दिनचर्या और ऋतुचर्या के पश्चात जीवनचर्या पर विमर्श स्वाभाविक है। बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था के लिये आयुर्वेद का उपयोग थोड़ा भिन्न हो जाता है। तीनों अवस्थाओं के लिये नियम समान नहीं रह सकते क्योंकि शरीर की प्रकृति अवस्था के साथ परिवर्तित हो जाती है। बच्चों में कफ, युवाओं में पित्त और वृद्धों में वात अधिक होता है। बच्चों की त्वचा की स्निग्धता और सौम्यता इसका प्रमाण है। काप्य ऋषि के अनुसार कफ के समान्य गुण दृढ़ता, उपचय,, उत्साह, वृषता, ज्ञान, बुद्धि आदि हैं। असामान्य कफ इसके विपरीत गुण लाता है जो क्रमशः शैथिल्य, कार्श्य, आलस्य, क्लीबता, अज्ञान, मोह आदि का प्रेरक है।
कफ में पढ़े न कोय |
यह कफ का ही प्रभाव होता है कि बच्चों को बहुत अधिक और गाढ़ी नींद आती है, वहीं दूसरी ओर वात के प्रभाव में वृद्धों की नींद कम और अस्थिर होती है। विकास की दृष्टि से यह नींद आवश्यक है। शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास के लिये शरीर में स्थिरता चाहिये और कफ वह स्थिरता प्रदान करता है। कफ में गुरु का गुण है, गुरु शरीर में रक्त के दबाव को बढ़ाता है, नींद से वह पुनः कम होता है। नींद कम होने से भी कफ कुपित होता है, इससे बच्चे में चिड़चिड़ापन आता है। यदि बच्चा चिड़चिड़ाता है तो सीधा मान लीजिये कि उसकी नींद पूरी नहीं हुयी है। चिड़चिड़ेपन में वह बहुधा आपका कहना भी नहीं मानता है। इस स्थिति में आप उसे बलात पढ़ने बैठा भी देंगे तो वह मेज पर ही सो जायेगा। सोने के बाद ही वह अच्छा अनुभव करता है, प्रसन्नचित्त रहता है और आपकी बात मानता है। नवजात शिशु तो १६ घंटे तक सोता है, ५ से १४ वर्ष तक के बच्चों के लिये १० घंटे तक की नींद पर्याप्त है। संभव हो सके तो यह नींद दो भागों में दी जाये।
कफ की अधिकता के कारण बच्चे को कफजनित रोग ही बहुतायत में होते हैं। कफ का प्रभावक्षेत्र सर से हृदय तक होता है, आँख, कान, नाक, गले में खासीं, ठंड आदि में। बच्चों को यथासंभव कफ की विकृति से बचाना चाहिये। नियमित मालिश, कान में तेल, काजल आदि अधिक एकत्रित कफ को हटा देते हैं। बिगड़े कफ में पढ़ाई भी नहीं हो सकती है, आपकी नाक बह रही हो और आप पढ़कर या ध्यान लगा कर देखिये।
कफ कल्पनाशीलता का भी द्योतक है, यही कारण है कि बच्चों को कहानी सुनना और बातें बनाना बहुत अच्छा लगता है। यदि कल्पनाशीलता न होगी तो मानसिक और बौद्धिक विकास ठहर जायेगा। यदि आप उनकी कल्पना की उड़ानों में सहयोगी नहीं बनेंगे, तो वे टीवी में कार्टून आदि देखकर अपनी कल्पना को आयाम देंगे। उनकी कल्पनाशीलता को शमित करने के स्थान पर उसे भ्रमित या कुंठित करने से कफ व्यथित होता है।। इस कारण से भी बच्चों में चिड़चिड़ापन आता है। इसके कुप्रभाव से अपने बच्चे को किसी भी प्रकार से बचायें। कल्पनाशीलता के साथ कफ प्रेम का भी कारक है, प्रेम के और कफ के गुण देखें तो उनमें एक विशिष्ट साम्यता परिलक्षित होती है। कफ कुपित होने से वही कल्पनाशीलता और प्रेम विकृत हो जाता है। पाश्चात्य देशों में बच्चों में बढ़ती आपराधिक प्रवृत्ति इसी कफ विकृति का परिणाम है। सामान्य कफ यदि स्थिरता लाता है तो असामान्य कफ अस्थिरता।
