यदि पृथ्वी २३.४ डिग्री पर झुकी न होती तो इतनी ऋतुयें न होतीं, तापमान सम रहता। यह हमारा भाग्य है कि हमारे यहाँ ६ ऋतुयें हैं और संसार में जितनी भी प्रकार की जलवायु है, वे किसी न किसी अंश में हमारे देश में उपस्थित है। व्यक्ति की कफ, पित्त, वात प्रकृति, दिन रात का परिवर्तन और ऋतुओं का परिवर्तन, ये तीनों कारक शरीर को विशिष्ट रूप से प्रभावित करते हैं और इसे समझाने के लिये वाग्भट्टजी ने ऋतुचर्या के नाम से एक पूरा अध्याय लिखा है। ऋतुसंबंधी बातों पर ध्यान देंगे तो याद आता है कि हमारे पूर्वजों ने ऋतु के अनुसार खाद्य अखाद्य की एक लम्बी सूची हमें बतायी है, आइये उनके आधार जान लें।
क्या जानूँ, क्या भाव प्रकृति का |
६ ऋतुयें हैं, शिशिर, बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त। ऋतुयें सूर्य के चक्र को मानती हैं। प्रथम तीन ऋतुयें सूर्य के उत्तरायण काल में रहती हैं, सूर्य की ऊष्मा से सौम्यता शोषित होने के कारण इसे आदान काल भी कहा जाता है। शेष तीन ऋतुयें सूर्य के दक्षिणायन काल की हैं और बल बढ़ने से इसे विसर्ग काल भी कहा जाता है। सूर्य की खगोलीय स्थिति के अनुसार समझें तो जब दिन और रात की अवधि समान होती है, तो वे बसन्त और शरद के मध्य बिन्दु होते हैं, क्रमशः मार्च और सितम्बर में। जब सूर्य सर्वाधिक उत्तर में होता है तो ग्रीष्म समाप्त होती है, जब सूर्य सर्वाधिक दक्षिण में होता है तब हेमन्त समाप्त होती है। हिन्दी माह के अनुसार देखें तो माघ में शिशिर से प्रारम्भ होकर दो दो माह की एक ऋतु होती है।
सूर्य, जल और वायु, तीनों किन्हीं भी दो ऋतुओं में समान नहीं रहते हैं, कभी गर्मी रहती है, कभी नमी, कभी शुष्कता, कभी शीत, तो कभी गलन। यही परिवर्तन शरीर को प्रभावित करता है और उसका संतुलन बिगाड़ता है, इस प्रकार दोष संचित होते हैं। आयुर्वेद के अनुसार एक ऋतु में किसी दोष का संचय होता है, उसकी अगली में उसका प्रकोप और उसकी अगली में उसका प्राशय या लोप होता है। कफ का संचय शिशिर में, प्रकोप बसन्त में और प्राशय ग्रीष्म में होता है। वात का संचय ग्रीष्म में, प्रकोप वर्षा में और प्राशय शरद में होता है। पित्त का संचय वर्षा में, प्रकोप शरद में और प्राशय हेमन्त में होता है। इससे यह स्पष्ट हो जायेगा कि स्वास्थ्य की दृष्टि से सर्वाधिक पुष्ट ऋतुयें हेमन्त और शिशिर हैं और सर्वाधिक सावधानीपूर्ण वर्षा है।
व्यक्ति की जठराग्नि उसके शारीरिक बल के समानुपाती होती है। शरीर में जितना अधिक बल रहेगा, भूख उतनी ही खुल कर लगेगी, उतना ही अच्छा पाचन भी होगा। व्यायाम करने से बल बढ़ता है, बल से जठराग्नि बढ़ती है, बढ़ी जठराग्नि से पोषण अच्छा होता है और व्यायाम के लिये और ऊर्जा मिलती है, यही शरीर के पोषण का चक्र है। पर जब सूर्य या किसी अन्य वाह्य प्रभाव से शरीर का बल कम होने लगता है, तब जठराग्नि भी उसी अनुपात में प्रभावित होती है। ग्रीष्म और वर्षा में अल्प, बसन्त और शरद में मध्य, हेमन्त और शिशिर में उच्च बल और जठराग्नि रहती है। ऋतुचर्या जठराग्नि और कफ, वात और पित्त के प्रभाव के आधार पर ही भोजन और रहन सहन की सलाह देती है।
