आधुनिकता के प्रति सदा है उदार दृष्टिकोण रहा है, पर कैलोरी आधारित भोजन की गणना पर कभी विश्वास रहा ही नहीं। समान कैलोरी होने पर भी देशी घी की तुलना बर्गर से करना मूढ़ता लगी। आयुर्वेद पढ़ा तो तथ्य स्पष्ट हुये, देशी घी पित्त के दोष दूर करता है, बर्गर वात और कफ बढ़ाता है, मोटापा और अन्य बीमारी लेकर आता है। यही भ्रान्ति कोलेस्ट्रॉल की भी है, कड़वे तेल और रिफाइण्ड को समान स्तर पर रखने वाली आधुनिकता, शताब्दियों की भारतीय रसोई परम्परा को असिद्ध करने लगती है, बिना प्रायोगिक और वैज्ञानिक आधार के सामान्य बुद्धि को भरमाने का कार्य करती है।
आयुर्वेद के अनुसार, क्या खाया जा रहा है, यह अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। अधिक महत्वपूर्ण यह है कि जो खाया जा रहा है, वह पच रहा है कि नहीं? दो भिन्न प्रकृति के लोगों का एक सा खाने पर भी प्रभाव भिन्न होंगे। यूरोप के ठण्डे देशों में भोजनशैली भारत जैसे गरम देशों की तुलना में सर्वथा भिन्न होगी। इस स्थिति में जब वहाँ के अध्ययन यहाँ के लोगों द्वारा चाव से नकल किये जाते हैं, तो इससे उनका स्वास्थ्य बढ़े न बढ़े, पर यह मूढ़ता देखने वालों में हास्य रस अवश्य बढ़ जाता है।
सुबह सुबह भरपेट भोजन, स्वस्थ जीवन |
सिद्धान्त बढ़ा सीधा है, खाना तभी खाना चाहिये जब जठराग्नि तीव्र हो, या जमकर भूख लगे। सुबह का समय कफ का होता है, जैसे जैसे सूर्य चढ़ता है, जठराग्नि बढ़ती है। वाग्भट्ट के अनुसार सूर्योदय के ढाई घंटे के बाद जठराग्नि सर्वाधिक होती है, भोजन उसी के आसपास कर लेना चाहिये। भोजन करने के डेढ़ घंटे बाद तक यह जठराग्नि प्रदीप्त रहती है। अधिकाधिक भोजन उसी समय कर लेना चाहिये। कहने का तात्पर्य यह है कि सुबह नाश्ते के स्थान पर सीधे भोजन ही करना चाहिये। कई बार गाँव गया हूँ और पुराने लोगों को ध्यान से देखा है, सब के सब सुबह पूरा भोजन कर घर से निकलते हैं। देखा जाये तो नाश्ते की पद्धति यूरोप से आयातित है, जहाँ पर सूर्य निकलने का ठिकाना नहीं, वह भी कई महीनों तक, जठराग्नि मन्द, वहाँ तो सुबह कम खाना ही अच्छा। रात में भी खाने के पहले मदिरा आदि लेकर ही खाने का पाचन होता है वहाँ। वहाँ की नकल में हम मौसम का कारक भूल गये और सुबह नाश्ता खाने में लग गये।
दोपहर में यदि कुछ खाना हो तो वह सुबह का दो तिहाई और रात को भोजन सुबह का एक तिहाई हो। जिस तरह दिया बुझने के पहले जोर से भड़कता है, सूर्य डूबने के पहले जठराग्नि भी भड़कती है। रात का भोजन सूर्योदय के पहले ही कर लेना अच्छा, उसके अच्छे से पचने की संभावना तब सर्वाधिक है। जैनियों में भले ही जीवहत्या का आधार हो, गाँवों में भले ही प्रकाश न रहने का कारण हो, पर वाग्भट्ट के आयुर्वेदिक सूत्र जठराग्नि के आधार पर सूर्यास्त के पहले भोजन करने को प्रेरित करते हैं। सूर्यास्त