पहले मुझे लगता था कि आयुर्वेद को अपनाना कितना कठिन होगा, पूरी जीवनशैली में आमूलचूल परिवर्तन करना पड़ेगा। अपना जीवन तो फिर भी ढाला जा सकता है, पर रसोई में कोई हस्तक्षेप गृहस्वामी के लिये मँहगा पड़ सकता है। गहरे उतरा, तो पाया कि कितना सरल है आयुर्वेद को अपनाना और किस तरह से भारतीय जीवन के प्रत्येक पक्ष में इसे पहले ही समाहित किया जा चुका है। जीवन जीने में कितनी सरलता से इसे जोड़ दिया गया है, हमारी रसोई से और हमारी जीवन शैली से, हमारे मनीषियों ने।
आयुर्वेद हमारी जीवनशैली, दिनचर्या और ऋतुचर्या में सदियों से पिरो दिया गया है। उससे भी अधिक वह हमारी पारम्परिक रसोई में विद्यमान है। तनिक और ध्यान से विश्लेषित किया तो दिखा कि हमारी रसोई आयुर्वेद की पारम्परिक प्रयोगशालायें हैं, हर घर में एक, हर दिन कार्यरत, और निष्कर्ष हमारा स्वास्थ्य। हमें कभी पता नहीं चला, पर जिस कुशलता से हमारे आयुर्वेद के पुरोधाओं ने इन सूत्रों की वैज्ञानिकता को रसोई में समाहित किया है, वह उपलब्धि आयुर्वेद से भी गहरी है। एक एक पकवान, किसी भी ऋतु का, किसी भी समय का, सबमें आयुर्वेद के सूत्र का आधार। अद्भुत है आयुर्वेद के काल का विस्तार और सन्निहित प्रक्रियाओं की सूक्ष्मता।
भारतीय रसोई या आयुर्वेदीय प्रयोगशाला |
पिछले २०-३० वर्ष में भारतीय रसोई में आये बदलावों को छोड़ दें और तब रसोई में आयुर्वेद की स्थापना देखें तो आये बदलाव हमें आधुनिकता की मूर्खतापूर्ण नकल लगेगी। लगेगा कि जिन प्रयोगशालाओं में स्वास्थ्य के प्रयोग सदियों से चल रहे हैं, उनमें किस तरह हमने अवैज्ञानिकता को प्रवेश करने दिया। आइये, वाग्भट्ट के रसोई सम्बन्धित ऐसे ही चार सिद्धान्तों का विश्लेषण करते हैं।
वाग्भट्ट का पहला सिद्धान्त है कि जिस भोजन को सूर्य का प्रकाश और पवन का स्पर्श न मिले, वह भोजन नहीं, विष है जो धीरे धीरे हमें ही खा जायेगा। सूर्य का प्रकाश और पवन का स्पर्श अन्न, शाकादि के बनने में सहायक होता है। इन दोनों की अनुपस्थिति शरीर के प्रति लाभप्रद नहीं मानी गयी है। ऐसा जल भी दूषित माना जाता है। यही कारण रहा होगा कि जैन मतावलम्बी धरती के अन्दर होने वाले उत्पादों को नहीं खाते हैं। सूर्यास्त के पश्चात भोजन पकाने, खाने और संग्रहण भी संभवतः इसी कारण जैन समाज में निषेध हों। हो सकता है कि धूप में सुखाने से उसमें हानिकारक जीवाणु न आते हों। पवन का स्पर्श, संभव है, उसमें ऑक्सीजन और पोषक तत्वों को समाहित कर लेता हो और उसे स्वास्थ्यप्रद बना देता हो। अहिंसा प्रेरित जैनियों की आस्था निराधार तो कदाचित नहीं होगी, और निश्चय ही उसमें वाग्भट्ट के सूत्रों का स्वस्थ संचरण होगा।