बच्चों को व्यायाम नहीं करने देना चाहिये, व्यायाम से लघुता आती है और वृद्धि बाधित होती है। उन्हें उनके रुचिकर खेल खेलने दें, इससे उनका मनोरंजन भी होता है और अन्यथा वात भी नहीं बढ़ता है। सुबह के विद्यालय बच्चों को सदा ही कष्टकर लगते हैं, उठने की इच्छा नहीं होती है, सुबह का समय कफ का जो होता है। सुबह उठाने के लिये रात में शीघ्र सुलाना आवश्यक है, रात में बड़े लोग स्वयं टीवी देखने के चक्कर में बच्चों को भी जगाते रहते हैं और फिर विद्यालय भेजने के लिये पुनः उठाकर बैठा देते हैं। विद्यालय थोड़ी देर से हों तो बहुत अच्छा, नहीं तो बच्चों को विद्यालय खाली पेट नहीं भेजना चाहिये, भोजन करा कर ही उन्हें विद्यालय भेजें। सूक्ष्म अन्न बच्चों के लिये अत्यन्त हानिकारक है, यह वात बढ़ाता है। मैदे के पकवान, जैसे समोसे, मटरी बच्चों के लिये अनुपयुक्त है। उससे भी अधिक पिज्जा और बर्गर हानिकारक हैं। यदि स्वाद लाना ही है तो घर में ही गेहूँ, मक्के आधारित पकवान बना लें।
युवावस्था पित्त प्रधान होती है। शरीर में पित्त के सामान्य गुण हैं, पाचन, दृष्टि, ऊष्मा, वर्ण, शौर्य, हर्ष। पित्त कुपित होने पर यही गुण क्रमशः अपाचन, दृष्टिक्षयता, ज्वर, वर्णविकृति, भय, क्रोध में बदल जाते हैं। युवावस्था कर्म और धातुसंचय की अवस्था होती है। इसमें ७-८ घंटे की नींद ही पर्याप्त है। दातून, प्रणायाम, व्यायाम, मालिश, स्नान, पोषणयुक्त सुखकारक और स्वादिष्ट भोजन, व्यवसाय निरत रहना आदि इस काल के लक्षण हैं। महिलाओं के सारे व्यायाम रसोई में ही हो जाते हैं। पढ़ने वाले युवाओं के लिये पित्तकारक स्थिति सर्वाधिक हितकारी है, इसी में सबसे अच्छा अध्ययन होता है। पित्त में व्यायाम के बाद मालिश की जाती है, जिनमें वात की अधिकता होती है उन्हें मालिश के बाद व्यायाम लाभकारी होता है। परिवार का पालन, उद्यम और संततियों का लालन पालन इसी काल में होता है। पित्त जीवन को ऊर्जामय रखता है। पित्त कुपित होने से सामान्य जीवन में तनाव आता है। युवावस्था में मनोवैज्ञानिक रूप से स्वस्थ रहना आवश्यक है, ऐसा नहीं होने से ही अधिकांश रोग आ जाते हैं और वृद्धावस्था में पीड़ा का कारण बनते हैं। युवावस्था १५ से ६० वर्ष तक मानी है, युवावस्था के उत्तरार्ध में वात बढ़ने लगता है।
