पूरे विद्यार्थी जीवन में न जाने कितनी बार दिनचर्या बनायी गयी, उसे बड़े से कागज पर सुन्दर अक्षरों में लिखकर पढ़ने के स्थान पर सजाया गया, अनुपालन को ब्रह्मसत्य मान मन को अनुशासित किया, जितने दिन चल पाया उसे निभाया और अन्त में जो भी लाभ हुआ, उसे भगवान का प्रसाद मान पुनः स्वच्छन्द हो लिये। लगभग हर एक के जीवन में यही क्रम रहा। ध्येय था कि अधिकतम समय पढ़ाई के लिये निकाला जा सके। आयुर्वेद में भी दिनचर्या का महत्व शरीर को अधिकतम स्वस्थ रखना है। इसमें निर्देशों की विस्तृत सूची नहीं, बस कुछ ध्यान रखने योग्य बिन्दु हैं। आयुर्वेद में दिनचर्या कभी भी स्वतन्त्र रूप से नहीं चलती है, उस पर ऋतुचर्या और जीवनचर्या का प्रभाव रहता है। ऋतुचर्या और जीवनचर्या के सिद्धान्तों को बाद में समझेंगे, वर्तमान में दिनचर्या के मूलभूत आधार समझ लें। यद्यपि दिनचर्या के कुछ सिद्धान्तों को पृथक रूप से पिछली पोस्टों में रखा है, पर सरलता और सहजता की दृष्टि से उनको बीच बीच में उद्धृत करना आवश्यक रहेगा।
दिनारंभ, शुभारंभ, प्रकृतिलयता |
मेरे लिये सुबह बहुत जल्दी उठना सदा ही पिछली रात का अपूर्ण प्रण बना रहा, फिर भी सदा प्रयास करता रहा। क्या करें पिताजी कहते थे कि सूर्योदय के पहले उठने से तेज बढ़ता है और जो सूर्योदय के बाद जो सोता है, सूर्य उसका तेज हर लेते हैं। प्रकृति उस समय सर्वाधिक शुद्ध होती है, शरीर की यह प्रकृतिलयता शरीर को भी शुद्ध बनाती है। वात ऊर्जा वातावरण में व्याप्त होती है, वात गतिमयता का प्रतीक है, अतः शरीर को ऊर्जान्वित और गतिमय करने का सर्वाधिक प्रभावी समय है यह। वहीं दूसरी ओर सूर्य निकलते ही कफ का प्रभाव बढ़ने लगता है, यदि सोते रह गये तो अधिक कफ बढ़ने से आलस्य धर लेगा, अधिक कफ जठराग्नि को मन्द कर देता है और कालान्तर में शरीर निस्तेज होने लगता है। पिताजी ने तो कभी आयुर्वेद पढ़ा नहीं, पर वाग्भट्ट के ये सूत्र किसी न किसी ने तो हमारे पूर्वजों को सिखाये ही होंगे, सरल भाषा में, निष्कर्ष रूप में। सुबह उठने से हाथ में दो घंटे अतिरिक्त मिल ही जाते हैं, बहुधा आत्मचिंतन और स्वाध्याय के काम आते हैं। हमें तो कभी रात में पढ़ने में मन लगा ही नहीं, रात को पढ़ना भी पड़ा तो कभी काम आया नहीं। घर में भी बस सुबह पढ़ लेने को उकसाया जाता रहा। सुबह पढ़ लो, विद्यालय जाओ, वापस आकर जीभर खेलो, थको और खाकर गहरी नींद में सो जाओ। बड़े होते गये तो आलस्य गहराता गया। पिताजी आज भी ५ बजे उठ जाते हैं, उनके घर में रहते हम भी सुधर लेते हैं।
उठने के बाद गुनगुना जल, तत्पश्चात शौचनिवृत्ति। आयुर्वेद में दातून का महत्व बताया गया है, १२ प्रकार की दातूनों का वर्णन है, नीम, बबूल आदि, जैसी परिवेश में उपलब्धता हो। दातून में कषाय, तिक्त और कटु रस होते हैं। कषाय रस मसूड़ों को संकुचित करता है, जिससे दाँत सशक्त होते हैं। तिक्त और कटु रस लारों को स्राव करते हैं जिससे दाँत संबंधी और दोष दूर होते हैं। कुछ रोगों में जिनमें लार की कमी होती है या तन्त्रिकातन्त्र प्रभावित होता है, उन रोगों के लिये दातून का निषेध है, वे लोग दंतमंजन कर सकते हैं। जीभी करने से जीभ पर जमे आमदोष के अवशेष चले जाते हैं और मुख पूर्णतया शुद्ध हो जाता है। आँखें आग्नेय होती है और पित्त प्रकृति से पोषित होती हैं, पित्त भी संतुलित मात्रा