग्नि को प्रदीप्त रखता है, अधिक कफ और पित्त को सुखाता है, शरीर से मल आदि बाहर निकालता है, शरीर में छोटे बड़े संवहन मार्ग बनाता है, गर्भाशय के आकार और विकास में सहायक है और अन्ततः जीवन होने का सूचक है। जब यह कुपित होता है, तो विभिन्न प्रकार के रोग आते हैं, शारीरिक शक्ति, शरीर का वर्ण, सुख और आयु क्षीण होती है। साथ ही मन विचलित रहता है, अंगों और उनके समन्वय पर कुप्रभाव पड़ता है, गर्भाशय क्षतिग्रस्त होता है, भय, चिन्ता और भ्रम उत्पन्न होते हैं।
वात के कारण और निवारण उनके गुणों में छिपे हुये हैं। वात के गुण रुक्ष, लघु, शीत, दारुण, खर, विशद और शुशिर(खोखला) हैं। अतः निवारण के लिये हमें क्रमशः स्निग्ध, गुरु, ऊष्ण, श्लक्ष्ण, मृदु, पिच्छिल और घन गुणों की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे गुणों से युक्त परिवेश, द्रव्य, कार्य, भाव आदि होने से असंतुलित वात का प्रभाव कम हो जाता है। आयुर्वेद में दिनचर्या, ऋतुचर्या, भोजन औषधियों में इन्हीं गुणों की क्रियात्मकता का विशेष ध्यान रखा जाता है और इनका वर्णन हम आगामी कड़ियों में करेंगे।
शरीर के अन्दर वात के भिन्न कर्म पाँच वायु करती हैं। ये वायु हैं, प्राण, समान, व्यान, उदान और अपान। प्राण वायु मस्तिष्क और हृदय के बीच संचालित रहती है, विचारों और इच्छाओं के माध्यम से मन को संचालित करती है। इसका निकलना ही मृत्यु की परिभाषा है। समान वायु पाचन में तत्वों और इन्द्रियों के माध्यम से वाह्य संवेदनायें अवशोषित करती है, पाचन तत्व रक्त में और संवेदन मस्तिष्क में पहुँचाती है। व्यान वायु शरीर में रक्त और अंगों में प्रतिक्रिया पहुँचाती है। उदान वायु किसी कार्य के लिये ऊर्जा एकत्र करती है। अपान वायु सारी क्रियाओं से निकले मल को शरीर से बाहर करती है।
क्योंकि मन वात द्वारा संचालित रहता है और योग का प्रमुख ध्येय मन को नियन्त्रित करना होता है, अतः उसको साधने के लिये योग के अंगों में प्राणायाम का अद्भुत महत्व है। कईयों को लगता होगा कि प्राणायाम मन की एकाग्रता में कैसे सहयोग करता है? कारण उपरिलिखित सूत्रों में ही मिल जाता है। प्राणायाम शरीर में वात के प्रवाह को संतुलित करता है, जिससे वात के कुप्रभाव भी नियन्त्रित होते है। अनियन्त्रित वात के गुण में गतिशीलता भी एक है जो विचारों में जाकर स्थापित हो जाती है और चाह कर भी विचारों का प्रवाह नियन्त्रण में नहीं रहता है। इस प्रकार प्राणायाम ध्यान में अत्यन्त सहायक होता है। पाँचों प्रकार की वायु संतुलित होने से शरीर के अन्य वातजनित रोगों में भी प्राणायाम से अद्भुत लाभ होते हैं। प्राणायाम में वाह्य वायु और आन्तरिक वात में एक तदात्म्य स्थापित होता है जिससे हम प्रकृतिलयता की ओर तनिक और अग्रसर होते हैं।
आश्चर्य नहीं होगा जब, रसोई, योग और आयुर्वेद जैसे न जाने कितने तत्व हमारी जीवनचर्या में पिरोये गये हों, यही अन्तर्निहित एकता हमारी संस्कृति की समग्रता है, श्रेष्ठता है, संघनता है। आगे की पोस्ट में दिनचर्या, ऋतुचर्या और जीवनचर्या के कुछ तत्व।
चित्र साभार - www.kidsgeo.com
सकारात्मक ऊर्जा हेतु प्राणायाम अत्यन्त आवश्यक है । कम से कम कपालभाति और अनुलोम-विलोम प्राणायाम हम सभी को दस-दस मिनट अवश्य करना चाहिए । परिणाम तत्काल दिखने लगता है । मेरा आपसे अनुरोध है कि आप प्रतिदिन प्राणायाम अवश्य करें । यह बात मैं केवल प्रवीण जी के लिए नहीं आप सब से कह रही हूँ ।
ReplyDeleteसदा कि भांति उत्कृष्ट आलेख .....
ReplyDeleteआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति रविवारीय चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteअब तो आप आयुर्वेद के व्याख्याता बन चुके हैं।
ReplyDeleteबहुत ही ज्ञानवर्धक और उपयोगी श्रंखला, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम..
आपकी ज्ञान जिज्ञासा को लेकर ईर्ष्या होती है।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट पढता हूँ ,समझता हूँ परन्तु टिप्पणी करने में स्वयं को असमर्थ पाता हूँ । सरल भाषा में सदा की भांति उत्कृष्ट एवं ज्ञानदायी लेखन ।
ReplyDeleteसुंदर आलेख......क्रम चलता रहे
ReplyDeleteक्या कहूँ - जो पढ़ा उसे गुन रही हूँ .
ReplyDeleteजी .... ये पूरी श्रृंखला पढ़ रहे हैं , अच्छे से समझ रहे हैं और कोशिश है कि जितना भी सम्भव हो उसे जीवन में उतार पाएं .....
ReplyDeleteकाश हमारे चिकित्सा विज्ञानी इस विधि को अपनाते ।
ReplyDeleteकल 09/03/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
बाबा रामदेव ने प्राणायाम का एक पैकेज बना दिया है...निश्चय ही ये बहुत प्रभावी है...अनुभव और ज्ञान का अद्भुत समन्वय है आपकी ये पोस्ट...
ReplyDeleteहर रात ये सोच कर सोती हूँ सुबह प्राणायाम करुँगी, हर सुबह अलसा जाती हूँ :(
ReplyDeleteउपयोगी और महत्वपूर्ण आलेख। चित्त की स्थिरता ही तो स्वयं का स्वयं से परिचय कराएगी। पर ऐसा हो तो।
ReplyDeletefingers crossed!
ReplyDeleteअगर इन बातो को हमारा आम जनमानस जो कि भुला चुका है और डाक्टर जो कि इसे जानते तक नही अपने उपयोग में लायें तो ही उद्धार है नही तो एलोपैथी हमें तबाह कर देगी
ReplyDeleteअति उत्तम ... गूढ़ बातों को आसानी से सभी के सामने ला रहे हैं ... उत्कृष्ट लेख ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर व्याख्या 'वात 'और तद्जनित रोगों की निदान और समाधान की पथ्य की।
ReplyDeleteकफ और पित्त की अपेक्षा वात सर्वाधिक सूक्ष्म और गतिशील होती है, यही कारण है कि शरीर के सभी अंग इसके प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं। जब कभी भी वात व्यथित होती है, शरीर के किसी भाग में एकत्र होती रहती है। बार बार वही कारण होने पर वह वहाँ पर बढ़ती जाती है। समय रहते यदि उसे निष्प्रभावी व संतुलित न किया गया तो रोग का रूप ले लेती है। वात की तुलना में कफ और पित्त के प्रभावक्षेत्र सीमित रहते हैं, अतः उसका निदान अपेक्षाकृत सरल रहता है। यही कारण रहा होगा कि वात की चर्चा का महत्व चरकसंहिता के लिये विशेष रहा होगा।
ReplyDeleteवायु के सामान्य लाभप्रद कार्य हैं, पृथ्वी का जीवन व रखरखाव, अग्नि का उद्दीपन, वायु दवाब जनित पृथ्वी की संघनता, बादलों का निर्माण, वर्षा कराना, नदियों का प्रवाह, फलों और फूलों में परिपक्वता, पौधों का विकास, ऋतुयों का संचालन, अन्न की संघनता और शुष्कता। यही वायु जब भड़कती है तो पहाड़ टूटते हैं, पेड़ उखड़ते हैं, समुद्र में तूफ़ान आते हैं, नदियों की दिशा बदलती है, बादलों में गर्जन होता है, आँधी और अतिवृष्टि होती है, आकाल पड़ता है, ऋतुयें भ्रमित होती हैं, पौधों की उत्पादकता क्षीण होती है और विनाश आता है।
