आयुर्वेद का परिचय लोग वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के रूप में कराते हैं। पर जितना मैं समझ सका हूँ, आयुर्वेद एक पूर्णकालिक जीवनशैली है जो भारतीय सांस्कृतिक व स्वास्थ्य परंपराओं में रची बसी है। आयुर्वेद से संबंधित केवल दो तथ्य समझ लिये जायें तो हम स्वयं ही ८५ प्रतिशत रोगों से अपने आप को दूर रख सकते हैं, शेष १५ प्रतिशत के लिये विशेषज्ञ का परामर्श लिया जा सकता है। समझने योग्य ये दो तथ्य हैं, अपने शरीर की प्रकृति और नियमित लिये जाने वाला भोजन। कहने का आशय है कि शरीर की प्रकृति के अनुसार समुचित भोजन बस करते रहने से रोग पास नहीं आ सकते हैं। असमय, अभोज्य और अव्यवस्थित ढंग से किये भोजन के कारण ही ८५ प्रतिशत तक रोग होते हैं।
माटी से तत्व सोखता बीज |
यह तो दार्शनिक पक्ष हुआ, पर इसी तथ्य में हमारे जीवन का वैज्ञानिक आधार भी छिपा हुआ है। जब माटी के तत्व ही शरीर में आने हैं तो उसका माध्यम क्या हो? क्या कभी आश्चर्य नहीं होता कि कैसे इस विश्व में इतने खाद्य पदार्थ हैं, कैसे उन्हें खाकर हम जीवित रहते हैं? मुझे तो बचपन में बड़ा आश्चर्य होता था कि कैसे मनुष्य ने जीवित रहने के लिये खाद्य पदार्थ ढूँढ़े होंगे। कैसे अन्न, शाक, फल आदि नियत किये होंगे, कैसे अखाद्य को उनसे अलग किया होगा। कैसे मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के लिये भिन्न व्यवस्थायें रची होंगी प्रकृति ने। इस व्यवस्था को भले ही कोई आश्चर्य के किसी भी स्तर में रखे, मेरे लिये यह समझना तब और स्वाभाविक हो जाता है जब मैं अन्न, शाक, फल आदि को माटी के उन तत्वों का वाहक मानता हूँ, जो मेरे और सबके शरीर में भी हैं। माटी के विशेष तत्व अन्न के दाने में से होते हुये मेरे शरीर में पहुँचते हैं और मुझे जीवित रखते हैं, देखा जाये तो बड़ा आश्चर्य भी है और समझा जाये तो प्रकृति का एक सहज कार्य भी है।
यही कारण है कि आयुर्वेद किसी भी वनस्पति को व्यर्थ नहीं मानती है। सबके अन्दर माटी के कोई विशेष गुण समाहित हैं, पर उन्हें किस रूप में लेना है, यह एक यक्ष प्रश्न है और आयुर्वेद का रहस्य भी। हमारे अनुभव व परम्परा से प्राप्त ज्ञान के कारण हम सैकड़ों खाद्य व अखाद्य को जानते हैं, ऐसी हजारों वनस्पतियाँ भी जानते हैं, जिनमें औषधीय गुण विद्यमान हैं। आयुर्वेद ने न जाने कितनी वनस्पतियों को उनके गुण दोष के अनुसार वर्गीकृत किया है, उनके औषधीय गुणों को उजागर किया है।
यदि अन्नादि को एक माध्यम भर समझें तो भोजन पकाना और पचाना एक वृहद प्रक्रिया के सहज अंग से दिखने लगते हैं, जिसमें माटी के तत्वों को शरीर में पहुँचाना होता है। भोजन पकाने और पचाने की इस प्रक्रिया में ही स्वास्थ्य के सारे सूत्र छिपे है, सारे रहस्य छिपे हैं। यदि इसको समझ लिया गया तो आयुर्वेद के सारे भेद समझ आ जाते हैं।