के बाद कुछ ग्रहण करना पूर्णतया निषेध नहीं है, दूध सोने के पहले ले सकते हैं, वह अच्छी नींद और पाचन में सहायक भी है। हो सके तो दो बार ही भोजन करें, पर तीन बार से अधिक तो किसी भी स्थिति में नहीं, तीन बार में भी एक बार बहुत हल्का भोजन करें। सुबह का भोजन जितना चाहें ले सकते हैं, जो चाहें ले सकते हैं, सारा पच जाने की संभावनायें तभी प्रबल हैं। दोपहर बाद का जो भी क्रम रखें, नियम बना कर रखें और उसी समय नियमित खायें, शरीर स्वयं को आपके समय के आधार पर ढाल लेता है।
कई वर्ष पहले अमेरिका में हुआ एक अध्ययन पढ़ा था कि दिन में कई बार खाना चाहिये और हर बार थोड़ा थोड़ा खाना चाहिये। मूढ़ता में कुछ दिन अपनाया भी था, जब पाचन का बाजा बज गया तो छोड़ दिया। अब आयुर्वेद के इस सिद्धान्त के आधार पर सोचता हूँ तो कारण समझ में आता है। वहाँ महीनों सूर्य नहीं निकलने से, सूर्य आधारित जठराग्नि भी अनुपस्थित रहती है, कम रहती है और सम रहती है। इस स्थिति में एक बार में अधिक नहीं खाया जा सकता और कभी भी खाया जा सकता है। उनका अध्ययन उनके लिये उचित है, हमारे लिये विष। हमारे लिये सूर्य आधारित जठराग्नि का समयक्रम है, हम उसी का पालन करें। रोचक तथ्य यह भी है कि सारा जीव जगत, सारे पशु इसी नियम का पालन करते हैं, सुबह ही सुबह भर पेट भोजन कर लेते हैं, सूर्य डूबने के बाद कुछ भी नहीं खाते हैं। उन्हें होने वाले रोग नगण्य हैं और हम कृत्रिमता अपना कर रोगों की सूची पाले हुये हैं। वाग्भट्ट के अनुसार हमें भी प्रकृतिलय होना सीखना चाहिये, सूर्य की गति और क्रम का पालन अपने भोजन में भी करना चाहिये।
यदि पेट में भोजन नहीं पचता है तो वह आँतों में जाकर सड़ता है, जिसे फर्मेन्टेशन कहते हैं। उसी से यूरिक एसिड बनता है, उसी से एलडीएल, वीएलडीएल और ट्राईग्लिसराइड्स आदि घातक रसायन बनते हैं और हृदयाघात और कैंसर जैसे रोगों का कारण बनते हैं। यदि भोजन ढंग से पचता है तो पोषक रसादि बनाता है, शरीर को पुष्ट रखता है। हमारा दुर्भाग्य है कि हमने हर खाद्य में कैलोरी की मात्रा की गणना तो कर ली, पर पेट में कितना पचा, उसका सही गणित नहीं बैठा पाये। सब साधन सुलभ होने के बाद भी बढ़ते रोग हमारी आधुनिक योग्यता की कथा बाँच रहे हैं। आयुर्वेद की सहज सलाह पुनः सशक्त शरीर देने में सक्षम है।
माटी से शरीर में भेजे तत्व में तीन बार पकाना होता है। हर बार अलग तरह से, अलग मात्रा में, अलग प्रकार से। किसी भी खाद्य को पहले सूर्य पकाता है, फिर उसे अग्नि पकाती है और अन्त में जठराग्नि। रसोई में भोजन अच्छे से पकायें और जठराग्नि में पचाने के पहले हर कौर को ३२ बार चबा कर खायें, इससे पाचन और अच्छा हो जाता है। बड़ी पुरानी कहावत है, पानी को खायें और खाने को पियें।
