आयुर्वेद में चिकित्सक पहले रोगपरीक्षा करता है, यदि रोग शमन से दूर नहीं हो सकता है तो शोधन का उपयोग करता है। बहुधा शमन के द्वारा निदान हो सकने पर भी शरीर पर औषधियाँ प्रभाव नहीं डाल पाती हैं, तब शोधन के द्वारा शरीर में जमे हुये दोषों को निकाला जाता है। दोष निकल जाने के पश्चात औषधियों का प्रभाव और भी बढ़ जाता है। इस प्रकार शोधन के माध्यम से शमन अधिक उपयोगी और प्रभावी हो जाता है। कई रोगों में शल्यकर्म की भी आवश्यकता पड़ती है और यदि शरीर शल्यकर्म सह सकने में सक्षम नहीं है तो उसके पहले भी शोधन आवश्यक हो जाता है। शोधन से शरीर में शल्यकर्म सह सकने की वांछित सक्षमता आ जाती है। यदि रोग नहीं भी हैं, फिर भी आयुर्वेद के आचार्यों ने स्वस्थ और स्फूर्त रहने के लिये दोषों के प्रकोप के प्रथम माह में ही शोधन कराने का निर्देश दिया है। पंचकर्म शोधन का एक बहुप्रचलित और अत्यन्त लाभदायक प्रकार है।
ऐसा नहीं है कि पंचकर्म सभी पर एक जैसा प्रयुक्त होता है। व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार प्रक्रियाओं, द्रव्यों, समय आदि का चुनाव इसके प्रभाव को बढ़ा देता है। पंचकर्म आयुर्वेद के विशेषज्ञ की देखरेख में करना चाहिये अन्यथा समुचित लाभ नहीं मिल पाता है। पंचकर्म कराने वाले बताते हैं कि इससे न केवल पुराने और जमे हुये रोग चले जाते हैं, वरन शरीर का एक नया जन्म हो जाता है। केरल में पंचकर्म पर्यटन को आकर्षित करने का अंग है। देश विदेश से पर्यटक आते हैं, न केवल केरल का प्राकृतिक सौन्दर्य निहार कर मन से स्वस्थ होते हैं, वरन पंचकर्म के माध्यम से एक नया शरीर लेकर वापस जाते हैं। आयुर्वेद के विशेषज्ञों की राय माने तो केवल पंचकर्म की क्षमता से ही आयुर्वेद को पुनः उसके गौरवपूर्ण पूर्वस्थान पर संस्थापित किया जा सकता है। वर्तमान में पर्यटन पर अधिक निर्भर होने के कारण पंचकर्म थोड़ा मँहगा है, पर इसकी व्यापकता और लाभ जैसे जैसे प्रचारित और प्रसारित होंगे, आयुर्वेद का यह वरदान सर्वजन की पहुँच में आ जायेगा।
पंचकर्म का सिद्धान्त बड़ा ही सरल है। जहाँ पर भी कफ, वात और पित्त संचित हो जाते हैं और असंतुलन का कारण बनते हैं, उन्हें वहाँ से बाहर निकालना। पंचकर्म में पाँच प्रक्रियायें होती हैं, पर शरीर को पंचकर्म के लिये तैयार करने के लिये पूर्वकर्म और पंचकर्म के पश्चात शरीर को पुनर्स्थिर करने के लिये पश्चातकर्म। समान्यतया पंचकर्म की अवधि रोग के अनुसार ७ से ३० दिन की होती है, जिसे पूर्वकर्म, प्रधानकर्म और पश्चातकर्म में विभक्त किया जाता है। चरक के अनुसार ६ माह के शास्त्रीय पंचकर्म करने से शरीर में अद्भुत लाभ होते हैं, पर आधुनिक जीवनशैली में शास्त्रीय पंचकर्म के लिये न तो लोगों के पास समय है और न ही वांछित अनुशासन।
स्नेहन - शिरोधार |
पूर्वकर्म में दो प्रक्रियायें हैं, स्नेहन और स्वेदन। स्नेहन में तेल, घृत आदि का प्रयोग कर जमे हुये दोषों को उनके स्थान से ढीला किया जाता है जिससे उन्हें पंचकर्म के माध्यम से शरीर से बाहर निकाला जा सके। स्वेदन में शरीर में पसीना निकाल कर ढीले दोषों को महाकोष्ठ तक लाया जाता है। स्वेदन कृत्रिम रूप से कराया जाता है और किसी अंग विशेष या पूरे शरीर का हो सकता है। स्वेदन स्नेहन के पश्चात होता है और इस प्रक्रिया के समय पथ्य का विशेषरूप से ध्यान रखना होता है। वात से प्रभावित व्यक्तियों के लिये स्नेहन लाभकारी है। कफ या मोटापे से प्रभावित और कम जठराग्नि वाले लोगों को स्नेहन नहीं कराना चाहिये। कफ और वात के दोषों के लिये स्वेदन उपयुक्त है, पर कृशकाय, नेत्र और त्वचारोग के व्यक्तियों को स्वेदन नहीं कराना चाहिये। स्नेहन और स्वेदन दोनों ही कई प्रकार से किया जाता है, शरीर की प्रकृति और रोग के अनुसार प्रक्रिया का निर्धारण विशेषज्ञ द्वारा ही सुनिश्चित होता है। कुछ रोगों की चिकित्सा में स्नेहन को प्रधानकर्म के रूप में भी किया जाता है। चरकसंहिता के सूत्रस्थान के १३ वें अध्याय में स्नेहन और १४वें अध्याय में स्वेदन प्रक्रियाओं का विस्तृत वर्णन है।
