आयुर्वेद समझने के पहले शरीर को समझना आवश्यक है। शरीर कोई विशेष और एकात्म में जीता हुआ तन्त्र नहीं है वरन प्रकृति का ही एक अंग है। प्रकृति के संग जीने में शरीर की सार्थकता है, प्रकृति विरुद्ध जीने में शरीर को बड़ा कष्ट हो जाता है। या तो प्रकृति मुक्त हो जायें जो कि बहुत कठिन और साधना का कार्य है, या प्रकृतिलय हो जायें और प्रकृति के संग शरीर को चलाना सीख लें। प्रकृतिलय होने के दो लाभ हैं, एक तो शरीर रोगमुक्त रहेगा और अनावश्यक घर्षण न होने से पूरी जीवन ऊर्जा प्राप्त होती रहेगी।
आप चाहें न चाहें, शरीर प्रकृति के अनुसार स्वयं को ढालना चाहता है और निरन्तर उस दिशा में प्रयास करता भी रहता है। समस्या तब आने लगती है, जब हम जीवन में कृत्रिमता ले आते हैं, परिस्थितियों को अपने नियन्त्रण में मानकर जीने लगते हैं। प्रकृति एक बिन्दु तक तो कृत्रिमता सहती है, उसके बाद विकार रूप में असहनीय घर्षण व्यक्त कर देती है, वही रोग बन जाता है। हमारे लिये तब यह नितान्त आवश्यक हो जाता है कि हम प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्तों को समझें और वही सिद्धान्त अपने शरीर के साथ भी अपनायें। आप उसे प्रकृतिलयता कह सकते हैं, प्रकृति का अनुशासन कह सकते हैं, आप उसे आयुर्वेद का आवश्यक अंग भी कह सकते हैं।
तीन सिद्धान्त हैं, संतुलन का सिद्धान्त, गति का सिद्धान्त और क्रम का सिद्धान्त। दर्शन की दृष्टि से ये तीनों सिद्धान्त उतने ही सिद्ध हैं जितने भौतिक दृष्टि से।
प्रकृति अपने संतुलन के लिये विख्यात है। तन्त्र जितना बड़ा होता जाता है, अपने अस्तित्व के लिये संतुलन पर निर्भर होता जाता है। संतुलन का प्रमाण प्रकृति में स्थित चक्रीयता से मिल जाता है। ऋतुयें विधिवत आती हैं, ग्रहों के बीच की दूरियाँ सधी हैं, दिन के बात रात की निश्चितता रहती है, एक मध्य स्थिति है जिसके इधर उधर प्रकृति जाती तो है, पर लौट कर अपनी संतुलित स्थिति में लौट आती है। धारण करने वाले सारे अवयव संतुलन के प्रतिमान होते हैं। बुद्ध का मध्यमार्ग विचारों और व्यवहारों के अभूतपूर्व संतुलन का दर्शन है। बुज़ुर्गों का संतुलित व्यवहार परिवारों को साधता है। संतुलन का दर्शन व्यापक है, यह प्रकृति का सिद्धान्त है और शरीर पर भी विधिवत लागू होता है।
यदि संतुलन की दृष्टि से एक पंक्ति में आयुर्वेदीय स्वास्थ्य की परिभाषा देनी हो, तो कफ, पित्त और वायु का संतुलन में रहना स्वास्थ्य है, उनका असंतुलित होना रोग का प्रारम्भ है। किसी भी रोग के लक्षण उठाकर देख लीजिये, कोई न कोई एक तत्व बढ़ जाता है। वह किस कारण बढ़ा, वह रोग का कारण है और वह किस तरह वापस अपनी संतुलित अवस्था में वापस आता है, यह रोग का निदान है। रोग संतुलन से कितना दूर निकल गया है, यह रोग की तीव्रता बताता है और तदानुसार उतनी पीड़ा भी देता है। आप किस स्थान पर रह रहे हैं, उसके अनुसार हर शरीर का अपना नैसर्गिक संतुलन होता है। हर ऋतु, दिन का समय, जीवन का समय, हर क्रिया और हर खाद्य का अपना अलग गुण होता है, जो इस संतुलन को प्रभावित करता रहता है। स्वस्थ रहने का सीधा से सिद्धान्त है, यथासंभव व यथाशीघ्र आप उस संतुलन को वापस ले आयें। यदि यह सिद्धान्त आपको समझ आ गया, तो पहले आप बीमार ही नहीं पड़ेंगे, और यदि दुर्भाग्य से बीमार पड़ भी गये तो शीघ्र ठीक हो जायेंगे।
प्रकृति का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धान्त है गति। गति संतुलन से भिन्न पक्ष है, पर प्रकृति में जो दृष्टिगत है, उस आधार में इन दोनों में स्पष्ट भेद करना कठिन है क्योंकि दोनों सदा ही एक दूसरे से गुँथे हुये दिखते हैं। कभी कभी आप कह सकते हैं कि गति है तभी संतुलन है, कभी कह सकते हैं कि संतुलन के कारण गति स्थिर है, दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं, पर दोनों भिन्न भी हैं। प्रकृति की हर क्रिया में समय लगता है, यही कारण है कि गति प्रकृति का एक मूलभूत सिद्धान्त है।