जब भी भोजन करें तो दो विरुद्ध वस्तुयें एक साथ न खायें, ऐसा करने से पेट का पाचन तन्त्र दिग्भ्रमित हो जाता है और अन्ततः कुछ नहीं पचा पाता है, भोजन तब बिना पचे ही आगे बढ़ जाता है। उदाहरणार्थ प्याज के साथ दूध न खायें, उससे त्वचा के ढेरों बीमारियाँ आती हैं। दूध के साथ कटहल के साथ न खायें। कोई खट्टा फल दूध के साथ न खायें, केवल आँवला दूध के साथ खाया जा सकता है। दूध के साथ खट्टा आम न खायें, मीठे आम के साथ खा सकते हैं। शहद और घी न साथ खायें। उड़द की दाल और दही एक साथ न खायें। द्विदल के साथ दही का निषेध है। यदि खा रहे हैं तो उसकी तासीर बदलें। जीरा, अजवाइन से मठ्ठे को छौंक दें और उसमें सेंधा नमक मिला दें।
भोजन जब भी करें, सुखासन में खायें। इस आसन में जठराग्नि सर्वाधिक होती है। जब भी सुखासन में बैठते हैं तो रक्त का प्रवाह पैरों को कम हो जाता है और सारा पाचन में उपयोग हो जाता है। बस थाली थोड़ा ऊपर रखें। उकड़ूँ में बैठ कर भी खा सकते हैं, पर वे ही ऐसा करें जो शरीर श्रम अधिक करते हैं। सुबह और दोपहर के भोजन के बाद २० मिनट विश्रांति ले। बायीं ओर करवट लेकर, इससे सूर्य नाड़ी चलने लगती है जिससे पाचन अच्छा है। वैसे तो स्वस्थ व्यक्ति के लिये यह स्वयं ही प्रारम्भ हो जाती है। विश्राम लेने की प्रथा आज भी पुराने शहरों में चल रही है, लोगों को यह आलस्य लग सकता है, पर यह पूरी तरह से आयुर्वेद सम्मत और वैज्ञानिक है। रात के भोजन के बाद दो घंटे तक नहीं सोना है, हो सके तो ५०० कदम टहलें। यदि सुबह के भोजन के बाद विश्रांति और सायं के भोजन के बाद टहलना संभव न हो सके तो दस मिनट तक वज्रासन में बैठ जायें। यह भोजन के बाद कर सकने वाला एक ही आसन है। भोजन करते समय चित्त और मन दोनों ही शान्त रखें। ईश्वर का भजन करें और शान्ति पाठ करें, हड़बड़ी में किया भोजन कुप्रभाव छोड़ता है।
जल और भोजन का मर्म समझना आयुर्वेदीय जीवनशैली का आधार है। अगली पोस्टों में इसी से जुड़े कुछ और रोचक तथ्य।
चित्र साभार - www.flickriver.com
बेहद उपयोगी और ज्ञान की बातें पता चली आप की इस पोस्ट से ... आभार पांडे जी | अब कोशिश रहेगी कि इस ज्ञान को जीवन मे उतार लाभ लें |
ReplyDeleteसमय पर भोजन स्वास्थ्य के लिए उचित है
ReplyDeleteबहुत अच्छा एवं सारगर्भित लेख....
ReplyDelete‘‘’सूर्योदय के बाद कुछ ग्रहण करना पूर्णतया निषेध नहीं है, दूध सोने के पहले ले सकते हैं, वह अच्छी नींद और पाचन में सहायक भी है।’ ...शायद यहां ‘सूर्यास्त’ होना चाहिए.
जी बहुत धन्यवाद, ठीक कर लिया है।
Deletevery nice information .thanks
ReplyDeleteपूर्ण रूप से बदिया और लाभदायक जानकारी ...काश! ऐसा माहोल भी बन जाये ...आज की भाग दौड़ में .....
ReplyDeleteआभार !
Well-researched , scientifically endorsed and convincingly stated facts ! Regards
ReplyDeleteउत्तम अपनाने योग्य जानकारी आभार.......