वाग्भट्ट का दूसरा सिद्धान्त है कि जिस अन्न को खेत में पकने में अधिक समय लगता है, उसे पकने में उतना ही अधिक समय लगेगा। यहाँ पर गति का सिद्धान्त दिखता है। कहने का आशय है कि किसी भी अन्न में निहित पूर्णपोषकता निकालने के लिये उसे उसी अनुपात में पकाना चाहिये जिस अनुपात में प्रकृति ने उसे पकाया है। खेत में ३ माह में पके अन्न को कम पकाना पड़ेगा, जबकि ९ माह में पके अन्न को उससे कहीं अधिक पकाना पड़ेगा। माटी से पोषक तत्वों का एकत्रीकरण और भोजन के लिये उसका विघटन, ये दोनों एक दूसरे की विपरीत प्रक्रियायें हैं। न हम उसे पल्लवित करने को तीव्र कर सकते हैं और न ही उसे पोषक तत्वों में विघटित करने के लिये शीघ्रता कर सकते हैं। यदि हम ऐसा करते हैं तो हमें खाद्य तो मिलेगा पर उसमें पोषक तत्व नहीं मिलेंगे।
वाग्भट्ट का तीसरा सिद्धान्त है कि भोजन बनने के ४८ मिनट के अन्दर उसको खा लेना चाहिये। जैसे जैसे देर होती है, उसकी पौष्टिकता कम होती जाती है। २४ घंटे के बाद भोजन बासी हो जाता है और पशुओं के खिलाने के योग्य भी नहीं रहता है। बार बार ठण्डा गरम करने की प्रक्रिया में पोषकतत्व अपना मौलिक गुण खो बैठते हैं और विकृति उत्पन्न करते हैं। साथ ही साथ अन्नादि को पीसने के बाद १५ दिन के अन्दर ही उसका उपयोग कर लेना चाहिये, नहीं तो उनमें भी पोषकता का क्षय होने लगता है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो यह बात बड़ी स्वाभाविक लगती है। एक बार पकने या पीसने से किसी भी अन्न के पोषक तत्व अपने सर्वाधिक ग्राह्य रूप में आ जाते हैं। इस समय वातावरण में व्याप्त न जाने कितने जीवाणुओं के लिये यह सुविधाजनक होता होगा कि वे उस पर धावा बोल दें। जैसे जैसे समय बीतता होगा, पके अन्न का मौलिक गुण इन जीवाणुओं के द्वारा परिवर्तित और दूषित होता होगा। यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि वाग्भट्ट द्वारा दी इतनी वैज्ञानिक सलाह का हम प्रायः हर दिन उल्लंघन करते हैं।
वाग्भट्ट का चौथा सिद्धान्त है कि किसी भी कार्य में यदि अधिक गति से किया जाये तो वह वात उत्पन्न करता है। भारत एक वात प्रधान देश है, यहाँ पर ७० प्रतिशत रोग वातजनित, २० प्रतिशत पित्तजनित और १० प्रतिशत कफजनित हैं। कहने का आसय यह है कि हम जीवन में या रसोई में जो भी प्रक्रियायें अपनायें, वे गतिमान न हों और सूक्ष्म न हों। धीरे पीसे आटे में और बिजली की चक्की के तेज पीसे आटे में यही गुण झलकता है। प्रयोग कर के देख लें कि धीरे पिसा आटे की रोटी अधिक समय तक मृदु रहती है, जबकि तेजी से पिसे आटे की रोटी बहुत शीघ्र ही कड़ी हो जाती है। इसी तरह मैदा जैसा सूक्ष्म अन्न वात बढ़ाता है। वही सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया रिफाइण्ड तेल और चीनी के साथ भी होती है, और स्वाभाविक है कि ये दोनों कड़वे तेल और गुड़ की अपेक्षा बहुत अधिक वात बढ़ाते हैं।
आइये देखते हैं कि आधुनिक जीवन शैली ने पिछले २०-३० वर्षों में इन चार सिद्धान्तों की किस तरह से धज्जियाँ उड़ायी हैं और किस तरह से हमारी रसोई आयुर्वेद की प्रयोगशाला से रोगों की प्रयोगशाला बन गयी है।
हांडी की दाल |