हेमन्त और शिशिर में शीत वात की चादर और गर्म कपड़े शरीर की ऊष्मा को बाहर जाने से रोकते हैं, जिससे जठराग्नि बढ़ती है। जब जठराग्नि बढ़ी हो तो उस समय ऐसा भोजन करना चाहिये जो गरिष्ठ हो और उसे पचने में अधिक समय लगे। ऐसा नहीं करने पर किया हुआ भोजन शीघ्र ही पच जाता है और शेष बची अग्नि रसादि धातुओं को भी पचाने का कार्य करने लगती है, जो वातकारक होता है। उस समय वात बढ़ने से अग्नि को और बल मिलता है और वह और भड़कती है, जब तक वह शमित न हो जाये। इस ऋतु में भूखे रहने से शरीर की हानि होती है। यही समय होता है कि हम अपने शरीर का अधिकतम पोषण कर सकते हैं, इस समय का खाया सब पच जाता है। कितने सुखद आश्चर्य की भी बात है कि प्रकृति भी इस समय मुक्त हस्त से सब लुटाती है, खेत, खलिहान, पेड़, पौधे आदि बस जीवों के पोषण में रत दीखते हैं। इस समय घी, दूध, मूँगफली, गुड़, तिल आदि जो भी मिले, खाना चाहिये, यह मानकर कि यही वर्ष का पोषण काल है। उस खानपान को साधे रखने के लिये और अतिरिक्त कफ को बाहर निकालते रहने के लिये मालिश, व्यायाम करते रहें। शिशिर में वातावरण में तनिक रुक्षता बढ़ जाती है, उस समय वातवर्धक भोजन से स्वयं को बचा कर रखें।
शिशिर के बाद बसन्त ऋतु आती है और हेमन्त शिशिर का एकत्र कफ पिघलने लगता है, यह कफ का प्रकोप काल भी है। कफ की अधिकता जठराग्नि को मन्द करती है। इस ऋतु में व्यायाम करें और उबटन लगायें, उबटन भी कफनाशक होता है। जल ऊष्ण पियें, यह भी कफ कम करने में सहायक होता है। कहते हैं कि बसन्ते भ्रमणं पथ्यं, अर्थात बसन्त में टहलने से पोषण बढ़ता है। ग्रीष्म में आकाश से अग्नि बरसती है और कफ का प्राशय होता है। तेज चलती गर्म हवाओं में सूक्ष्मता होती हैं, ये वातकारक वातावरण है, इस समय वातसंचय होता है। वात को दूर करने के उपाय इस काल की ऋतुचर्या है। शीतल पेय यथासंभव पियें और आप देखेंगे कि इस समय के फलों में पर्याप्त मात्रा में जल रहता है, जैसे तरबूज, खरबूज, खीरा, ककड़ी आदि। किसी और ऋतु में दिवास्वप्न या दोपहर में सोने का निषेध है, पर ग्रीष्म में कफ संरक्षित करने की दृष्टि से दोपहर में सोना आवश्यक है। रात के समय हल्के कपड़ों में चन्द्रमा के नीचे और छत पर सोना चाहिये।
वर्षा में वात का प्रकोप और पित्त का संचय होता है। चिलचिलाती धूप और वाष्पित होते पानी से पित्त कुपित हो जाता है। नम वाष्प त्रिदोष का संतुलन बिगाड़ देती है। जठराग्नि कम होने से भोजन पचता नहीं है, जिससे धातुक्षय होता है और वात बढ़ता है। अग्नि यदि हल्की हो तो वात उस पर विपरीत प्रभाव डालता है और उसे बुझा देता है, जिससे जठराग्नि और भी कम हो जाती है। पसीने के द्वारा शरीर की ऊष्मा भी बाहर निकलती रहती है। इस समय भोजन अत्यन्त सीमित करना चाहिये और पित्त को और भड़कने से रोकना चाहिये। साथ ही जल और शाक दूषित होने से संयमित आहार विहार का भी पालन करना चाहिये। चातुर्मास में एक स्थान पर रह कर ही आहार विहार का प्रावधान है, इस ऋतु में स्वास्थ्य रक्षा सर्वाधिक आवश्यक है। शरद में पित्त का प्रकोप होता है, आहार मध्यम रखना चाहिये और पित्त कम करने के सभी उपाय करने चाहिये। इस ऋतु में न्यूनतम श्रम करना चाहिये।