एक पौधा यदि तीन माह में परिपक्वता पाता है तो वह उतना ही समय लेगा। उसे बदलने का प्रयास विकार ले आयेगा। एक शिशु गर्भ से अपने समय के पहले निकल आये तो हर दृष्टि से सुकोमल होता है। प्रकृति की चक्रीयता उसकी गति और संतुलन से उपजी है और वही उसमें व्याप्त व्यवस्था और अनुशासन का आधार है। शरीर को अपना स्वास्थ्य गति के सिद्धान्त से मिलता है। आयुर्वेद की दृष्टि से स्वास्थ्य शरीर के अन्दर होने वाली प्रक्रियाओं की नियत गति से ही अच्छा रहता है, उन्हें छेड़ने के प्रयास असंतुलन लेकर आते हैं और रोग का कारण बनते हैं। यदि भोजन पचने की एक गति है तो शरीर को उसी के अनुसार भोजन देना होता है। यदि शरीर को विश्राम के लिये एक नियत समय आवश्यक है तो उसका भी सम्मान करना पड़ेगा। अचानक से कुछ भी बदलने से गति प्रभावित होती है, जिससे शरीर प्रभावित होता है। ऐसा भी नहीं है कि जीवन में सब कुछ स्थिर ही होता है और परिवर्तित नहीं किया जा सकता, पर उस परिवर्तन की भी अपनी नियत गति होती है, और हमें उसका सम्मान करना आवश्यक है।
प्रकृति का तीसरा महत्वपूर्ण सिद्धान्त क्रम का है। प्रकृति में विकास का हर पक्ष क्रमिक है। कारण और प्रभाव की एक क्रमिक व्यवस्था प्रकृति में व्यापकता से देखी जा सकती है। बीज से सीधे फल नहीं आते हैं, एक क्रम का पालन करते हैं पौधे। सागर से उड़ी वाष्प सीधे ही वर्षा बन नहीं बरस जाती है, पूरी क्रमिक प्रक्रिया का पालन करता है जल। जहाँ गति है, वहाँ क्रम होगा ही।
प्रकृति की तरह ही आयुर्वेद शरीर में होने वाले परिवर्तनों में क्रम को बहुत महत्व देता है। किस वस्तु को किस रूप में लेना है, किस रूप में परिवर्तित करने के पश्चात लेना है, किसके बाद क्या लेना निषेध है, इन सबको गहनता से आयुर्वेद समझता और समझाता है। दाल को बनाने में प्रकृति ने जितना समय लगाया है, उसके पकने और पचने में भी उतना समय लेती है प्रकृति। जिस क्रम में तत्वों का संचयन हुआ है, उसी क्रम में उनका विघटन भी होता है। क्रम का यह सिद्धान्त बड़ी सूक्ष्मता से आयुर्वेद में पिरोया गया है और जैसे जैसे हम गहरे उतरते हैं, क्रम का सिद्धान्त स्पष्ट होता जाता है।
यदि इन तीन सिद्धान्तों को एक शब्द से परिभाषित किया जाये तो उसे अनुशासन कहा जा सकता है। बहुधा लोग एक अनुशासित जीवन जीने लगते हैं, उसमें प्रकृति के तीनों तत्व संतुष्ट बने रहते हैं, शरीर स्वस्थ बना रहता है। कहें तो प्रकृति के अनुशासन में रमे लोग प्रकृतिलय हो जाते हैं। हम अनुशासन के नियन्त्रण में यदि नहीं भी बंधें रहना चाहें तो भी इन तीन सिद्धान्तों को अलग अलग स्तर पर सम्मान अवश्य करते रहें। हम इन सिद्धान्तों का जितना सम्मान करेंगे, स्वयं को प्रकृति को उतने ही निकट पायेंगे, प्रकृति से शरीर का उतना ही कम घर्षण होगा, हम उतने ही स्वस्थ और ऊर्जान्वित रहेंगे।
विषय को समझने के पहले उसकी सैद्धान्तिक स्थापना आवश्यक होती है, ऐसा करने से समझ सरल और सहज हो जाती है। आयुर्वेद बड़ा ही सरल और व्यावहारिक है। जिन्होंने आयुर्वेद के ऊपर जटिलता का आवरण चढ़ा रखा है, उनसे निपटने में ये सिद्धान्त जानने बहुत आवश्यक हैं। आप अपना ८५ प्रतिशत स्वास्थ्य स्वयं ही साध सकते हैं और वह भी साधारण खानपान की वस्तुओं से। बस यह याद रहे कि जो खा रहे हैं और जब खा रहे हैं, उससे शरीर की संतुलन, गति और क्रम के सिद्धान्त कैसे प्रभावित हो रहे हैं।
अगली पोस्टों में आयुर्वेद के व्यावहारिक और आर्थिक पक्षों पर भी चर्चा की जायेगी।
ज्ञानवर्द्धन करता सुन्दर आलेख .......