प्रेशर कुकर पहले दो सिद्धान्तों का उल्लंघन करता है। प्रेशर कुकर में पकते समय न सूर्य का प्रकाश मिलता है और न पवन का स्पर्श। साथ ही साथ अपने प्रेशर से दाल को तोड़ कर उबाल देता है, दाल को उसके पोषक तत्वों में विघटित नहीं करता है। खेतों में दाल को पकने में ९ माह के आसपास लगता है, तो दूसरे सिद्धान्त के अनुसार उसे अग्नि पर भी देर तक पकाना चाहिये, धीरी आँच में। जिन्हें भी अपने गाँव की तनिक भी याद है उन्हें याद होगा कि प्रेशर कुकर आने के पहले हर घर में माटी की हांडी में दाल बनती थी, धीरे धीरे और अद्भुत स्वादिष्ट। प्रेशर कुकर में पकी दाल में पोषक तत्व मात्र १५ प्रतिशत पाये गये, जबकि माटी की हांडी की दाल में एक भी पोषकतत्व नष्ट नहीं हुआ। जगन्नाथ पुरी में आज भी माटी की हांडी में प्रसाद बनता है। माटी का सोंधापन और तत्वों में शरीर से एकरूपता, उसे इतना उत्कृष्ट पाकपात्र बनाते होंगे। साथ ही साथ प्रेशर कुकर में प्रयुक्त एल्युममिनियम का उपयोग स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यन्त संदिग्ध और हानिकारक है। यह तथ्य जानने के बाद, मेरे घर में दाल और खीर माटी की हांडी में ही बन रही है, स्वाद अद्भुत और पौष्टिकता शत प्रतिशत।
फ्रिज और ओवेन, पहले और तीसरे सिद्धान्त का उल्लंघन करते हैं। खाद्य को संरक्षित करने के नाम पर बार बार ठंडा गरम कर हम उसमें पौष्टिकता पूरी तरह से निकाल देते हैं और केवल अवशिष्ट खाते है। न केवल हम अपने पाचनतन्त्र का विनाश करने पर तुले हैं, वरन बिजली की अथाह बरबादी और क्लोरोफ्लोरोकार्बन के उत्सर्जन से पर्यावरण को भी क्षति पहुँचा रहे हैं। फ्रिज के ठंडे पानी ने देश में कब्जियत का प्रसार किया है। आवश्यकता इस बात की है कि हम घड़े का उपयोग करें। साथ ही साथ उतना ही बनाये जितना खा सकें। अधिक बनने पर संरक्षित न करें वरन आसपास के पशु पक्षियों को खिला दें। भारत में भोजन बचाकर और उसे अपोषक बनाकर खाने की परम्परा नहीं है। ताजी और गरम रोटी का सुख, स्वास्थ्य और स्वाद, सड़ाकर और बासी आटे से बने पाव और डबलरोटी से कहीं अधिक है।
मिक्सी आदि यन्त्र चौथे नियम को तोड़ते हैं। गति के सिद्धान्त की प्रकृति में उपेक्षा नहीं की जा सकती है। सिलबट्टा आदि में सब कुछ धीरे धीरे पिसता है और आवश्यकता से अधिक सूक्ष्म भी नहीं होता है। मिक्सी आदि में न केवल गति से पिसता है, वरन अतिसूक्ष्म भी हो जाता है, दोनों ही प्रकार से वह वातकारक है। इसी प्रकार पैकेट का आटा और डब्बाबन्द भोजन तीसरे और चौथे सिद्धान्त का उल्लंघन करते हैं। बंगलोर में रहने वाले मेरे कई मित्र बताते हैं कि पैकेट वाले आटे में घर जैसी बात नहीं, उससे पेट तो भरता है, पर संतुष्टि नहीं मिलती है। मुझे अपने गाँव की याद आती है, वहाँ सुबह उठकर दिन भर की आवश्यकता के लिये हाथ से चलने वाली चक्की में आटा पीसने का कार्य हमारी घर का महिलायें करती थीं।