शरीर के अन्दर वात के भिन्न कर्म पाँच वायु करती हैं। ये वायु हैं, प्राण, समान, व्यान, उदान और अपान। प्राण वायु मस्तिष्क और हृदय के बीच संचालित रहती है, विचारों और इच्छाओं के माध्यम से मन को संचालित करती है। इसका निकलना ही मृत्यु की परिभाषा है।
कईयों को लगता होगा कि प्राणायाम मन की एकाग्रता में कैसे सहयोग करता है? कारण उपरिलिखित सूत्रों में ही मिल जाता है। प्राणायाम शरीर में वात के प्रवाह को संतुलित करता है, जिससे वात के कुप्रभाव भी नियन्त्रित होते है। अनियन्त्रित वात के गुण में गतिशीलता भी एक है जो विचारों में जाकर स्थापित हो जाती है और चाह कर भी विचारों का प्रवाह नियन्त्रण में नहीं रहता है।
बहुत सुन्दर व्याख्या 'वात 'और तद्जनित रोगों की निदान और समाधान की पथ्य की।
क्या बता है सरजी मोटी से पिरो दिए हैं इसे पुस्तक आकार में लाइए भले किताब अपने खर्चे से
छपवानी पड़े। अग्रिम प्रति के लिए बुकिंग शुरू कर दें। पहली किताब मेरी।
बहुत सुन्दर व्याख्या 'वात 'और तद्जनित रोगों की निदान और समाधान की पथ्य की।
ReplyDeleteक्या बात है सरजी मोती से पिरो दिए हैं इसे पुस्तक आकार में लाइए भले किताब अपने खर्चे से
छपवानी पड़े। अग्रिम प्रति के लिए बुकिंग शुरू कर दें। पहली किताब मेरी।
आपकी इस प्रस्तुति को आज कि फटफटिया बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर व्याख्या 'वात 'और तद्जनित रोगों की निदान और समाधान की पथ्य की।
ReplyDeleteबहुत सार्थक अभिव्यक्ति .बधाई
ReplyDeleteas usual, very impressive !
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित और उपयोगी आलेख...
ReplyDeletesir jee google ads lagaiye apne blog pe. Itna acha blog hai, acha content aur following bhi badhiya hai
ReplyDeletefir isko utilize karna chahiye.
is bare me koi help chahiye ho to bataiyega
www.shivyogscience.com
नए शिखर छूती श्रृंखला
ReplyDeleteसंग्रह करने योग्य श्रृंखला। आपकी टिपण्णियां निरंतर हमारा उत्साह बढ़ाती हैं।
बेहद सार्थक व सशक्त आलेख .............. आभार
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ReplyDeleteबहुत सुन्दर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के स्थम्बों को पुष्ट करती जानकारी।
गांव से लौटा हूं। यह देखकर अच्छा लगा कि इसी बीच आपने अपने सारे लेख आयुर्वेद व स्वास्थ्य पर लिखे हैं। राजीव दीक्षित को कई बार सुना है। उनकी बहुत सी बातें याद आ गईं। आयुर्वेद को भुलाने के कारण ही स्वास्थ्य और जीवन में छत्तीस का आंकड़ा हो गया है। आपका अध्ययन, उससे अर्जित ज्ञान और उसे दूसरों को बांटने की आपकी अभिलाषा श्लाघनीय है।
ReplyDeleteतिनके-तिनके से बनता हुआ घोसला स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर है , आप बड़ा काम कर रहे हैं , जीते रहिये
ReplyDeleteबहुत ही ज्ञानवर्धक और उपयोगी श्रंखला
ReplyDeleteअत्यंत ज्ञान वर्धक लेखन |
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