चीनी पित्त के लिये विशेषरूप से हानिकारक है, आधे से अधिक रोगों की जड़ है और रक्त अम्लता की एकमात्र कारक है। हो सके तो उसके स्थान पर गुड़ खायें, चीनी की चाय के स्थान पर गुड़ की चाय पियें। चीनी पचने के बाद अम्लीय हो जाती है, जबकि गुड़ पचने के बाद क्षारीय रहता है। चीनी में सुक्रोस है, इसमें कुछ भी पोषक गुण नहीं होते हैं, न यह स्वयं पचता है, और जिसके साथ खाया जाये उसे पचने भी नहीं देता है। चीनी में मिला सल्फर शरीर से निकालना कठिन हो जाता है। चीनी बनाने में पानी बहुत व्यर्थ होता है और प्रदूषित पदार्थ को निपटाना कठिन हो जाता है। चीनी के अतिरिक्त प्रकृति की बनायी हर मधुर चीज में फ्रक्टोस है। गुड़ में भी मिठास है और उसकी रासायनिक प्रक्रिया न्यूनतम है। हर भोजन के बाद थोड़ी मात्रा में गुड़ खाने से भोजन शीघ्र पचता है और यदि उसी स्थान पर चीनी खा ली तो पाचन में और समय लगता है। मैं पित्त के प्रभाव वाली अवस्था में हूँ और यह पढ़कर चीनी का प्रयोग यथासंभव बंद कर चुका हूँ। उसके स्थान पर गुड़ का सेवन करने से एसिडिटी आदि से त्वरित आराम है, साथ ही साथ जीवन में गुड़ सा सोंधापन भी आ गया है।
वात के बारे में पिछली कड़ियों में विस्तृत चर्चा हो चुकी है। वृद्धावस्था में सप्रयास वात न बढ़ने दें। ६० के ऊपर व्यायाम निषेध है, मालिश नित्य आवश्यक है क्योंकि इससे वात घटता है। जीवन को मन्दगति पर ले आयें, विश्राम करें और निस्पृह भाव से केवल दिशानिर्देश करें। कोई कहना न माने तो न ही क्रोधित हों और न ही चिन्ता करें। संभवतः इसीलिये ईश्वर की भक्ति का मार्ग इस आयु में स्वास्थ्य की दृष्टि से सर्वोत्तम माना गया है।
जीवन को परिवेश के अनुसार चलना चाहिये। जिस स्थान पर रह रहे हैं, जिस मौसम में जी रहे हैं, वहाँ की स्थानीय और तात्कालिक भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार उत्पादों का उपयोग करना चाहिये। कोई भी चीज जिस वातावरण में पैदा होती है, उसमें उस वातावरण से उत्पन्न विकारों से लड़ने की क्षमता होती है। गर्मी में होने वाले फल जल देते है। जाड़े में मूँगफली होती है, जो ऊष्मा देती है, बसा देती है और साथ ही प्रकृति उसे पचाने के लिये अधिक जठराग्नि भी देती है। एक सरल सा सिद्धान्त है कि जो वस्तु जहाँ होती है, वह वहीं के मौसम के अनुकूल होती है। चाय भी ऐसी ही वस्तु है। चाय ठंडी जगहों में होती है और अपने गुण के अनुसार उच्च रक्तचाप बढ़ाती है। ठंडे में रहने वालों लोगों में रक्तचाप कम होता है तो उनको चाय की आवश्यकता होती है। मैदान पर रहने वालों का तो रक्तचाप वैसे ही बढ़ा रहता है, इस स्थिति में चाय हानिकारक हो जाती है। चाय के स्थान पर अपनी प्रकृति के अनुसार काढ़ा पियें, जिससे आपको लाभ हो। यदि चाय की लत लग गयी है तो कम पत्ती डालें। यदि पीना ही पड़े तो हरे पत्ती की चाय लाल पत्ती की चाय से कहीं अच्छी है।
स्वप्रकृति के अनुसार दिनचर्या, ऋतुचर्या और जीवनचर्या का अनुप्रयोग सामान्य भोजन को ही औषधि का मान दे देता है और यथासंभव रोगों को दूर रखता है। यदि फिर भी रोग हुआ तो आयुर्वेद में चिकित्सा की भी सुदृढ़ प्रस्थापना है। उसके बारे में आगामी कड़ियों में।