हमारी रसोई में चलती परिपाटियाँ आयुर्वेद के सूत्रों का अमृत निचोड़ होता था, वह भी हर छोटी बड़ी प्रक्रिया में सरलता से सहेजा हुआ। चक्की, सिलबट्टा आदि यन्त्रों से न केवल हमारे स्वाद और स्वास्थ्य की रक्षा होती थी, वरन घर में रहने वाली महिलाओं का समुचित व्यायाम भी हो जाता था। आधुनिक यन्त्रों ने स्वाद, स्वास्थ्य और श्रम के सुन्दर संतुलन को नष्ट कर दिया है, हमें भी मशीन बनाकर रख दिया है। अब न हम पौष्टिक खा पा रहे हैं, न स्वादिष्ट खा पा रहे हैं, न स्वस्थ हैं और न ही सुगढ़।
यथासंभव विकार उत्पन्न करने वाले परिवर्तनों को रसोई से विदा करें और रसोई को पुनः आयुर्वेद की प्रयोगशाला के रूप में सुस्थापित करें। आगामी पोस्ट में कुछ और आयुर्वेदिक तत्व।
यथासंभव विकार उत्पन्न करने वाले परिवर्तनों को रसोई से विदा करें और रसोई को पुनः आयुर्वेद की प्रयोगशाला के रूप में सुस्थापित करें। आगामी पोस्ट में कुछ और आयुर्वेदिक तत्व।
चित्र साभार - www.harekrsna.com, www.minmit.com
वाह गहन निरीक्षण ! वाकई आयुर्वेद को जीवन शैली में उतारना उतना कठिन नहीं तो अब उतना आसान भी नहीं
ReplyDeleteआयुर्वेद अद्भुत है । मैं बचपन से ही आयुर्वेद से प्रभावित हूँ । मेरे नाना जी वैद्य थे । हमारे घर में आयुर्वेद की दो किताबें थीं- " अमृत सागर" और "शारंधर-संहिता।" मैने अपने जीवन में कभी भी एलोपैथिक दवा नहीं खाई हूँ । अभी मैं " पतञ्जलि-पीठ" से जुडी हुई हूँ । पतञ्जलि-पीठ में नीरज नाम के वैद्य हैं जो विश्व के श्रेष्टतम वैद्य हैं, टीवी के माध्यम से उनसे बहुत कुछ सीखने को मिल जाता है । पतञ्जलि-पीठ में " गो-गॉव" बसाया गया है, जहॉ शुद्ध गाय का दूध और अन्न-फल और सब्जियॉ उगायी जाती हैं । यह गो-गॉव दर्शनीय है । वैद्य नीरज आयुर्वेद और प्राकृतिक-चिकित्सा दोनों के अधिकृत चिकित्सक हैं । अत्यन्त सहज-सरल एवम् मृदु-भाषी हैं । सम्पूर्ण भारत से जो शिविरार्थी वहॉ जाते हैं उन्हें सुस्वादु भोजन-सहित रात्रि में गो-रस भी मिलता है। मैं पतञ्जलि-पीठ से जुडी हुई हूँ और अनेक बार वहॉ जाने का सौभाग्य मुझे मिला है ।
ReplyDeleteजैसे-जैसे हम अपने संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं वैसे-वैसे हम आयुर्वेद से दूर हो कर रोगों से ग्रसित होते जा रहे हैं.
ReplyDeleteसबकुछ आसान हो, श्रम की कमी, जल्दबाजी और संसाधनों ने हमारी जीवनचर्या को किस कदर बदल दिया है। नई नई बीमारियों से घिर कर भी हम चेत नहीं पा रहे हैं। सचमुच आयुर्वेद चमत्कारिक है।
ReplyDeleteहार्दिक आभार इस पोस्ट के लिये
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सच तो ये है ..आज की जीवन शैली में इसे पढ़ लेना ही बहुत बड़ी बात है ...अपनाना तो दूर की और आने वाले समय में सपना ....
ReplyDeleteआपने जितना अपनाया ...जितना समझाया ...वो बहुत नेक काम है | शुभकामनायें!
आप तो सब कंपनी वालो को चुना लगा देंगे :P
ReplyDeleteआपके लिखे आलेख से पूरी तरह सहमत हूँ
हार्दिक शुभकामनायें
हाँडी में दाल और भूभर [उपलों] पर बाटी, म्होड़े में पानी आय गयौ भैया
ReplyDeleteमाटी हांड़ी तो हम भी काम में लेते है कई चीज़ें पकाने के लिए .... सरल सिद्धांत हैं | थोड़ी कोशिश करें तो इनको अपनाना इतना कठीन भी नहीं |