में, न कम न अधिक। रात भर सोने से उस पर रात का शेष पित्त और कफ जम जाता है। आँखों का लाल होना शेष पित्त के संकेत हैं, आँखों को शीतल जल से धोने से वह चला जाता है। काजल या अंजन में कफस्राव के गुण होते हैं। काजल लगाने से आँखों से संचित कफ कीचड़ के रूप में निकल जाता है। बताते चलें कि बच्चों में कफ स्वाभाविक बढ़ा रहता है, अतः उनकी आँखें संरक्षित रहें, इसके लिये बचपन में काजल का बड़ा महत्व है। जो लोग काजल को पिछड़ेपन का प्रतीक मानते हैं, वे नहीं जानते कि यह भी आयुर्वेद सम्मत और वैज्ञानिक कार्य है, जो जीवन भर आँखों की ज्योति बनाये रखता है और कफजनित मोतियाबिन्द जैसे रोगों को दूर रखता है। आयुर्वेद में मोतियाबिन्द ठीक करने के लिये कफस्राव कराने वाली ही औषधियाँ दी जाती हैं।
आयुर्वेद में नित्यप्रति मालिश(अभ्यंग) करने को कहा गया है, सिर, कान और पैरों की विशेषरूप से। माँसपेशियों पर घर्षण से शरीर स्वस्थ होता है और त्वचा में स्निग्घता आती है। तेल में ऊष्ण और सूक्ष्म गुण होते हैं जो कफ को कम करते हैं। सर पर तेल की मालिश करने से अतिरिक्त कफ का नाश होता है। कानों में तेल डालने से अपने स्निग्ध गुणों के कारण वायु संतुलित रहती है। पैर भी वात के स्थान हैं, अधिक चलने फिरने से पैरों में रुक्षता आ जाती है, जिसे विवाई फटना कहते हैं। पैरों के मूल से होकर दो शिरायें आँखों तक जाती हैं अतः इसका प्रभाव आँखों पर भी पड़ता है। पैरों की मालिश से रुक्षता चली जाती है और आँखों की रक्षा भी होती है। जिनको कफ की कमी के कारण रोग होते हैं, उन्हें मालिश का निषेध है।
प्राणायाम का महत्व पिछली कड़ी में स्पष्ट किया जा चुका है। व्यायाम करने से शरीर में लघुता आती है, कार्य करने की सामर्थ्य बढ़ती है, अग्नि प्रदीप्ति होती है और चर्बी(कफजनित) का क्षय होता है। दौड़ना, तैरना, कसरत, कुश्ती आदि व्यायाम के प्रकार हैं। शास्त्रों में आसन और सूर्यनमस्कार को श्रेष्ठ माना गया है। १०-१२ साल तक के बच्चों को व्यायाम नहीं करना चाहिये, क्योंकि उनका विकास कफ आधारित रहता है। वृद्धों को भी व्यायाम का निषेध है क्योंकि इससे वात में वृद्धि होती है और उनके अन्दर आयु के कारण वात वैसे ही बढ़ा रहता है। पसीना आते ही व्यायाम बन्द कर देना चाहिये। शीतकाल में सामान्य व वसन्त व ग्रीष्म में अर्ध व्यायाम ही करना चाहिये। आयुर्वेद के अनुसार व्यायाम की अधिकता हानिकारक है। व्यायाम करने वालों को समुचित घी दूध का सेवन करना चाहिये।
पहले के समय में साबुन का प्रयोग नहीं था, उसके स्थान पर उबटन लगाया जाता था। इससे शरीर का मैल निकल जाता था और रोमछिद्र खुल जाते थे। स्नान करने से जठराग्नि प्रदीप्त होती है। सामान्य रूप से स्नान शीतल जल से ही करना चाहिये पर ठंड में गुनगुना पानी प्रयोग किया जा सकता है। नेत्ररोग, मुखरोग, अतिसार और अजीर्ण से पीड़ित लोगों को स्नान नहीं करना चाहिये। भोजन के पश्चात तो कभी भी स्नान नहीं करना चाहिये। स्नान के बाद भोजन करने से पाचन सर्वोत्तम होता है। भोजन और जल के बारे में आयुर्वेद के नियम पिछली कड़ियों में बताये जा चुके हैं। प्रातकाल का समय स्वयं के लिये निकाल लेने से जीवन भर के लिये स्वास्थ्य सधा रहता है। सामान्यतः भोजन के बाद हम सब अपने कार्यों में लग सकते हैं। दोपहर में अल्प और रात्रि में अत्यल्प भोजन