ReplyDeleteआपके आयुर्वेद ज्ञान और और उसके समुचित प्रस्तुतिकरण में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। बहुत सुन्दर। आपने एकदम सही कहा कि .........................................साधन सुलभ होने के बाद भी बढ़ते रोग हमारी आधुनिक योग्यता की कथा बाँच रहे हैं।
ReplyDeleteये सब बातें पिताजी बताते थे..जिन्हें अब हम नहीं कर पाते।
ReplyDelete..प्रेरक पोस्ट।
नकलची बंदर हाथ आयी टोपी को फिर से गिरा देते हैं। हम न अंग्रेज हो पाये न भारतीय। सुबह उठकर बेड टी लेने लगे लेकिन रात को खाने के बाद ब्रश नहीं करते। आपने मौसम से तुलना करके आयुर्वेद के ज्ञान को अच्छे से समझाया है।
ReplyDeleteउड़द की दाल और दही एक साथ न खायें।..इसे पढ़कर मूझे दही-बड़ा की याद आ गई जिसें मैं खूब चाव से खाता हूँ। बड़ा..उड़द की दाल का बनता है। :)
दहीबड़ा के बारे में जानना मेरे लिये भी आघात था, मुझे भी बहुत अच्छा लगता है। उपाय है, तनिक जीरे से छोंक ले और काला नमक मिला दें। या उस पर बनायी चटनी में उसके निवारण का मार्ग छिपा हो, पूरी तरह से छोड़ना कठिन है।
Deleteदही के साथ दाल न खाने का ....दाल से अर्थ पकी हुई भोजन हेतु बनी दाल से है ......दही बड़े के लिए दाल को भिगोकर पीसकर बनाया जाता है और उसकी तासीर ( गुण) बदल जाते हैं फिर दही के साथ हानिकारक नहीं रहती ..यही तो पदार्थों का आयुर्वेदिक ( कुछ कुछ होम्योपेथिक भी ) गुणावगुण तथ्य है....
Deleteसंभवतः पीसने से दाल की तासीर न बदलती हो, पर दही में छौंकने से अवश्य दोष निवारण होता होगा।
Deleteठीक उसी तरह जैसे गेहूं का विभिन्न कण भाव .... दलिया, सूजी, आटा व मैदा के गुण अलग अलग होते हैं....दलिया लाभदायक व मैदा अपेक्षाकृत हानिकारक .....
Deleteसच है, दलिया का लाभ बड़ा है। अन्न जितना सूक्ष्म होता जाता है, उतना ही वात बढ़ाता है क्योंकि सूक्ष्मता वात का गुण है।
Deleteहम्म..
Deleteसार्थक उपयोगी आलेख ......
ReplyDeleteबहुत अच्छी जानकारी..... सरल उपाय हैं, जीवनशैली में थोड़ा सा बदलाव करें तो कितने लाभ हैं ....
ReplyDeleteराजीव भाई को सुनकर पूरा का पूरा साहित्य वर्धा से मंगवा लिया , परन्तु व्यस्तता कहे या आलस्य, पूरा सुन - पढ़ ही नहीं पा रहे. आप सरल भाषा में उस प्राचीन ज्ञान को शब्द दे भला ही कर रहे हैं.
ReplyDeleteसब, जागते रहो!
यह हमारा अनुभूत प्राचीन ज्ञान है -कलेवा और खरमिटाव और 'खर सेवर' को भी व्याख्यायित करना होगा
ReplyDeleteकलेवा के बारे में अधिक अनुभव नहीं हैं, आप ही अपने अनुभव से लाभान्वित करें।
Deleteकेवल राजीव दीक्षित की बातें सुनकर लिख दिया है आपने। उसके आधे से ज्यादा तथ्य स्पष्ट नहीं हैं।
Deleteभोजन सम्बन्धी यह सभी महत्वपूर्ण बातें पाता सबको है, मगर इनका पालन करे कोई तब न ....बात बने। अर्थात 'खाने के लिए जीने में नहीं बल्कि जीने के लिए खाने में' ही सबकी भलाई है।
ReplyDeleteवही सब जो हमारे बड़े हमें समझाते थे!! इसमें से बहुत कुछ तो परम्परागत रूप से हमारे भोजन-चक्र का हिस्सा बन गया है!! रोचक और जानकारीपूर्ण शृंखला!!
ReplyDeleteबहुत उपयोगी शृंखला चल रही है जानना ,समझना और कोशिश करना चाहिये , .आज की जीवन पद्धति में ,अगर चाहें भी तो सारे नियम मानना कठिन है,पर निराकरण के उपायों से जितना काम चल जाय .आपको धन्यवाद!