जह हर ऋतुचर्या अलग अलग हो तो ऋतुसन्धि में विशेष रूप से सावधान रहना होता है। शरीर स्वयं को त्वरित परिवर्तन में ढाल नहीं पाता है। ऋतुसंधि का ध्यान नहीं रखने से असात्म्यज रोग हो जाते हैं। इसके लिये १५ दिन के संधिकाल में व्यवस्थित रुप से एक ऋतुचर्या निकल कर दूसरे में प्रवेश करना चाहिये। ऋतुसंधि की रूपरेखा अष्टांगहृदयं में व्यवस्थित रूप से समझायी गयी है।
भारतीय मनीषियों ने ऋतुचर्या को अत्यधिक महत्व दिया है, एक ऋतु का सदुपयोग पिछले प्रकोपित दोषों को दूर करने के लिये किया जा सकता है और आहार विहार मात्र से ही रोगों को दूर रखा जा सकता है। ऐसा नहीं करने से ऋतुयें रोग का निमित्तिकारण बन जाती है। कोई आश्चर्य नहीं कि आधुनिक चिकित्सा ऋतु आधारित रोगों के उद्गम को स्वीकार कर रही है। अपराह्न में होने वाला सरदर्द वात के कारण होता है और वर्षा में होने वाले सारे रोग भी वात के कारण ही होते हैं। त्वचा के रोग जो पित्त के कारण होते हैं, वे भी शरद में ही अधिकता से क्यों होते हैं। बसन्त में कफ से जुड़े एलर्जी के रोग बंगलोर जैसे शहर में भी बाढ़ से आ जाते हैं।
अपने आयुर्वेद से दूर होते हुये और पाश्चात्य की नकल करते हुये हमें मधुमेह की वैश्विक राजधानी होने का सम्मान मिल चुका है। जीवनशैली से संबंधित अन्य रोग, जैसे उच्च रक्तचाप, मोटापा और हृदयरोग में भी हम बहुत उन्नति कर रहे हैं। इस दुर्गति का सारा श्रेय आयुर्वेद को भूलने को जाता है। चलिये मान लिया कि जब तक अंग्रेज थे, उन्होने कुटिलतावश संस्कृति के इस पक्ष को चरवाहों की बकबक माना। अब तो हम स्वतन्त्र भी है और बुद्धिमान भी, तो क्यों अपने चारों ओर धुँआ सुलगाये बैठे हैं। सब कुछ तो स्पष्ट लिखा है, पढ़ें।
अगली पोस्ट में जीवनचर्या व अन्य रोचक सूत्र।
चित्र साभार - blogs.rediff.com
फागुनी पुन्नी परी आई है सात-रंगों की पहनी सारी है ।
ReplyDeleteमन की रानी यही है फागुन में बुध्दि-बॉदी बनी बिचारी है।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शनिवार (15-03-2014) को "हिम-दीप":चर्चा मंच:चर्चा अंक:1552 "अद्यतन लिंक" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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रंगों के पर्व होली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सही बात है अगर इन बातो का ध्यान रखा होता तो भारत में जहां पर इतनी जडी बूटी हैं फिर भी लोग मोटापे और मधुमेह से त्रस्त हैं ये सब ना होता
ReplyDeleteसुन्दर जानकारी ..