के साथ दिन भर की गतिविधियों का समुचित निर्वाह कर सकते हैं। रात्रि में दस बजे तक सो जाने से सुबह उठने में सुविधा रहती है। यही नहीं, रात में ९ से १२ का समय कफ का होता है और कफ के प्रभाव में आयी नींद सबसे गाढ़ी होती है। रात में जगने वालों के लिये बस यही प्रार्थना है कि उनका पाचन ठीक रखे ईश्वर, क्योंकि जगे रहने से पाचन प्रभावित होता है। यही समय शरीर अपने भिन्न अंगों के अवयवों को पुनर्निमित करता है, नींद में वह सारे कार्य ठीक से होते हैं।
शरीर दिनचर्या के अनुसार स्वयं को ढालने में सक्षम होता है, पर प्रकृति विरुद्ध जाने में अपनी पूरी क्षमता से कार्य नहीं कर पाता है। पता नहीं चलता है पर त्रिदोषों का असंतुलन धीरे धीरे होता रहता है और अंततः वह विकार बनकर प्रकट होता है। आयुर्वेद के अनुसार आदर्श दिनचर्या यदि निभा पाना संभव न भी हो, तो भी यथासंभव सिद्धान्तों की दिशा में बढ़ना चाहिये। दिनचर्या में कोई बदलाव सहसा नहीं करना चाहिये, धीरे धीरे और सारे पक्षों का ध्यान रखकर ही करना चाहिये, क्योंकि शरीर औचक बदलाव स्वीकार नहीं करता है और उसके विरुद्ध स्पष्ट संकेत देता है। उदाहरणार्थ सुबह उठने में एक घंटा कम करने का कार्य मैंने चार चरणों और एक माह में पूरा किया है। मुझे सच में इस बात पर आश्चर्य होता है कि किस प्रकार शिफ्टों में कार्य करने वाले लोग अपने शरीर की क्रियाओं में संतुलन ला पाते होंगे। रेलवे के कर्मचारियों में रात और दिन का यह भ्रम पर्याप्त मात्रा में हैं और कुछ श्रेणियों में तो पूरी तरह से अस्त व्यस्त है। उसका स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है और उसके कुप्रभावों को कम करने के क्या उपाय है, इसके स्पष्ट उत्तर मैं खोज नहीं पाया, पर विश्वास है कि आयुर्वेद के ही सिद्धान्तों से उत्तर निकलेंगे, संभवतः किसी विशेषज्ञ की सहायता से।
जब रसोई के ऊपर चर्चा चल रही थी, तब कई पाठकों ने एक सहज प्रश्न पूछा था कि आधुनिक जीवनशैली की बाध्यताओं और विवशताओं के परिप्रेक्ष्य में किस स्तर तक आयुर्वेद को निभाया जा सकता है? जब सिद्धान्त पता होता है तो हल निकल आता है, जब सिद्धान्त का पता नहीं होता है तो वही नियम पत्थर की तरह राह में खड़ा सा लगता है। कई लोगों को जानता हूँ जो गाड़ी में जाते समय भ्रस्तिका, कपालभाती और अनुलोम विलोम कर लेते हैं। कुछ लोग अपने कार्यालय में ही लिफ्ट का प्रयोग न कर सीढ़ियों से चढ़ने को अपना व्यायाम बना लेते हैं। मेरे एक मित्र अपने कक्ष में टहल टहल कर फोन पर सबसे बतियाते हैं। मेरे एक कनिष्ठ अधिकारी अपनी व्यस्त जीवनशैली में सुबह समय नहीं निकाल पाते हैं तो सायं ४ किमी दूर स्थित अपने घर पैदल जाते हैं। मालिश, उबटन आदि दैनिक करना संभव न हो तब भी उन्हें सप्ताहान्त में किया जा सकता है, बचपन में तो हमारे यहाँ रविवार का दिन इन सबके लिये नियत था। कहीं पढ रहा था कि एक अभिनेता तो दिनभर की व्यस्तता के बाद घर में नियमित मालिश कराते हैं।