ReplyDeleteपीज़ा- बर्गर = बीमारी का घर ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति को शनि अमावस्या और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteबेहद उपयोगी बातें ... आज के तेजी वाले युग में ये सब संभव ही या नहीं ये तो पता नहीं ... पर जब जीवन सहज होने लगे तो इस पद्धति का उपयोग शुरू करने में कोई परहेज़ नहीं होना चाहिए ...
ReplyDeleteनासवा जी ---तथ्य यह है कि...-- देशी पद्धति का उपयोग होने लगे तो जीवन स्वतः ही सहज होने लगे .....
Deleteदही बड़े के बारे में पढ़ कर मन बहुत दुखी हुआ , फिर यही सोच कर मनाया कौन रोज खाते हैं !
ReplyDeleteउपयोगी और ज्ञानवर्धक श्रृंखला !
दुःख न करें ...बड़े के साथ दही हानिकारक नहीं है .....खूब मजे से खाएं....
Deleteआधुनिकता के प्रति सदा ही (है)
ReplyDeleteउदार दृष्टिकोण रहा है, पर कैलोरी आधारित भोजन की गणना पर कभी विश्वास रहा ही नहीं। समान कैलोरी होने पर भी देशी घी की तुलना बर्गर से करना मूढ़ता लगी। आयुर्वेद पढ़ा तो तथ्य स्पष्ट हुये, देशी घी पित्त के दोष दूर करता है, बर्गर वात और कफ बढ़ाता है, मोटापा और अन्य बीमारी लेकर आता है। यही भ्रान्ति कोलेस्ट्रॉल की भी है, कड़वे तेल और रिफाइण्ड को समान स्तर पर रखने वाली आधुनिकता, शताब्दियों की भारतीय रसोई परम्परा को असिद्ध करने लगती है, बिना प्रायोगिक और वैज्ञानिक आधार के सामान्य बुद्धि को भरमाने का कार्य करती है।
सरसों का तेल ही सर्वोत्तम है रिफाइंड विफाइंड से अखिलभारतीय आयुर्विज्ञान की आधुनिक शोध से भी यही ध्वनि बारहा आई है।
भोजन के विविध आयामों का खुलासा करती स्वास्थ्यकर भोजन को रेखांकित करती शानदार पोस्ट है प्रवीण भाई की।
----वास्तव में सरसों व रिफाइंड एक से ही लो डेंसिटी फैट हैं...सवाल यह है कि .. तो फिर व्यर्थ ही रिफाइंड बनाने की ज़हमत क्यों उठाई जाय ....
Delete--- सही कहा ...दशकों से रिफाइंड का प्रयोग होरहा है परन्तु ह्रदय रोग कम होने की अपेक्षा बढे ही हैं ...अतः देशी घी व तेल आदि दोषी नहीं अपितु ...कम शारीरिक परिश्रम की जीवन चर्या , आधुनिक चलन का हाई कोलेस्ट्रोल व कार्बोहाइड्रेट भोजन , अधिक दोषी हैं...