माटी से तत्वों को एकत्र करने का कार्य पौधे करते हैं। इन पौधों को कम्प्यूटर की भाषा में कहा जाये तो ये एक विशेष प्रकार के सॉफ़्टवेयर हैं जो माटी से एक विशेष प्रकार का तत्व निकालते हैं। आश्चर्य की बात देखिये कि यह सॉफ़्टवेयर अपना कार्य करने के पश्चात पुनः बीज में संकुचित हो जाता है और माटी में पहुँचने पर अपना पूर्वनियत कार्य प्रारम्भ करने लगता है। इस प्रक्रिया में दो और कारकों का योगदान रहता है, सूर्य का प्रकाश और वायु के तत्व। जिन्होंने वनस्पति शास्त्र पढ़ा है, वे ये जानते हैं कि इन दोनों कारकों के बिना पौधे का विकास संभव ही नहीं है।
पौधे के विकास में माटी के तत्वों का क्रमिक संकलन होता है तो पचाने की प्रक्रिया में उन तत्वों का क्रमिक विघटन। पचाने के पहले अन्नादि को पकाने की प्रक्रिया उसी विघटन में सहायक है। भले ही हमें लगे कि विकास की प्रक्रिया में यह सब हमने स्वतः ही खोज लिया, पर वाग्भट्ट को ध्यान से पढ़ेंगे तो खान पान जैसी सरल सी दिखने वाली बातों में ढेरों वैज्ञानिकता छिपी हुयी है। एक पूरा का पूरा चक्र होता है जिसके माध्यम से प्रकृति हमारा पोषण करती है, एक पूरा का पूरा सिद्धान्त है जिससे हम ऊर्जा आदि पाते हैं।
जितना रहस्यमयी अन्नादि का बनना है, उतना ही रहस्यमयी शरीर के अन्दर उनका विघटन भी है। हर तरह के तत्व तोड़ने के लिये एक विशेष प्रकार का एन्जाइम निकालता है शरीर का पाचनतन्त्र। पाचन की प्रक्रिया तो लार के साथ ही प्रारम्भ हो जाती है। तत्वों का पूर्ण पाचन ही पाचनतन्त्र का कार्य है। यह कार्य बिना थके, बिना रुके शरीर करता रहता है, जीवन पर्यन्त। माँसाहारी पशुओं के लिये भी माटी के जो तत्व आवश्यक होते हैं, उन्हें अन्य पशुओं से मिल जाते हैं। उनका भी चक्र अन्ततः पौधों पर ही आधारित होता है।
भोजन पचने के बाद जो शेष बचता है वह पुनः प्रकृति में मिल जाता है। जब तक शरीर जीवित रहता है, प्रकृति से पोषण पाता रहता है, अन्त में शरीर माटी में मिल जाता है। यह माटी न जाने कितने शरीरों को अपने में समेटे है, न जाने कितने शरीरों को रचने की क्षमता समेटे है। प्रकृति के इस चक्र में हम एक याचक के रूप में खड़े हैं, न जाने क्या सोचकर हम स्वयं को नियन्त्रक मान बैठते हैं। प्रकृति की यह विशालता जैसे जैसे समझ आती है, तेन त्यक्तेन भुन्जीथा का भाव मन में व्याप्त होने लगता है।
दार्शनिकता तो ठीक है, पर प्रकृति का यह चक्र रोग कैसे लाता है, जानेंगे प्रकृति के एक और सिद्धान्त के साथ।
" माटी कहे कुम्हार से तू क्यों रूँदे मोय ।
ReplyDeleteएक दिन ऐसा होएगा मैं रूँदूँगी तोय ॥"
कबीर
आयुर्वेद और उसके महत्व को समझाती आपकी यह पोस्ट निसंदेह बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है ....!!!