आयुर्वेद प्रदत्त दिनचर्या की संरचना तार्किक रूप से मस्तिष्क में पसर गयी है। अब विद्यार्थी जीवन की तरह प्रयोगों की आवश्यकता नहीं है। बौद्धिक ग्राह्यता और शारीरिक उत्थान दिनचर्या के किन पक्षों में छिपा है, दिन के किन भागों में सर्वोत्तम है, इसकी विस्तृत विवेचना हमारे महर्षि बहुत पहले कर चुके हैं। नियमों के आधार में सुदृढ़ सिद्धान्त हैं और सदियों का प्रायोगिक अनुभव भी। बात बहुत देर से समझ आयी पर अब आ गयी है। कुछ दिन पहले बिटिया ने अपने बाबा को फोन पर बताया कि पिताजी सुबह उठने लगे हैं और उठकर योग भी करने लगे हैं, तो वे बड़े प्रसन्न हुये। अब मुझे वर्षों पहले दी गयी उनकी सलाहों की अवहेलना पुत्र का अधिकारपूर्ण लाड़ प्यार नहीं लगता है, अब मुझे उन सलाहों के पीछे वाग्भट्ट जैसे समर्थ आचार्य खड़े दिखायी पड़ते हैं, जिन्हें न स्वीकार करना मेरी मूढ़ता भी होगी और उनके करुणामयी योगदान का निरादर भी। यहाँ लाभ मेरा ही है, यदि यह परमार्थ भी होता तो भी स्वीकार करता।
आगे की कड़ी में ऋतुचर्या के बारे में चर्चा करेंगे। अपने देश के लिये इसका औचित्य और भी गहरा है, ईश्वर ने हमें ६ ऋतुओं का वरदान दिया है, पर इस वरदान का किस तरह सदुपयोग करना है, जानेंगे आयुर्वेद के परिप्रेक्ष्य में।
चित्र साभार - www.desktopdress.com
सूर्य-नमस्कार को आसनों का राजा कहा जाता है । यह अद्भुत है । इस आसन में सूर्य के विविध नामों के साथ सूर्य को प्रणाम किया जाता है । इस एक आसन में शरीर के हर अॅग का व्यायाम हो जाता है- ॐ सूर्याय नमः ।
ReplyDeleteसहज -सरल नियम का परिपालन को बहुत लोगो ने दकियानूसी बाते समझ लिया ,विपरीत दिनचर्या आधुनिकता का पर्याय समझ बैठे है ,बहुत ज्ञानवर्धक आलेख ...
ReplyDeleteअब हम भी दिनचर्या व्यवस्थित करने का प्रयास करेंगे।
ReplyDeleteमालिश दिन में किस समय करें... और क्या सालभर हर मौसम में करना शरीर के लिए ठीक है.... और कौन सा तेल किस मौसम में प्रयोग करें
ReplyDeleteयुवाओं में व्यायाम के बाद मालिश और तब स्नान। आयु बढ़ने पर वात बढ़ता है तो मालिश के बाद व्यायाम। शीत में पूर्ण व्यायाम, बसन्त में बलार्ध।
Deleteव्यवस्थित होना बहुत अच्छी बात है .
ReplyDeleteरोचक लेख!
ReplyDeleteइस विषय में अब आपसे ही संपर्क किया जाएगा।
ReplyDeleteदेर से ही सही दुरुस्त हुआ जा सकता है स्वस्थ दिनचर्या अपना कर .
ReplyDeleteआपने तो पूरा आयुर्वेद पढ़ा दिया ! हालांकि हमारे दादाजी जी भी ऐसी ही बहुत सी बातें बताया करते थे . काम की बातें .
ReplyDeleteबहुत सी बातों को दोबारा जान कर बहुत अच्छा लग रहा है .....
ReplyDeleteरोचक संग्रहणीय आलेख
हार्दिक शुभकामनायें
पढ़ रहे हैं, समझने कि कोशिश कर रहे हैं.
ReplyDeleteबढ़िया श्रृंखला है.
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13-03-2014 को चर्चा मंच पर दिया गया है
ReplyDeleteआभार
बहुत ही ग्यानवर्धक श्रंखला.पढते-पढते बचपन की बहुत सी बातें याद आने लगीं,जब घर के बडे लोग टोका-टाकी
ReplyDeleteकरते थे,और हमें बुरा लगता था.फिर भी कुछ आदतें जो आयुर्वेद के सिंद्धांत के अनरूप चल रही हैं,उनके लिये
हमें बडों का आभार व्यक्त करना चाहिये.
प्रतीक्षा है अगली कदी की.
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन वर्ल्ड वाइड वेब को फैले हुये २५ साल - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ज्ञानवर्धक पोस्ट है.
ReplyDeleteदेर रात तक जागना सुबह देर से उठना आदि प्रकृति के नियम के ही विरुद्ध हैं जिनका बुरा असर शरीर पर पड़ता है ,
लेकिन कई व्यवसाय ऐसे हैं जिन में दिन रात का अंतर भूलना पड़ता है दिनचर्या में परिवर्तन करते रहना पड़ता है .