सिद्धान्त बढ़ा सीधा है, खाना तभी खाना चाहिये जब जठराग्नि तीव्र हो, या जमकर भूख लगे। सुबह का समय कफ का होता है, जैसे जैसे सूर्य चढ़ता है, जठराग्नि बढ़ती है। वाग्भट्ट के अनुसार सूर्योदय के ढाई घंटे के बाद जठराग्नि सर्वाधिक होती है, भोजन उसी के आसपास कर लेना चाहिये। भोजन करने के डेढ़ घंटे बाद तक यह जठराग्नि प्रदीप्त रहती है। अधिकाधिक भोजन उसी समय कर लेना चाहिये। कहने का तात्पर्य यह है कि सुबह नाश्ते के स्थान पर सीधे भोजन ही करना चाहिये। कई बार गाँव गया हूँ और पुराने लोगों को ध्यान से देखा है, सब के सब सुबह पूरा भोजन कर घर से निकलते हैं।
ReplyDeleteअति उत्तम सटीक एक दमसे
दोपहर में यदि कुछ खाना हो तो वह सुबह का दो तिहाई और रात को भोजन सुबह का एक तिहाई हो। जिस तरह दिया बुझने के पहले जोर से भड़कता है, सूर्य डूबने के पहले जठराग्नि भी भड़कती है।
दोपहर में यदि कुछ खाना हो तो वह सुबह का दो तिहाई और रात को भोजन सुबह का एक तिहाई हो। जिस तरह दिया बुझने के पहले जोर से भड़कता है, सूर्य डूबने के पहले जठराग्नि भी भड़कती है।
आधुनिक बीमारियों (जीवन शैली रोग )के आलोक में बहुत कुछ बदल गया है मसलन कुछ स्थितियों में दिन में पांच से लेकर छ: बार खाना इलाज़ का हिस्सा है मसलन डायबिटीज़ में।
खानपान सही रहे तो यह नौबत ही न आये आपका आलेख इसी और संकेत करता है।
यदि पेट में भोजन नहीं पचता है तो वह आँतों में जाकर सड़ता है, जिसे फर्मेन्टेशन कहते हैं। उसी से यूरिक एसिड बनता है,
ReplyDeleteयूरिक एसिड बढ़ा और जोड़ों का दर्द हुआ।
-----यूरिक एसिड ..भोजन के न पचने से या सडने से नहीं बनता .......वह गुर्दे के रोगों या भोजन में अधिक प्रोटीन युक्त पदार्थों के खाने से बनता है......
Delete-----पाचन की प्रक्रिया के दौरान जब प्रोटीन टूटता है तो शरीर में यूरिक एसिड बनता है .जो सामान्य अवस्था में मूत्र से विसर्जित होजाता है ..अधिक होने से या गुर्दे की कार्य-क्षमता कम होने से मूत्र के साथ निकल नहीं पाता अतः रक्त में बढ़ जाता है...
माटी से शरीर में भेजे तत्व में तीन बार पकाना होता है। हर बार अलग तरह से, अलग मात्रा में, अलग प्रकार से। किसी भी खाद्य को पहले सूर्य पकाता है, फिर उसे अग्नि पकाती है और अन्त में जठराग्नि। रसोई में भोजन अच्छे से पकायें और जठराग्नि में पचाने के पहले हर कौर को ३२ बार चबा कर खायें, इससे पाचन और अच्छा हो जाता है। बड़ी पुरानी कहावत है, पानी को खायें और खाने को पियें।
ReplyDeleteकितने ही रोगों का कारण हड़बड़ी में गाड़ी चलाते चलाते भोजन टूँगना बन रहा है। अमरीका में कैरी होम इसी बला का नाम है जहां ३० %लोग चलते चलते गाड़ी चलाते ही खाते हैं।
जठराग्नि तो भोजन पका हो या कच्चा ..सभी को पचाती है ..... बीज हो या पौधा , पत्ती, फूल कुछ भी ...
Deleteदूध के साथ कटहल( के साथ)
ReplyDeleteन खायें। कोई खट्टा फल दूध के साथ न खायें, केवल आँवला दूध के साथ खाया जा सकता है। दूध के साथ खट्टा आम न खायें, मीठे आम के साथ खा सकते हैं। शहद और घी न साथ खायें। उड़द की दाल और दही एक साथ न खायें। द्विदल के साथ दही का निषेध है। यदि खा रहे हैं तो उसकी तासीर बदलें। जीरा, अजवाइन से मठ्ठे को छौंक दें और उसमें सेंधा नमक मिला दें।
बहुत सुन्दर जुकाम में भी आप इस बिध छाछ(बटर मिल्क )ले सकते हैं बस एक चम्मच सरसों के तेल में अजवाइन और दो लॉन्ग ,ज़रा सी हींग का तड़का लगा लें दमे में भी आराम आयेगा।
-------यदि पेट में भोजन नहीं पचता है तो वह आँतों में जाकर सड़ता है, जिसे फर्मेन्टेशन कहते हैं। उसी से यूरिक एसिड बनता है, उसी से एलडीएल, वीएलडीएल और ट्राईग्लिसराइड्स आदि घातक रसायन बनते हैं ..