ReplyDeleteपापा ने गिलोय के पौधे की फरमाइश की और श्रीमान जी ने मंगवाया |बहुत शौक से हमने उसे बगीचे में लगाया |उसकी बेल होती है ,फलते फलते पीछे टेलेफोन के खंबे पर चढ़ गई | |माली एक नया नया लगाया था |रसोई में कुछ बना रही थी सो माली को कहा यहाँ बगीचे में सफाई कर दो |उसने ऐसी सफाई करी कि वो बेल ही साफ हो गई |शाम को जब पापा बाहर आए देखा उनकी प्रिय बेल पूरी साफ हो चुकी है |गुस्से से लाल मुँह ||बस इतना ही बोले ...देखो तुम्हारे माली ने क्या किया ...!!श्रीमान जी इतना ही बोले ....तुम्हें ध्यान रखना चाहिए था .....!!अब मैं शांत खड़ी रही |मुँह से इतना ही निकाला ''हे ईश्वर ये क्या हुआ ...!!" अब ऊपर देखा तो खंबे पर पूरा गुच्छा अभी भी लटक रहा था |आते जाते हम सब उसी गुच्छे को देखते और उसके पुनर्जीवित हो जाने की बात सोचते ||धीरे धीरे दैनिक दिनचर्या में उलझे ये भी भूल गए |कुछ समय बाद एक दिन पापा पीछे जब आए तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं |उस बेल ने अपनी जड़ें माटी तक फेंक दीं थीं |और पुनः लहलाहा रही थी ....!!गिलोय आयुर्वेद में बहुत इस्तेमाल होता है !बहुत शक्तिवर्धक औषधि है ...!!
ReplyDeleteप्रकृति के इस चक्र में हम एक याचक के रूप में खड़े हैं, न जाने क्या सोचकर हम स्वयं को नियन्त्रक मान बैठते हैं। प्रकृति की यह विशालता जैसे जैसे समझ आती है, तेन त्यक्तेन भुन्जीथा का भाव मन में व्याप्त होने लगता है।
विचारपरक आलेख |आपके आलेख ज्ञानवर्धक तो होते ही हैं साथ साथ एक सकारात्मक सोच भी दे जाते हैं !!गिलोय के बारे में बहुत दिनों से सोच रही थी पोस्ट लिखूँगी .....पर आज आपकी पोस्ट पढ़कर टिप्पणी पर यह लिखने से अपने आप को रोक नहीं पाई ....!!
सत्य है "चोला माटी के रे". महत्त्वपूर्ण एवं ज्ञान वर्धक
ReplyDeleteशब्द शब्द औषधि है ,आपके लेख का ।
ReplyDeleteआयुर्वेद से संबंधित केवल दो तथ्य समझ लिये जायें तो हम स्वयं ही ८५ प्रतिशत रोगों से अपने आप को दूर रख सकते हैं, शेष १५ प्रतिशत के लिये विशेषज्ञ का परामर्श लिया जा सकता है। ----------------------------------------------------इन दो लाइनो में सारा सार है यदि हम सही से आहार लें तो समस्याए बनेंगीं ही नही
ReplyDeleteबहुत सहज-सरल ढंग से आपने बता दिया ,पर आज की जीवन शैली, जहाँ सब कुछ कृत्रिम और आरोपित है , रहना शहरो - का रात-दिन का भान नहीं ,सोच-विचार- आचार सब मनमाना .
ReplyDeleteफिर भी सच तो सच ही रहेगा .आप कहे जाइये हम ध्यान दे रहे हैं !
बहुत सुंदर.
ReplyDeleteThank you. Made me look at "mati" with a different view. Will wait for part 2.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर उपयोगी प्रस्तुति ..
ReplyDeleteएक उपयोगी शृंखला है यह।
ReplyDeleteआप लिखते जाएँ हम संग्रह कर रहे हैं ..... जानकारी बहुत स्पष्ट हो रही है
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें
प्रकृति के गूढ़ रहस्य को बड़ी सहजता से समझा दिया है। आभार।
ReplyDeleteबहुत उपयोगी प्रस्तुति .... आभार।
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ReplyDeleteबहुत कसावदार ज्ञानवर्धक श्रृंखला चल रही है। श्रीमद्भागवतपुराण भी यही कहती है पृथ्वी ही तमाम जीव जगत की पोषक है।फिर चाहे वह जड़ हों या जंगम।
पृथ्वी पर समस्त जीवन प्रकृति की ही देन है . जब भी हम प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करते हैं , विकार पैदा होते हैं . इसलिये प्रकृतिक जीवन ही निरोग रह सकता है . जीवन शैली पर एलोपेथी मे भी विशेष ध्यान दिया जाता है . लेकिन निश्चित ही दवाओं मे सिंथेटिक दवाएं ज्यादा होने से ये हानिकारक भी होती हैं .