रात में नौकरी करने वाले लोग कैसे स्वयं को स्वस्थ रख सकें ,आयुर्वेद में इसका कोई न कोई इलाज या उपाय होगा .
....और व्यवस्थित दिनचर्या और संतुलित भोजन अच्छे स्वास्थ्य की कुंजी है ही .
वाह ! शानदार और ज्ञानवर्धक !!
ReplyDeleteआपकी यह श्रंखला बहुत पसंद आई , आभार आपका !!
ReplyDeleteबहुत अच्छा एवं उपयोगी उपाय।
ReplyDeleteकुछ लोगो की दिनचर्या तो सुधर ही जायेगी !
ReplyDeleteउपयोगी श्रृंखला !
उपयोगी रोचक संग्रहणीय आलेख,,,,!
ReplyDeleteबहुत उम्दा प्रस्तुति...!
RECENT POST - फिर से होली आई.
पिछली पोस्ट शायद वात रोगों पर थी ! ये अचानक विषय परिवर्तन कैसे हो गया। क्या वात पर अब और चर्चा नहीं होगी?
ReplyDeleteजी, वात पर आगे चर्चा होगी, ऋतुचर्या, जीवनचर्या और चिकित्सा के विषयों पर।
Deleteसंग्रहणीय |
ReplyDeletegreat going, Praveen bhai...keep waking up people!
ReplyDeleteप्रातः उठना सदैव कठिन लगता रहा। परन्तु आज आवश्यकता प्रतीत होती है।
ReplyDeleteआप एकदम ठेठ हिंदी लिखते हैं. अच्छा लगता है.
ReplyDeleteबहुत ही मूल्यवान प्रस्तुति प्रवीण जी...ये पूरी श्रंख्ला ही काफी लाभकारी है..महत्वपूर्ण जानकारी आरोग्य के विषय में मिल रही है और कुछ पहले से की जाने वाली दैनिक क्रियाओं पर जब आपकी इस पोस्ट के ज़रिये प्रमाणिकता मिलती है तो अच्छा लगता है :) आभार आपका।।।
ReplyDeleteसूर्योदय से पहले उठना कभी नहीं हो पाया और अब तो जीवन का सूर्यास्त होने को है. मगर आपकी यह कड़ियाँ एक कीर्तिमान हैं!!
ReplyDeleteज्ञानवर्धक पोस्ट...हम इसे अपने जीवन में उतार ले तो सब स्वास्थ्य रूपी धन आ ही जाएगा हमारे पास..
ReplyDeleteप्रात:काल उठना हमेशा अच्छा ही होता है। सादर।।
ReplyDeleteनई कड़ियाँ : 25 साल का हुआ वर्ल्ड वाइड वेब (WWW)
गहन शोध किया है आपने...सुंदर प्रस्तुति...
ReplyDeleteअच्छी जानकारी.... आभार
ReplyDeleteआयुर्वेद में दिनचर्या कभी भी स्वतन्त्र रूप से नहीं चलती है, उस पर ऋतुचर्या और जीवनचर्या का प्रभाव रहता है।
ReplyDeleteसुन्दर मंथन आयुर्वेद के बुनियादी सिद्धांतों का सरल बोधगम्य शैली में।
हमेशा की तरह उपयोगी आलेख. लेकिन आलस का त्याग बहुत कठिन है.
ReplyDeleteसादर प्रणाम |
ReplyDeleteसुबह उठने का प्रण करता हूँ ,इसे हर हालत में पालूंगा भी |
आँखे खोलने के लिए ...आभार |
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ReplyDeleteहार्दिक आभार , आपकी प्रस्तुति नज़रिये का विस्तार करती है.
ReplyDeleteकभी मैं भी आदर्श दिनचर्या का पालन किया करता था. सात सालों से पत्रकारिता में हूँ. अपरिहार्य कारणों से ही सूर्योदय से पहले उठा हूँ. सूर्योदय और सूर्यास्त की छटा के दीदार से वंचित. अब तो आदत पड़ गयी है. गांव जाता हूँ तो भी सूर्योदय से पहले नहीं उठ पाता .
दिनचर्या और जीवनचर्या में मालिश प्राणायाम व्यायाम और स्नान का क्रम कारण सहित स्पष्ट करें ।
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ReplyDeleteदिनचर्या और जीवनचर्या में मालिश प्राणायाम व्यायाम और स्नान का क्रम निश्चित करें ।दोनों में विपरीत क्रम है । यदि वृद्धों के लिये व्यायाम निषिद्ध है तब युवावों के लिये और वृद्धों के लिये व्यायाम और मालिश के लिये अलग अलग क्रम की बात कहाँ से आई।
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