पंचकर्म में पाँच अंग होते हैं, वमन, विरेचन, वस्ति, नस्य और रक्तमोक्षण। वमन से कफ, विरेचन से पित्त, वस्ति से वात, नस्य से सिर, गले का कफ तथा रक्तमोक्षण से रक्तसंबंधी विकार दूर किये जाते हैं। कायचिकित्सा के अनुसार पंचकर्म में रक्तमोक्षण नहीं है और वस्ति में ही दो भाग हैं, आस्थापन और अनुवासन। जबकि शल्यचिकित्सा में रक्तमोक्षण ही पाँचवा पंचकर्म है।
वमन को कफ दोष की प्रधान चिकित्सा कहा गया है। कफ के जमने का स्थान सर से लेकर आमाशय तक होता है। पहले स्वेदन से कफ वाह्य स्थान से हट कर इसी स्थान पर पहुँच जाता है, तत्पश्चात वमन या उल्टी की प्रक्रिया से वे सारे दोष मुख से बाहर आ जाते हैं। कृत्रिम रूप से वमन कराने के लिये विशेष प्रकार की औषधियों का प्रयोग किया जाता है। साँस के रोग, खाँसी, प्रमेह, एनीमिया, मुखरोग और ट्यूमर वमनयोग्य रोग हैं। गर्भवती स्त्री, कृशकाय, भूख से पीड़ित और कोमल प्रकृति वालों के लिये वमन निषेध है।
विरेचन को पित्त दोष की प्रधान चिकित्सा कहा जाता है। पित्त का स्थान पेट से लेकर आँतों तक होता है। पहले स्नेहन से आँतों में जमा हुआ अमा व अन्य विकार ढीले पड़ जाते हैं, तत्पश्चात विरेचन में औषधि खिलाकर गुदामार्ग से मल को बाहर निकाला जाता है। शिरशूल, अग्निदग्ध, अर्श, भगंदर, गुल्म, रक्तपित्त आदि रोग विरेचनयोग्य रोग हैं। नवज्वर, रात्रिजागृत और राजयक्ष्मा के रोगियों को विरेचन नहीं कराना चाहिये।
वस्ति को वात दोष की प्रधान चिकित्सा कहा गया है। इसमें शरीर के विभिन्न मार्गों से औषिधीय द्रव और तेल प्रविष्ट कराया जाता है, जो भीतर जाकर वात के प्रभाव को निष्क्रिय करता है। लकवा, जोड़ों के दर्द, शुक्रक्षय, योनिशूल और वात के अन्य रोगों में वस्ति अत्यन्त प्रभावी होती है। खाँसी, श्वास, कृशकाय रोगियों को वस्ति नहीं कराना चाहिये।
नस्य को सिर और गले के रोगों की प्रधान चिकित्सा कहा गया है। इस भाग में स्थित सारा कफ वमन के माध्यम से नहीं निकाला जा सकता है अतः नस्य का प्रयोग किया जाता है। इसमें नासापुट के द्वारा औषधि डाली जाती है। रोग और प्रकृति के अनुसार नस्य का प्रकार और मात्रा निर्धारित की जाती है। प्रतिश्याय, मुख विरसता, स्वरभेद, सिर का भारीपन, दंतशूल, कर्णशूल, कर्णनाद आदि रोग नस्ययोग्य रोग हैं। कृशकाय, सुकुमार, मनोविकार, अतिनिद्रा, सर्पदंश आदि के रोगियों को नस्य निषेध है।
रक्तमोक्षण का अर्थ है दूषित रक्त को शरीर से बाहर निकालना। शल्यचिकित्सा में इसका विशेष महत्व है और इसे सदा ही विशेषज्ञ की परामर्श और देखरेख में ही करना चाहिये। रक्तमोक्षण की क्रिया शिरावेधन करके भी की जाती है तथा बिना शिरावेधन के भी की जाती है। उसकी सर्वाधिक प्रचलित विधि जलौका(जोंक) द्वारा रक्त मोक्षण है। जोंक को स्थान विशेष पर लगा दिया जाता है तथा दूषित रक्त के चूसने के बाद उसे हटा लिया जाता है। विभिन्न रोगों के लिए विभिन्न शिराओं से रक्त मोक्षण का निर्देश आयुर्वेद में दिया गया है।
पश्चातकर्म में आहार और विहार से संबंधित सावधानियाँ व्यवहार में लानी होती है। यह तब तक करना होता है जब तक शरीर की सारी प्रक्रियायें अपनी पूर्णता में नहीं आ जाती है। किस तरह से भोजन की गरिष्ठता और मात्रा बढ़ानी है, खाद्य और पेय में क्या अनुपात रखना है और अन्य बाते पालन करनी होती हैं। यह लगभग उतने दिन ही चलता है जितने दिन पंचकर्म में लगा होता है, जिस गति से शरीर विकार मिटाने में उद्धत होता है, उसी गति से अपनी समान्य अवस्था में वापस भी आता है।
आयुर्वेद शताब्दियों से लम्बी आयु और उत्तम स्वास्थ्य का आधार रहा है। रोगों को न आने देने से लेकर, विकारों को व्यवस्थित विधि से हटाने के कारण यह मानव सभ्यता के लिये वरदान है। यह कहा गया है कि ४० की आयु के बाद वर्ष में १४ दिन और ६० की आयु के बाद वर्ष में २१ दिन हर व्यक्ति को पंचकर्म के लिये निकालने चाहिये। शरीर माध्यम खलु धर्म साधनम्, शरीर साधने से जीवन में सब सुख और धर्म सधते हैं। अगली कड़ी में देश में स्वास्थ्य सुविधाओं के परिप्रेक्ष्य में आयुर्वेद का आर्थिक पक्ष।
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