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति को आज की मिर्ज़ा ग़ालिब की 145वीं पुण्यतिथि और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर एवं सार्थक लेखन , ज्ञानवर्धक और बहुत साड़ी जानकारी जूता कर लिखी हुई .. बहुत बधाई.
ReplyDeleteI am reading Rajiv Dixit since a long time. What a man he is!
ReplyDeleteAlso Do read: The Third Curve from none other than Mansoor Khan, you will be shocked n surprised.
मैने "भारत-स्वाभिमान " [ महाकाव्य ] नामक किताब लिखी है जिसे मैंने राजीव-दीक्षित भैया को समर्पित किया है-
Deleteराजीव दीक्षित को अर्पित है मेरा यह भारत - स्वाभिमान
जीत लिया जिसने सबका मन जिसने किया देशहित गान।
वतन बसा था जिस तन-मन में वतन ही था जिसका भगवान
दीपक सम जलता था निशि-दिन ध्येय था भारत बने महान ।
क्षितिज में बैठा देख रहा है सिरमौर बने फिर हिन्दुस्तान
तट है समीप तुम चरैवेति से पुनः सुनाओ भारत - गान ॥"
ज्ञानवर्धक और उपयोगी प्रस्तुति .....
ReplyDeleteपृथ्वी से शुरू होकर सी मिएँ मिल जाना ही तो जीवन है ... समय अंतराल में बहुत कुछ होता रहता है .. आयुर्वेद भी उन्ही से एक है ... अच्छे जानकारी देती पोस्ट है ...
ReplyDeleteकबीरा माटी बन जाना ,तजके मान गुमान ,
ReplyDeleteकबीरा कुछ न बन जाना ,ताज के मान गुमान
पृथ्वी पाल रही है सबको ,मंडराया संकट उस पर ,
छोडो अब अभिमान
सुन्दर प्रस्तुति
नियन्त्रक बनना सच में बहुत विनाशकारी है। विषय पर अच्छा प्रकाश डाला है।
ReplyDeleteआयुर्वेद सिर्फ चिकित्सा नहीं , स्वस्थ रहने की जीवन पद्धति है !
ReplyDeleteबहुत ही गहनता से विषय को अभिव्यक्त किया आपने, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
वाह सर , काम का लेख है मगर दुबारा पढना पड़ेगा तब कुछ पल्ले पड़े !!
ReplyDeleteकुछ आम आदमी के लिए भी लिख दिया करो !!
माटी से पैदा हुए, माटी में मिल जाय....बहुत रोचक और सारगर्भित प्रस्तुति...
ReplyDeleteआपके लिखे समस्त आलेखों में आपके गहन शोध की झलक मिलती है. यह शृंखला भी उसी की एक बानगी है!!
ReplyDeleteआपकी सनातन टिप्पणियों के लिए आपका आभार।
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ReplyDeleteशुश्रुत को शल्य चिकित्सा का पितामह कहा गया है आज भी इनकी प्रतिमा रोहतक मेडिकल यूनिवर्सिटी के प्रांगण में देखी जा सकती है। चरक संहिता आधुनिक रोगविज्ञान ही है जिसमें रोगों के होने की वजह इटईओलजी का भी उल्लेख है गहन निरंतर शोध मांगते हैं ये आयुर्वेदिक महाकाव्य। शानदार लेखन के लिए ब्लॉग जगत आपका आभारी है।
(सुश्रुत )
प्रकृति में ही सब समाधान है .... बहुत अच्छी और जानकारी पूर्ण पोस्ट .
ReplyDeleteहमारी विरासत आयुर्वेद के जीवन शैली से जुडे स्वरुप को सामने लाने वाला ज्ञानवर्धक आलेख।
ReplyDeleteआयुर्वेद का रहस्य उजागर हो रहा है .
ReplyDeleteआयुर्वेद एक जीवन शैली का निदर्शन करता है -अच्छी श्रृंखला !
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