चित्र साभार - www.theguardian.com
" राजवत् पञ्चवर्षाणि दशवर्षाणि दासवत् ।
ReplyDeleteप्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्र वदाचरेत् ॥"
बच्चों के साथ पॉच वर्ष तक राजा के समान, दस वर्ष तक सेवक के समान व्यवहार होना चाहिए और जब सोलह बरस का हो जाता है तो उसके साथ , मित्र-वत व्यवहार होना चाहिए ।
आयुर्वेद का इतिहास बहुत ही समृध्द है । राजीव दीक्षित भैया ने इस पर बहुत शोध किया है । वे पूरे प्रमाण के साथ बताते हैं कि आयुर्वेद में अॅग- प्रत्यारोपण भी बडी सफाई से हुआ करता था । वे राजा रणजीत सिंह के विषय में एक सच्ची घटना बताते थे कि - एक अॅग्रेज़ ने राजा रणजीत सिह पर आक्रमण कर दिया । राजा ने उनको खदेड दिया । उसने इसी तरह छः बार आक्रमण किया और रनजीत सिंह ने उसे खदेड दिया पर जब उसने सातवीं बार फिर आक्रमण किया तो रणजीत सिंह ने उसे मारा तो नहीं पर उसकी नाक , काट दी । अॅग्रज वहॉ से भागता हुआ ,एक गॉव में पहुँचा । वहॉ उसकी नाक में पट्टी बँधी देखकर एक व्यक्ति ने उससे कहा - " तुम्हें नाक में तकलीफ है क्या ? " अॅग्रेज ने उसे पूरी बात बता दी । उसने कहा - " आओ ! मैं ऑपरेशन से ठीक कर देता हूँ ।" अॅग्रेज़ को आश्चर्य हुआ क्योंकि उस समय तक , इंग्लैण्ड में सर्ज़री नहीं हुआ करती थी । वह ऑपरेशन के लिए मान गया और फिर उस वैद्य ने ऐसी सर्जरी की कि अॅग्रेज़ आश्चर्य से भर गया । उसने वैद्य की तारीफ करते हुए कहा कि - " दुनियॉ में तुम्हारे समान कोई नहीं है , तब उस वैद्य ने कहा था- " हमारे देश में हर गॉव में मुझ जैसा वैद्य मिल जाएगा ।" अॅग्रेज हफ्ते भर बाद अपने देश पहुँचा तो उसने अपने
ReplyDeleteदुर्भाग्य ही है कि हम ही अपनी पद्धति और परम्पराओं को भूल रहे हैं जबकि सारा जगत उसे अपनाने की ओर बढ़ रहा है शायद हम पर उपदेश कुशल बहुतेरे की उक्ति को चरितार्थ करने में ही विश्वाश करने लगे हैं
ReplyDeleteबहुत ही उपयोगी आलेख.
ReplyDeleteभैया आपका लेख बहुत ही उत्क्रिस्ट श्रेणी का है , पढ़ के बहुत अछा ल्गा, किन्तु थोड़ा सा मतभेद है १ पंक्ति मे.."बच्चों को व्यायाम नहीं करने देना चाहिये, व्यायाम से लघुता आती है और वृद्धि बाधित होती है" . सूर्य नमस्कार को सर्वोतम व्यायाम माना गया है। और शास्त्रो मे कहीं भी ऐसा वर्णित नहीं है जो ऐसे व्यायाम से वृद्धि की बाधितता को परिलक्षित करता हो .
ReplyDeleteआपका कहना सही है, पर उनका खेलकूद में ही इतना व्यायाम हो जाता है कि उन्हें अन्य व्यायाम की आवश्यकता नहीं। खेलने में व्यायाम और मनोरंजन, दोनों ही निहित हैं।
Delete१3 साल से कम उम्र के बच्चों औपचारिक व्यायाम नहीं करने देना चाहिए. यह हर जगह कहा जाता है. इसीलिए बच्चों के लिए खेल होते हैं. पश्चिमी सभ्यता में भी १३ साल के कम बच्चों को जिम आदि उपयोग करने की इजाजत नहीं होती.