ReplyDelete---- एलडीएल, वीएलडीएल और ट्राईग्लिसराइड्स..तो भोजन के ही तत्व होते हैं .सडने के बाद थोड़े ही बनते हैं....वे एक निश्चित मात्रा में सदा ही रक्त में होते हैं ..उनकी रक्त में निश्चित से अधिक मात्रा बढना हानिकारक है ....
---- बिना पचा खाना मल-द्वार से बाहर निकल जाता है ...आँतों में जाकर सड़ता थोड़े ही है .....
यूरिक एसिड अपचे भोजन के सड़ने से बनता है। जब भोजन की पाचकता के स्थान पर कैलोरी और कोलेस्ट्रॉल ही मानक होंगे तो जठराग्नि भिन्न होने पर कोई तो उसी भोजन को पचा लेगा और कोई उसे एलडीएल आदि के रूप में एकत्र कर लेगा। अब जठराग्नि व्यायाम से बढ़ती है, दिन में समय विशेष में बढ़ती है, ऋतु विशेष में बढ़ती है। जब इन सिद्धान्तों पर बात न हो, तो भोजन के बारे में चर्चा अधूरी रह जायेगी। आशा है आपने अष्टांग हृदयम् पढ़ना प्रारम्भ कर दिया होगा, जिससे विषय से संबंधित आगामी संभावित भ्रम दूर ही रहें।
Deleteयदि भोजन पचेगा नहीं तो यूरिक एसिड बनेगा। अन्ततः तो सब मल द्वार से बाहर निकल ही जाता है पर हानि करने के बाद, इसी को आप सड़ना समझ लीजिये।
Deleteट्राइग्लिसराइड्स भोजन के लघुत्तम अवयवों में टूटने के बाद बनते हैं। एलडीएल और वीएलडीएल भोजन के अतिरिक्त लिवर से भी पर्याप्त मात्रा में बनता है। यह लिवर में उस समय तो और बनता है जब भोजन में ऐसे तत्व होते हैं जो पचते नहीं हैं और रक्त के माध्यम से कोशिकाओं में जाकर उत्पात मचाते हैं। तो यह भी अपचे भोजन से ही संबंधित हुआ। कोलेस्ट्रॉल से पित्त भी बनता है तो यदि अतिरिक्त कोलेस्ट्रॉल पित्त में नहीं परिवर्तित होगा तो वह रक्त में घूमेगा और हृदयाघात में सहायक होगा। इस प्रकार भी एलडीएल आदि की मात्रा कम करने के लिये समुचित जठराग्नि आवश्यक है। एलडीएल आदि के बारे में आधुनिक अध्ययन भी इसी दिशा में इंगित करता है। कड़वा तेल वात नाशक कहा जाता है क्योंकि यह पचकर उपयोगी अवयवों में बट जाता है, रिफाइण्ड को वातवर्धक क्योंकि यह पचता नहीं और रक्त में जा एलडीएल आदि के निर्माण में सहायक होता है।
आगे की पोस्टों में वात पर चर्चा करेंगे, क्योंकि हृदयाघात आदि वात के ही रोग हैं। वात का सामान्य कार्य शरीर में सभी छोटे बड़े चैनलों को दुरुस्त रखना भी है।
-------रेफाइंड तो चला ही इसलिए कि वह हानिकारक फेट कम बनाता है ... वनस्पति घी एवं देशी घी की अपेक्षा ......वह स्वयं लो डेंसिटी ( एल डी एल ) होने से धमनियों में जमता नहीं है....यही कार्य सरसों का तेल भी करता है....ये सब लिवर में नहीं बनते अपितु भोजन के ( फैट के ) अवयव होते हैं ...सभी कुछ भोजन आदि लिवर में ही संश्लेषित आदि होता है ...लिवर में स्वयं बनता नहीं है ...
Delete--- वस्तुतः आयुर्वेद एवं एलोपेथ के भिन्न भिन्न नियम हैं...उन्हें आपस में मिलाने पर घालमेल होने लगता है .....
-----यूरिक एसिड ..भोजन के न पचने से या सडने से नहीं बनता .......वह गुर्दे के रोगों या भोजन में अधिक प्रोटीन युक्त पदार्थों के खाने से बनता है....