ReplyDeleteहोली की हार्दिक शुभकामनायें
ReplyDeleteबहुत जानकारी भरी शिक्षाप्रद पोस्ट ,बहुत- बहुत बधाई ,होली की आपको पूरे परिवार को हार्दिक बधाई.
ReplyDeleteअमूल्य जानकारी अपनाना जरुरी है
ReplyDeleteस्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद तो भेड़चाल रुकनी चाहिए थी। लेकिन नहीं अब भी उसे अपनाने में गर्व है चारों ओर। बहुत बढ़िया व्याख्या।
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ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन संदीप उन्नीकृष्णन अमर रहे - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुमूल्य जानकारी देती सारगर्भित पोस्ट ...!!
ReplyDeleteअपनी चीजों की कदर करना आखिर हम कब सीखेंगे !
ReplyDeleteइसका एक सर संग्रह बना दीजियेगा।
ReplyDeleteसुधरी हुई जीवन शैली ,लाइफ स्टाइल डिज़ीज़ीज़ से छुटकारे का बढ़िया सूत्र है। बढ़िया प्रस्तुति।
ReplyDeleteसारा ही गड़बड़झाला कर डाला है अब तो मनुष्य ने।
ReplyDeleteअमूल्य जानकारी ... सरल, सीधे और सरस शब्दों में जीवन के गूढ़ रहस्य को समजाने का उत्तम प्रयास ...
ReplyDeleteहोली कि बहुत बहुत बधाई ...
बहुत ही उपयोगी लेख ,संकलन योग्य |
ReplyDeleteलाज़वाब जानकारी , आभार आपका !
ReplyDeleteमंगलकामनाएं रंगोत्सव पर !!
संकलन योग्य उपयोगी आलेख ,
ReplyDeleteसपरिवार रंगोत्सव की हार्दिक शुभकामनाए ....
RECENT पोस्ट - रंग रंगीली होली आई.
होली कि बहुत बहुत बधाई ...हार्दिक शुभकामनाए ....
ReplyDeleteजब तक धुए की चादर भारतीय चिकित्सक ओढ़ते रहेंगे तब तक वे आर्युवेद चिकित्सा पद्धति को दूर रखने में सक्षम रहेगें।
ReplyDeletePraveen Ji Happy Holi to you , your family and your readers. :) Bahut hii achhi jaankari.
ReplyDeleteज्ञानवर्धक आलेख ....
ReplyDeleteस्वास्थ्य एवं आरोग्य पर लिखी आपकी ये समस्त कड़ियां अत्यंत पठनीय एवं लाभकारी है...ऋतुचर्या से भी वर्षभर के हमारे इंतजामात व स्वयं के ध्यान रखने के कई नुस्खे मिले..अगली कड़ी का इंतज़ार है...
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ReplyDeleteबहुत विस्तृत और सारगर्भित जानकारी...
ReplyDeleteआपकी यह सीरीज तो संग्रहणीय बन गई. सहेज के रखने और बार-बार पढ़ने और पढ़ाने लायक।
ReplyDeleteकोई तो हो अपनी ही संस्कृति को बार-बार बताने वाला नहीं तो विस्मृतियाँ है कि पतन की और ले ही जा रही हैं..
ReplyDeleteआपका यह ब्लॉग गलत है । आपके सभी ब्लॉगों में काफी गलतियाँ हैं ।
ReplyDeleteकृपया गलतियाँ बतायें तो सृजनात्मक होगा, अष्टांगहृदयम् के अनुसार ही लिखा है।
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