ReplyDeleteअहिसाप्रेरित (अहिंसा प्रेरित )
ReplyDeleteजैनियों की आस्था निराधार तो कदाचित नहीं होगी, और निश्चय
ही उसमें वाग्भट्ट के सूत्रों का स्वस्थ संचरण होगा।
वाग्भट्ट का दूसरा सिद्धान्त है कि जिस अन्न को खेत में पकने में अधिक समय लगता है, उसे पकने में उतना ही अधिक समय लगेगा। यहाँ पर गति का सिद्धान्त दिखता है। कहने का आशय है कि किसी भी अन्न में निहित पूर्णपोषकता निकालने के लिये उसे उसी अनुपात में पकाना चाहिये जिस अनुपात में प्रकृति ने उसे पकाया है। खेत में ३ माह में पके अन्न को कम पकाना पड़ेगा, जबकि ९ माह में पके अन्न को उससे कहीं अधिक पकाना पड़ेगा। माटी से पोषक तत्वों का एकत्रीकरण और भोजन के लिये उसका विघटन, ये दोनों एक दूसरे की विपरीत प्रक्रियायें हैं। न हम उसे पल्लवित करने को तीव्र कर सकते हैं और न ही उसे पोषक तत्वों में विघटित करने के लिये शीघ्रता कर सकते हैं। यदि हम ऐसा करते हैं तो हमें खाद्य तो मिलेगा पर उसमें पोषक तत्व नहीं मिलेंगे।
वाग्भट्ट का चौथा सिद्धान्त है कि किसी भी कार्य में यदि अधिक गति से किया जाये तो वह वात उत्पन्न करता है। भारत एक वात प्रधान देश है, यहाँ पर ७० प्रतिशत रोग वातजनित, २० प्रतिशत पित्तजनित और १० प्रतिशत कफजनित हैं। कहने का आसय यह है कि हम जीवन में या रसोई में जो भी प्रक्रियायें अपनायें, वे गतिमान न हों और सूक्ष्म न हों। धीरे पीसे आटे में और बिजली की चक्की के तेज पीसे आटे में यही गुण झलकता है। प्रयोग कर के देख लें कि धीरे पिसा आटे की रोटी अधिक समय तक मृदु रहती है, जबकि तेजी से पिसे आटे की रोटी बहुत शीघ्र ही कड़ी हो जाती है। इसी तरह मैदा जैसा सूक्ष्म अन्न वात बढ़ाता है। वही सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया रिफाइण्ड तेल और चीनी के साथ भी होती है, और स्वाभाविक है कि ये दोनों कड़वे तेल और गुड़ की अपेक्षा बहुत अधिक वात बढ़ाते हैं।
साथ ही साथ प्रसर(प्रेशर कुकर )
कुकर में प्रयुक्त एल्युममिनियम का उपयोग स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यन्त संदिग्ध और हानिकारक है। यह तथ्य जानने के बाद, मेरे घर में दाल और खीर माटी की हांडी में ही बन रही है, स्वाद अद्भुत और पौष्टिकता शत प्रतिशत।
बहुत सुन्दर पोस्ट निबंधात्मक विश्लेषण परक आलेख
सभी जैनी भी आजकल कहाँ अपने नियम अपना पाते हैं...मानव सुविधा ही सब व्यवहार का मूल होती है ...समय-चक्र कब पीछे लौटता है...
Delete--प्रेसर कुकर आने से पहले जब शीघ्र पकाना होता था तो वर्तन को ढक देते थे अन्दर उपस्थित भाप प्रेसर कूकिंग का कार्य करती थी ...कुकर इसी अवधारणा पर ईजाद हुआ है... हर मिट्टी की हांडी के साथ उसका ढकना भी आता था ...अतः भोजन पकाने में सूर्य या हवा का कोइ ख़ास काम नहीं होता...वे तो पहले ही भोजन को पका चुके होते हैं.....
---- मूलतः तो भोजन को पकाना ही नहीं चाहिए ...हवा व सूर्य स्वय उन्हें पका कर आपको देते हैं ...दोबारा पकाने का कोई मतलब ही नहीं ...