ReplyDeleteआपके आलेख को पढ़कर लग रहा है वाकई आयुर्वेद और उसके सिद्धांत उतने भी जटिल नहीं जितना उन पर जटिलता का आवरण चढ़ा रखा है।
ReplyDeleteआजकल ऐसी जानकारी ज़रूरी है ....अगली पोस्ट का इंतज़ार रहेगा !
ReplyDeleteआभार!
आर्युवेद पर गहन अध्यन !
ReplyDeleteसरलता से रोचक विषय को समझाया है .
ReplyDeleteसंतुलित जीवन शैली कई सारी समस्याओं का हल है ..... आज के समय में सभी के लिए उपयोगी है आपकी यह जानकारीपरक श्रंखला....आभार
ReplyDeleteआयुर्वेद के दर्शन की श्रृंखला निपटा लेने के बाद आपसे अपेक्षित हो जाता है कि आयुर्वेद के अन्तर्गत व्यक्ति को कब क्या खाना और कैसे रहना चाहिए जैसे सलाह सूत्र भी ब्लॉग पोस्ट में परोसें। मेरे जैसों के लिए वर्तमान की त्वरित जरूरत आयुर्वेद के गूढ़ सिद्धान्त के वनिस्पत उसके अन्तर्गत ॠतुचर्या के अनुसार क्या-क्या सेवन और रहन-सहन हो, यह अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। ............उल्लेखनीय आलेख।
ReplyDeleteआयुर्वेद के दर्शन की गहन जानकारी,संग्रहणीय पोस्ट ...!
ReplyDeleteRECENT POST - आँसुओं की कीमत.
आयुर्वेद में रूचि रखने वालों के लिए महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक आलेख.
ReplyDeleteइस विषय को समझना कठिन ही है पर यदि आप अगली पोस्ट में वात पित्त और कफ के पक्ष को भी थोडा सरल करें तो बढिया रहेगा और आप ऐसा कर सकते हैं ये उम्मीद है
ReplyDeleteसंतुलन का कोई विकल्प नहीं ,क्षेत्र कोई भी हो ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति को आज की छत्रपति शिवाजी महाराज की ३८४ वीं जयंती और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteयदि संतुलन की दृष्टि से एक पंक्ति में आयुर्वेदीय स्वास्थ्य की परिभाषा देनी हो, तो कफ, पित्त और वायु का संतुलन में रहना स्वास्थ्य है, उनका असंतुलित होना रोग का प्रारम्भ है। किसी भी रोग के लक्षण उठाकर देख लीजिये, कोई न कोई एक तत्व बढ़ जाता है। वह किस कारण बढ़ा, वह रोग का कारण है और वह किस तरह वापस अपनी संतुलित अवस्था में वापस आता है, यह रोग का निदान है। रोग संतुलन से कितना दूर निकल गया है, यह रोग की तीव्रता बताता है और तदानुसार उतनी पीड़ा भी देता है। आप किस स्थान पर रह रहे हैं, उसके अनुसार हर शरीर का अपना नैसर्गिक संतुलन होता है। हर ऋतु, दिन का समय, जीवन का समय, हर क्रिया और हर खाद्य का अपना अलग गुण होता है, जो इस संतुलन को प्रभावित करता रहता है। स्वस्थ रहने का सीधा से सिद्धान्त है, यथासंभव व यथाशीघ्र आप उस संतुलन को वापस ले आयें। यदि यह सिद्धान्त आपको समझ आ गया, तो पहले आप बीमार ही नहीं पड़ेंगे, और यदि दुर्भाग्य से बीमार पड़ भी गये तो शीघ्र ठीक हो जायेंगे।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सटीक तथ्य ,हर व्यक्ति की एक प्रकृति है एक तत्व की प्रधानता लिए है हर व्यक्ति वात ,पित्त या कफ में से।
आभार आदरणीय भाईसाहब आपकी टिप्पणियों के लिए। आयुर्वेद पे कलम चलाना राष्ट्र हित में भी है हमारी पौर्वत्य विद्या है वेद (पंचम )कहा गया है आयुर्वेद को। इंटीग्रेटिड मेडिसन के दौर आयुर्वेद खुद -ब -खुद अपनी जगह बना रहा है।