Deleteउत्तम लेख ,बहुत कुछ सीखने ,समझने ,जानने को मिला
ReplyDeleteबहुत ही उपयोगी आलेख.बहुत कुछ सीखने को मिला. आभार..
ReplyDeleteवाह जी !!! आप तो डॉ ही बनते जा रहे हैं... बढ़िया है। हमें भी पिछले कुछ दिनों से आपकी आयुर्वेद के नियमों पर आधारित पोस्ट पढ़ना बड़ा अच्छा लग रहा है। आभार...
ReplyDeleteक्या बात है प्रवीण भाई !
ReplyDeleteदिनचर्या और ऋतुचर्या के पश्चात जीवनचर्या पर विमर्श स्वाभाविक है। बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था के लिये आयुर्वेद का उपयोग थोड़ा भिन्न हो जाता है। तीनों अवस्थाओं के लिये नियम समान नहीं रह सकते क्योंकि शरीर की प्रकृति अवस्था के साथ परिवर्तित हो जाती है। बच्चों में कफ, युवाओं में पित्त और वृद्धों में वात अधिक होता है। बच्चों की त्वचा की स्निग्धता और सौम्यता इसका प्रमाण है। काप्य ऋषि के अनुसार कफ के समान्य गुण दृढ़ता, उपचय,, उत्साह, वृषता, ज्ञान, बुद्धि आदि हैं। असामान्य कफ इसके विपरीत गुण लाता है जो क्रमशः शैथिल्य, कार्श्य, आलस्य, क्लीबता, अज्ञान, मोह आदि का प्रेरक है।
अतिशय उपयोगी अंश नाश्ता करना ज़रूरी है ताकि मष्तिष्क के न्यूरॉनों को समय से पोषण मिले:
बच्चों को व्यायाम नहीं करने देना चाहिये, व्यायाम से लघुता आती है और वृद्धि बाधित होती है। उन्हें उनके रुचिकर खेल खेलने दें, इससे उनका मनोरंजन भी होता है और अन्यथा वात भी नहीं बढ़ता है। सुबह के विद्यालय बच्चों को सदा ही कष्टकर लगते हैं, उठने की इच्छा नहीं होती है, सुबह का समय कफ का जो होता है। सुबह उठाने के लिये रात में शीघ्र सुलाना आवश्यक है, रात में बड़े लोग स्वयं टीवी देखने के चक्कर में बच्चों को भी जगाते रहते हैं और फिर विद्यालय भेजने के लिये पुनः उठाकर बैठा देते हैं। विद्यालय थोड़ी देर से हों तो बहुत अच्छा, नहीं तो बच्चों को विद्यालय खाली पेट नहीं भेजना चाहिये, भोजन करा कर ही उन्हें विद्यालय भेजें। सूक्ष्म अन्न बच्चों के लिये अत्यन्त हानिकारक है, यह वात बढ़ाता है। मैदे के पकवान, जैसे समोसे, मटरी बच्चों के लिये अनुपयुक्त है। उससे भी अधिक पिज्जा और बर्गर हानिकारक हैं। यदि स्वाद लाना ही है तो घर में ही गेहूँ, मक्के आधारित पकवान बना लें।
"युवावस्था १५ से ६० वर्ष तक मानी है, युवावस्था के उत्तरार्ध में वात बढ़ने लगता है।"
ReplyDeleteक्या बात है एक दम सटीक हमारी तो अभी युवावस्था ही चल रही है उम्र है ६७ साल व्यक्तित्व (मिज़ाज़ )है कफ प्रधान।
एक दम सही कहा है आपने "चीनी पोषक तत्वों को नष्ट करती है मिनरल्स की लीचिंग करती है।
"
चीनी पित्त के लिये विशेषरूप से हानिकारक है, आधे से अधिक रोगों की जड़ है और रक्त अम्लता की एकमात्र कारक है। हो सके तो उसके स्थान पर गुड़ खायें, चीनी की चाय के स्थान पर गुड़ की चाय पियें। चीनी पचने के बाद अम्लीय हो जाती है, जबकि गुड़ पचने के बाद क्षारीय रहता है। चीनी में सुक्रोस है, इसमें कुछ भी पोषक गुण नहीं होते हैं, न यह स्वयं पचता है, और जिसके साथ खाया जाये उसे पचने भी नहीं देता है। चीनी में मिला सल्फर शरीर से निकालना कठिन हो जाता है। चीनी बनाने में पानी बहुत व्यर्थ होता है और प्रदूषित पदार्थ को निपटाना कठिन हो जाता है। चीनी के अतिरिक्त प्रकृति की बनायी हर मधुर चीज में फ्रक्टोस है। गुड़ में भी मिठास है और उसकी रासायनिक प्रक्रिया न्यूनतम है। हर भोजन के बाद थोड़ी मात्रा में गुड़ खाने से भोजन शीघ्र पचता है और यदि उसी स्थान पर चीनी खा ली तो पाचन में और समय लगता है।"