पर ये बातें कैसे हो पाएंगी प्रवीण जी। उस युग को, जिसकी आप बात कर रहे हैं, हमने और हमारे पूर्वजों ने देखा था। आज के बच्चे को अगर केवल उसके बारे में पढ़ाया या बताया जाएगा तो उससे उनमें उस आदि सुदृढ़ व्यवस्था के प्रति वो लगाव नहीं पनपेगा, जो हम उसके प्रति उसे देख व अनुभव कर लेने के बाद महसूस करते हैं। और हम नहीं रहेंगे तो आगे इस पर कोई बात करने को भी राजी नहीं होगा, इसे अपनाना तो दूर की बात। और हम आज इसे अपना भी कैसे सकते हैं। गांव में जंगलों से लकड़ी काटने पर वन-संरक्षण के नाम पर बेतुकी पाबन्दी जो है। लकड़ी नहीं जलेगी तो चूल्हा कैसे जलेगा। हांडी की दाल चूल्हे में ही बनकर स्वादिष्ट होती थी। बहुत सी बातें हैं, जिन्हें लागू करने के लिए हमें सब त्याग कर हम जैसे बहुत से समवयस्कों को सब कुछ शहरी वस्तुओं और व्यवस्थाओं को छोड़कर वापस गांव में जाकर बसना होगा। तब ही आयुर्वेद के सिद्धांत का सही और उचित पालन हो सकता है। शहर में रहकर यकीन जानिए शहरी जीवन जीना और पुरातन व्यवस्था को अपनाने की हसरत पालने के अलावा कुछ नहीं होगा। यह अपने मन को तसल्ली देने के अलावा कुछ नहीं होगा। कुछ हो सकता है तो केवल अपने-अपने गांव जाकर ही कुछ हो सकता है। एक पीढ़ी को तो इसके लिए त्याग करना ही होगा। और वह पीढ़ी आप-हमारी ही हो सकती है। अन्यथा आगे की पीढ़ी को अपने सामने वो पुरातन व्यवस्था दिखेगी ही नहीं तो उसे अपनाने की बात तो छोड़ ही दीजिए।
ReplyDeleteसग्रहणीय पोस्ट है , कल माटी की हांडी खरीदने जाना है , अगर आनंद नहीं आया तो बिल आपको भेज दूंगा ! :)
ReplyDeleteलकड़ी के धुंए से घर की दीवारों को भी बचाना होगा अन्यथा छत पर पकाना होगा ताकि धुंआ दूसरों को तंग करे...
Deleteबात ओ आपकी सही है और मैं इस से सहमत भी हूँ। मगर वर्तमान हालात में जहां इंसान के पास सांस लेने के लिए भी फुर्सत नहीं है। वहाँ मिट्टी के बर्तन में दाल बनाने या हाथों की चक्की से आटा पीसने की ज़हमत कौन उठाएगा। पहले सनयुंक्त परिवार होते थे जिनमें घर के सदस्यों में काम बंट जाया करते थे। मगर आज एकल परिवार होते है जिनमें महज़ 3 या चार प्राणियों के लिए इतना कष्ट शायद ही कोई उठाने को राजी होगा। क्यूंकि आजकल तो पति पत्नी दोनों ही कामकाजी होते है फिर यह सब कैसे संभव हो सकता है।
ReplyDeleteसही कहा...फिर महिला आज़ादी का क्या होगा...वैसे दोनों पति-पत्नी मिलकर सुबह सुबह आटा-दाल पीसें तो कितना आनंदमय वातावरण होगा ...
Deleteआपकी इस प्रस्तुति को आज कि गूगल इंडोर मैप्स और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteउम्दा आकलन और विवरण है हालाँकि इस समय के अनुसार धीमे कार्य करना थोडा मुश्किल है . यथासंभव जो अपनाया जा सके !
ReplyDeleteसराह्नीय संग्रहणीय आलेख !
आदमी अपने पैर पर खुद ही कुल्हाड़ी मार रहा है...
ReplyDeleteपढ़ कर उस स्वाद और गुण की कल्पना से आनंदित हो गई ,पर शहरी जीवन में ,और भारत से बाहर ये सब कहाँ !
ReplyDeleteहम तो यह आलेख पढ़कर ही तृप्त हो गए , स्वाद आ गया माटी की हांड़ी का , उसके लिए शुक्रिया
ReplyDeleteअपनाना तो शायद अब किसी के लिए संभव नहीं हालाँकि कोशिश जरूर की जानी चाहिए .
ज्ञानदायी लेख | धन्यवाद ||
ReplyDeleteआपने मूल तत्व को बड़ी सहजता से समझा दिया। बस अब देखना यह है कि पालन कैसे हो? बचपन में तो सदा चक्की पीसते रहे, लेकिन अब कैसे सम्भव हो? लेकिन फिर भी आपके ज्ञान को उपयोग में लाने का प्रयास अवश्य रहेगा।
ReplyDeleteउपले की आँच हो, माटी की हांडी हो, लकड़ी के चूल्हे पर तवे की रोटी हो, सिलबट्टे पर पिसा मसाला हो, हाथ से पिसा आँटा हो..इससे अच्छा और स्वादिष्ट तो कुछ भी नहीं हो सकता प्रवीण जी मगर आज के दौर में यह सुख नवाबों के नसीब की बातें हैं। कभी-कभी साल में एकाध बार हमको भी इस नवाबी का अवसर मिलता है। आपके आलेख को पढ़कर सोच रहा हूँ कि असंतोषी मनुष्य देखते ही देखते कितना गरीब हो गया!