यदि संतुलन की दृष्टि से एक पंक्ति में आयुर्वेदीय स्वास्थ्य की परिभाषा देनी हो, तो कफ, पित्त और वायु का संतुलन में रहना स्वास्थ्य है, उनका असंतुलित होना रोग का प्रारम्भ है। किसी भी रोग के लक्षण उठाकर देख लीजिये, कोई न कोई एक तत्व बढ़ जाता है। वह किस कारण बढ़ा, वह रोग का कारण है और वह किस तरह वापस अपनी संतुलित अवस्था में वापस आता है, यह रोग का निदान है। रोग संतुलन से कितना दूर निकल गया है, यह रोग की तीव्रता बताता है और तदानुसार उतनी पीड़ा भी देता है। आप किस स्थान पर रह रहे हैं, उसके अनुसार हर शरीर का अपना नैसर्गिक संतुलन होता है। हर ऋतु, दिन का समय, जीवन का समय, हर क्रिया और हर खाद्य का अपना अलग गुण होता है, जो इस संतुलन को प्रभावित करता रहता है। स्वस्थ रहने का सीधा से सिद्धान्त है, यथासंभव व यथाशीघ्र आप उस संतुलन को वापस ले आयें। यदि यह सिद्धान्त आपको समझ आ गया, तो पहले आप बीमार ही नहीं पड़ेंगे, और यदि दुर्भाग्य से बीमार पड़ भी गये तो शीघ्र ठीक हो जायेंगे।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सटीक तथ्य ,हर व्यक्ति की एक प्रकृति है एक तत्व की प्रधानता लिए है हर व्यक्ति वात ,पित्त या कफ में से।
आभार आदरणीय भाईसाहब आपकी टिप्पणियों के लिए। आयुर्वेद पे कलम चलाना राष्ट्र हित में भी है हमारी पौर्वत्य विद्या है वेद (पंचम )कहा गया है आयुर्वेद को। इंटीग्रेटिड मेडिसन के दौर आयुर्वेद खुद -ब -खुद अपनी जगह बना रहा है।
बहुत उपयोगी शृंखला :सुगम भाषा में मूलभूत जानकारी सामने रख दी है - आगे के लिए उत्सुक हैं हम !
ReplyDeleteसंतुलन, गति और क्रम को परिभाषित करती यह पोस्ट भी अत्यंत ज्ञानवर्धन में सहायक होगी, इसके आगे के लेखों का इंतजार रहेगा.
ReplyDeleteआज की भागदौड में हम शरीर पर ध्यान ही नही देते, बस जब जी में आया, समय कुसमय, कुछ भी पेट में ठूंस लेते हैं. आशा करता हूं यह श्रंखला अत्यंत ही लोकोपकारी साबित होगी.
रामराम.
विषय को समझाने में आप सक्षम हैं
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें
आज की आवश्यकता है यह । आयुर्वेद एक जीवन-शैली है । जैसा खाओ अन्न वैसा बने मन ।
ReplyDelete
ReplyDeleteहिंदी की तरह बढ़ रहा है आयुर्वेद स्वत : स्फूर्त प्रक्रिया के तहत।
ज्ञानवर्द्धन आलेख...
ReplyDeleteयदि संतुलन की दृष्टि से एक पंक्ति में आयुर्वेदीय स्वास्थ्य की परिभाषा देनी हो, तो कफ, पित्त और वायु का संतुलन में रहना स्वास्थ्य है, उनका असंतुलित होना रोग का प्रारम्भ है। किसी भी रोग के लक्षण उठाकर देख लीजिये, कोई न कोई एक तत्व बढ़ जाता है। वह किस कारण बढ़ा, वह रोग का कारण है और वह किस तरह वापस अपनी संतुलित अवस्था में वापस आता है, यह रोग का निदान है। रोग संतुलन से कितना दूर निकल गया है, यह रोग की तीव्रता बताता है और तदानुसार उतनी पीड़ा भी देता है।
ReplyDeleteगत्यात्मक संतुलन और क्रम में व्यतिकरण कदापि न हो यानी पथ्य भी उतना ही ज़रूरी है आयुर्वेद में, जितना संतुलन कफ -वात -पित्त त्रयी का ,आभार आपकी उत्प्रेरक टिप्पणियों का।
अत्यंत सुंदर
ReplyDelete