चीनी चूस लेती है शरीर से खनिज (लवण )
ReplyDeleteसोलह आने खरी बात :
ReplyDelete"वात के बारे में पिछली कड़ियों में विस्तृत चर्चा हो चुकी है। वृद्धावस्था में सप्रयास वात न बढ़ने दें। ६० के ऊपर व्यायाम निषेध है, मालिश नित्य आवश्यक है क्योंकि इससे वात घटता है। जीवन को मन्दगति पर ले आयें, विश्राम करें और निस्पृह भाव से केवल दिशानिर्देश करें। कोई कहना न माने तो न ही क्रोधित हों और न ही चिन्ता करें। संभवतः इसीलिये ईश्वर की भक्ति का मार्ग इस आयु में स्वास्थ्य की दृष्टि से सर्वोत्तम माना गया है। "
इसीलिए मौसमी फल और स्थानीय साग भाजी ही भली बारहमासी कृत्रिम गोभी और मटर से :
ReplyDeleteमुम्बई में हरे साग और फलियां कीहोती हैं केले का फूल भी खाया जाता है चौलाई का लाल साग भी हरा भी ,और देसी पालक का तो कहना ही क्या 'पूरई 'कहा जाता है इसे यहाँ।
"जीवन को परिवेश के अनुसार चलना चाहिये। जिस स्थान पर रह रहे हैं, जिस मौसम में जी रहे हैं, वहाँ की स्थानीय और तात्कालिक भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार उत्पादों का उपयोग करना चाहिये। कोई भी चीज जिस वातावरण में पैदा होती है, उसमें उस वातावरण से उत्पन्न विकारों से लड़ने की क्षमता होती है। गर्मी में होने वाले फल जल देते है। जाड़े में मूँगफली होती है, जो ऊष्मा देती है, बसा देती है और साथ ही प्रकृति उसे पचाने के लिये अधिक जठराग्नि भी देती है। एक सरल सा सिद्धान्त है कि जो वस्तु जहाँ होती है, वह वहीं के मौसम के अनुकूल होती है। चाय भी ऐसी ही वस्तु है। चाय ठंडी जगहों में होती है और अपने गुण के अनुसार उच्च रक्तचाप बढ़ाती है। ठंडे में रहने वालों लोगों में रक्तचाप कम होता है तो उनको चाय की आवश्यकता होती है। मैदान पर रहने वालों का तो रक्तचाप वैसे ही बढ़ा रहता है, इस स्थिति में चाय हानिकारक हो जाती है। चाय के स्थान पर अपनी प्रकृति के अनुसार काढ़ा पियें, जिससे आपको लाभ हो। यदि चाय की लत लग गयी है तो कम पत्ती डालें। यदि पीना ही पड़े तो हरे पत्ती की चाय लाल पत्ती की चाय से कहीं अच्छी है।"
मुम्बई में अंजीर भी बहुत होता है इसका ज्यूस भी मिलता है ताज़े फल भी पत्तों में पेकिंग के साथ कब्ज़ भगाता है अंजीर। सूखा अंजीर डोरी में पिरोकर बेचा जाता है रात को
ReplyDeleteतीन चार सूखे अंजीर भिगो दें एक ग्लास पानी में सुबह उठके पानी पी जाएँ अंजीर खा जाएँ कब्ज़ का बाप भी भागेगा।
आसपास चीकू के बे -हिसाब बाग़ हैं। केले (छोटे वाले )और नारियल ताज़ा पानी और मलाईवाला बे -इंतहा है।
ReplyDeleteजितना प्रकृति के निकट रहिये उतना ही लाभकारी होता है |
ReplyDeleteस्वस्थ जानकारी के लिए आभार...