ReplyDelete----सही कहा बडोला जी... सब कुछ सत्य है.....पर पीछे लौटना असंभव ...सब कुछ समय पर आधारित है ...परन्तु कल्पना में आनंद तो लिया ही जा सकता है.....
ReplyDelete---- पहले हम गुफा में पेड़ों , जंगलों में रहते थे ..न कोइ कानूनी अड़चन न बंधन...अंतहीन स्वतन्त्रता.....अब इतने कानून ..बंधन कि मज़े से चलना भी दूभर ...सड़क पर ऐसे चलो ऐसे मत चलो....दो डंडों पर शिकार को लटका कर नीचे आग जलाकर मज़े से रोस्टेड खाते थे ..... जब उन्नत हुए , नगर बसाये और नौकर-चाकर से श्रम कम होगये, तवे की रोटी खाने लगे ....और उन्नत हुए सब विशेषज्ञ आगये और तमाम ताम-झाम के साथ वैज्ञानिक दृष्टियाँ ...तमाम रोगों से निजात ....पर नए नए रोगों का जन्म ..
--- अच्छा होगा हम पुनः जंगल में ही जा बसें ....परन्तु नगर की सुरक्षा-सुविधाएं...पिज्जा-बर्गर..समोसा-दोसालस्सी, चाय च्च च्च ...???????..कहीं भी कभी भी चैन नहीं ...
----बस एक ही तथ्य सच है कि स्वदेशी पर चलें ...चाहे मध्ययुगीन हो या आधुनिक युग की बात....
सच तो यही है कि सिर्फ रसोई ही नहीं...मानव जीवन का कोइ भी कर्म व व्यवहार बिना चिकित्सकीय परामर्श व सहायता के नहीं होता....
ReplyDeleteआँखें खोलने वाला लेख है ... तेजी के चलते कितन पीछे भी होते जा रहे हैं हम ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर विश्लेषण .......
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित आलेख...लेकिन आज विकास की दौड़ में हम यह सब भूलते जा रहे हैं और अधिकाँश गांवों में भी अब पुरानी प्रथाओं और तरीकों का कौन पालन करता है....
ReplyDeleteकल 07/03/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
आपने यथार्थ निष्कर्ष प्रस्तुत किया है, रसोई और भोजन विधि में बड़ी सहजता से आयुर्वेद को बुन लिया गया था। आहार में औषध, पोषण और स्वाद का बेमिसाल सम्मिश्रण भले आज के युग में उस शैली पर पूर्णतया लौटना सम्भव न हो, किन्तु इस कौशल की जानकारी और समझ होना भी बहुमूल्य है। इन में से कईं खाद्य विधियां ऐसी है जिनकी जानकारी से आहार को आवश्यक स्वास्थ्यवर्धक रखने में अच्छा सहयोग हो सकता है। इस गहन विवेचन के लिए आपका बहुत बहुत आभार, प्रवीण जी!!
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट है लेकिन सच यह है किआज की जीवन शैली हमें मशीनों पर निर्भर किये हुए है .
ReplyDeleteइस से बचने का उपाय नहीं क्योंकि सिलबट्टे पर पिसना या चक्की पर पिसना आदि समय और श्रम दोनों मांगते हैं ,बहुत बार तो डब्बेबंद और फ्रोजेन खाने पर निर्भर होना पड़ता है .
हाँ ,माटी की हांडी का तो प्रयोग यदा कदा हो सकता है.
जैविक शरीर के लिए अजैविक पद्धति कैसे सही होगी यह समझना जरूरी है संसार के लिए , तब ही जैविक पद्धतियों की मानव कल्याण हेतु महत्ता मानव समझ पायेगा | उत्तम लेख हेतु ह्रदय से सम्पूर्ण सम्मान के साथ साधुवाद |
ReplyDeleteआयुर्वेद अद्भुत है । यथार्थ पूर्ण सुंदर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteRECENT POST - पुरानी होली.
संकलनीय आलेख ! जिह्वा को तृप्त करने के लिए आजकल लोग सिर्फ खाद्य पदार्थ के स्वाद को महत्व देते हैं उसके बनाने के लिए किस प्रक्रिया का प्रयोग किया गया उसका विश्लेषण नहीं करते ! ना ही शायद आज की नौजवान पीढ़ी को इतना ज्ञान है ! आपका आलेख ज्ञान का विपुल भण्डार है !