Delete-----पाचन की प्रक्रिया के दौरान जब प्रोटीन टूटता है तो शरीर में यूरिक एसिड बनता है जब शरीर मे प्यूरीन न्यूक्लिओटाइडों टूट जाती है तब भी यूरिक एसिड बनता है. अतः...
----25 वर्ष की आयु के बाद कम शारीरिक श्रम करने वाले व्यक्तियों के लिए अधिक मात्रा मे प्रोटीन युक्त भोजन लेना उनके लिए यूरिक अम्लों की अधिकताजन्य दिक्कतों का खुला निमंत्रण साबित होते हैं.....
-----रेड मीट , सी फूड, रेड वाइन, दाल, राजमा, मशरूम, गोभी, टमाटर, पालक, मटर, पनीर, भिन्डी, अरबी, चावल आदि के अधिक मात्रा में सेवन से भी यूरिक एसिड बढ जाता.....
आभार आपका, हमारा भी ज्ञान और बढ़ रहा है।
Deleteकलेवा या कलेऊ ( ब्रेक-फास्ट) तो सदा से ही भारत में होता आया है ...हाँ ब्राह्म मुहूर्त में उठजाने के कारण एवं विद्युत् न होने के कारण रात्रि को जल्दी सोने के कारण कलेऊ के बाद ....भोजन लगभग सुबह १० बजे तक, दोपहर में चबैना आदि खाना एवं सांध्य भोजन शाम को ६ बजे तक होजाता था और सोने से पहले दूध ...... .....जो सही वैज्ञानिक विधि है गर्म देशों के लिए .....चाय का चलन तो निश्चय ही पाश्चात्य है..
ReplyDeleteजी, सहमत हैं, ब्रेकफ़ास्ट से तात्पर्य १० बजे के आसपास खाये जाने वाले अल्पाहार से ही है।
Deleteआपने कहीं भी "भोजन और आयुर्वेद" पोस्ट में ब्रेकफास्ट को सही नहीं ठहराया है।
Deleteबहुत ही उपयोगी लेख है..काश इस बात को हमारी आज की नयी पीढ़ी जो पिज़्ज़ा/बर्गर मांसाहार आदि की नक़ल करते हुए इन्हें ही अपना मुख्य भोजन मान चुकी है ,भी समझ सकती! भौगोलिक स्थितियां /जलवायु किस प्रकार खान पान को प्रभावित करती हैं इस पर स्कूल के पाठ्यक्रम में अनिवार्य पाठ जोड़ देना चाहिये.पश्चिमी खान-पान का अंधानुकरण कितना हानिकारक हो सकता है यह आप के लेख से ज्ञात हो रहा है.
ReplyDeleteसही कहा......
Deleteभोजन सम्बन्धी महत्वपूर्ण बातें ...बहुत ही उपयोगी लेख है
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ReplyDeleteबहुत बढ़िया भाई साहब :) आपका writing style बड़ा रुचिकर लगता है ..सुन्दर
ReplyDeleteआयुर्वेद के अनुसार, क्या खाया जा रहा है, यह अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। अधिक महत्वपूर्ण यह है कि जो खाया जा रहा है, वह पच रहा है कि नहीं? दो भिन्न प्रकृति के लोगों का एक सा खाने पर भी प्रभाव भिन्न होंगे।
ReplyDeleteबिल्कुल सच ....... उपयोगी जानकारी देता एक उत्कृष्ट आलेख
अत्यंत ज्ञान वर्धक ..चर्चा |
ReplyDeleteप्रवीण भाई,
ReplyDeleteराजीव दीक्षित जी के व्याख्यान सुनने के बाद आपका यह पोस्ट पढ़कर अतिशय हर्ष हुआ. अद्भूत लेख. जीवन में आयुर्वेद के सिद्धांतों का पालन कैसे करें, यह सुनिश्चित करना होगा. :) बधाई
दूध खड़े होकर क्यों नहीं पीना चाहिए?
ReplyDeleteआपकी सारी पोस्टे विरोधाभास से युक्त हैं ।
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