ReplyDeletethanks for this nice information praveen ji .
ReplyDeleteस्वस्थ रहने के उपाय... अच्छी जानकारी के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteसेहत के मीठे सूत्र ... बच्चों के स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी बहुत अच्छी लगी
ReplyDeleteबहु आयामी पोस्ट ... कफ और वात का प्रभाव कितना कुछ असर डालता है जीवन चर्या पर ...
ReplyDeleteआपका स्वस्थ और आयुर्वेद का गहरा अध्यन कईयों को लाभ पहुंचा रहा है ..
वाह , क्या बढ़िया काम कर रहे हैं आप आजकल :)
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट.आयुर्वेद पर सुलभ जानकारी !!
ReplyDeleteआपकी हर पोस्ट से कुछ न कुछ नया सीखने को मिलता है ...! आभार प्रवीण जी ....
ReplyDeleteRECENT POST - प्यार में दर्द है.
उपयोगी जानकारी !
ReplyDeleteअच्छी जानकारी मिली !
ReplyDeleteउपयोगी जानकारी के लिए आभार....
ReplyDelete
ReplyDeleteबच्चों को व्यायाम नहीं करने देना चाहिये, व्यायाम से लघुता आती है और वृद्धि बाधित होती है। उन्हें उनके रुचिकर खेल खेलने दें, इससे उनका मनोरंजन भी होता है और अन्यथा वात भी नहीं बढ़ता है। सुबह के विद्यालय बच्चों को सदा ही कष्टकर लगते हैं, उठने की इच्छा नहीं होती है, सुबह का समय कफ का जो होता है। सुबह उठाने के लिये रात में शीघ्र सुलाना आवश्यक है, रात में बड़े लोग स्वयं टीवी देखने के चक्कर में बच्चों को भी जगाते रहते हैं और फिर विद्यालय भेजने के लिये पुनः उठाकर बैठा देते हैं। विद्यालय थोड़ी देर से हों तो बहुत अच्छा, नहीं तो बच्चों को विद्यालय खाली पेट नहीं भेजना चाहिये, भोजन करा कर ही उन्हें विद्यालय भेजें।
सुबह का नाश्ता बाल गोपालों के लिए बेहद ज़रूरी है कमसे कम आठ घंटा हर रात नींद भी उतनी ही ज़रूरी है। सुन्दर लेखमाला मोती ही मोती चुनकर देखें।
Ayurved par itni achchhee jankari ! wah bhai wah !!
ReplyDeleteशुक्रिया भाई साहब आपकी निरंतर सार्थक प्रेरक टिप्पणियों का।
ReplyDeleteGreat Going, PP Bhai!
ReplyDeleteक्या बात है.. आयुर्वेद पर शानदार शॄंखला.
ReplyDeleteअत्यंत उपयोगी जानकारी, आभार.
ReplyDeleteरामराम
इस सुदृढ़ प्रस्थापित आलेख ने स्वास्थ्य की दिशा में आयुर्वेदानुसार चलने और सोचने को अत्यन्त विवश कर दिया है। आपका प्रयास निश्चित ही बहुत सराहनीय है।
ReplyDeleteकड़क चायकी लत लग चुकी है गरम जलवायु में भी।
ReplyDeleteइन सब कड़ियों का प्रिंट लेकर तसल्ली से पठन-पाठन करना है।
ReplyDeleteकाश! बच्चे अपने घर में सिखायी गयी ऐसी ही छोटी-छोटी बातों को आजीवन याद रख पाते और उसे अपने जीवन में उतार पाते..
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