ReplyDeleteइस श्रृंखला को मैंने अपने ब्लॉग में सहेज लिया है। लिंक यह रहा...http://merecomment.blogspot.in/
ReplyDeleteसूचनार्थ..सादर।
बहुत उपयोगी लेख |
ReplyDeleteआशा
अहिसाप्रेरित (अहिंसा प्रेरित )
ReplyDeleteजैनियों की आस्था निराधार तो कदाचित नहीं होगी, और
निश्चय
ही उसमें वाग्भट्ट के सूत्रों का स्वस्थ संचरण होगा।
मान्यवर बहुत ज्ञान वर्धक श्रृंखला चल रही है टंकड़ की चूक को
कृपया ठीक करें।
जी, ठीक कर लिया है, आभार।
Deletejo bhi mitti ki handi me pake ann ko grahan kar chuke hai hamesha uske swad ka gungan karte hai ..........bahut hi sundar lekh.....
ReplyDeleteअभी अभी हमारी लेखिका संघ की सभा से लोट आपका यह सार्थक आलेख पढ़ा .....आज वहां भीहमारे आ. अतिथि वक्ताओं ने भी बहुत
ReplyDeleteमिलती जुलती जानकारियाँ दी .हालांकि वे बड़े सर्जन और कैंसर विशेषज्ञ थे पर घूमफिर कर वही पथ्य-अपथ्य शारीरिक श्रम की बातें
जिसमे लोग कंजूसी करते हैं ....आभार पाण्डेय जी
दंग हूँ यह सब पढकर!! कितनी खरी और कितनी सहज!!
ReplyDeleteव्यतीत को समेटती सुन्दर पोस्ट
ReplyDeleteप्रवीण जी प्रशर कुकर को भी प्रेशर कुकर कर लें :
आपसे सहमत दरसल आधुनिक खानपान ने पहले तो खाद्यों को परिष्कृत बना दिया गन्ने -खजूर -चुकंदर से चीनी बना दी ,तेल को परिष्कृत कर दिया ,चावल और दालों को पोलिश कर दिया। रेशे खाद्य से अलग करदिए फिर खादाय रेशों की उपयोगिता ब्रेकफास्ट सीरियल्स के रूप में करते हैं मल्टीग्रेन ब्रेड ,होल्ग्रेन आल वीट ब्रेड की वकालत करते हैं। साग खाने के बाद पहले दांत कुरेदनी की ज़रुरत पड़ती थी मिक्सी आने के बाद सब कुछ बारीक हो गया। रेशे गायब होने के सतह भोजन आंत्र क्षेत्र में सड़ने लगा।
बेहतरीन पोस्ट आयुर्वेद के बुनियादी तत्वों की सहज सरल व्याख्या आधुनिक सन्दर्भ में करती आगे बढ़ रही है यह महत्वपूर्ण श्रृंखला।
यह सब बातें बहुत ही उपयोगी हैं , पर आज के युग में जब कि जीवन शैली पूरी तरह बदल गयी है ,तब इस प्रकार के भोजन की कल्पना करना भी सम्भव नहीं.जब कि इससे श्रेष्ठ और कोई पद्धति नहीं.फिर भी जहाँ तक हो हम जितना भी इसे अपना सकें अपनाना चाहिए.
ReplyDeleteइतना लाभप्रद लेख मैने अबसे पहले कम ही पढा है , जन जन को निरोग बनाने का । आप ये बताने का जरूर कष्ट करें कि माटी की हांडी का उपयोग कैसे कर रहे हैं ?
ReplyDeleteआपके इस लेख को अपनी फेसबुक वाल व अन्य जगह शेयर करना जरूरत है
बेहद गहन आंकलन ..... सराहनीय प्रयास
ReplyDeleteआभार इस उत्कृष्ट पोस्ट के लिये
सादर प्रणाम |अद्भुत ...अथाह ज्ञान से भरा |अलमुनियम की हानियों ,के बारे में संदेह हैं ,बस इतना पता हैं की भरी धातु शरीर में बैठ जाती हैं और हानि बहुत पहुचती हैं ..किडनी ,लीवर को ,माटी की हांडी में दाल की याद दिला डी आपने ..इतना अद्भुत दैवीय स्वाद वाली दाल ...मैंने बचपन में खाया था |बहुत बहुत आभार इस लेख के लिए |
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